प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -2

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पालयन्ति नरा धर्मं कर्तव्यं स्वं च सर्वदा। 
पोषयन्ति सदा शीलं  नीतिमर्यादयोरपि ।। १० ।। 
अनुभवन्ति महत्वं ते सहकारं  श्रयन्ति च। 
सद्भावमधिकारे ते नोत्काः कर्तव्यबुद्धयः ।। ११ ।। 
व्यवहरन्ति तथाऽन्यैस्तु यथा स्वस्मै प्रियो भवति । 
व्यवहार:, स्तरं  तं ते निर्वाहस्याश्रयन्ति तु ।। १२ ।। 
उपलब्धो यथाऽन्यैस्तु ते विदन्ति भविष्यति।     
ईर्ष्या  प्रदर्शनैरत्र विलासैः संग्रहैरपि ।। १३ ।। 
उत्पद्यन्ते विग्रहाश्च सुखाशान्तिविनाशकाः।
गृघ्नवो वैभवं प्राप्तुमर्पयन्ति हि जीवनम् ।। १४।। 
मानवस्य गरिम्णस्तु येषां बोधोऽस्ति ते नरा: । 
उत्कृष्ट चिन्तने लग्नाः कर्तृत्वेऽप्युत्तमे सदा ।। १५ ।। 

भावार्थ - मनुष्य अपने कर्तव्यधर्म का पालन करते हैं। शील पालते और नीति- मर्यादा का महत्त्व समझते हैं। सद्भाव और सहकार का आचरण करते हैं। अधिकार पर कम और कर्तव्य पर अधिक ध्यान देते हैं। दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा अपने लिए प्रिय है उसी स्तर का निवार्हअपनाते हैं, जैसा कि अधिकांश लोगों को उपलब्ध है। वे जानते हैं कि संग्रह विलास और प्रदर्शन से ईर्ष्या उत्पन्न होती है और विग्रह पनपते हैं। लालची, वैभव संपादन पर ही बहुमूल्य जीवन न्यौछावर कर देते हैं, पर जिन्हें मानवी गरिमा का बोध है, वे उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व में निरत रहते हैं ।। १० - १५ ।। 

व्याख्या- मानवी चेतना के तीन स्तरों के रूप में पाताललोक, भूलोक और स्वर्गलोक की आलंकारिक विवेचना की जाती है। रहते तो ये सब धरती पर हैं व काया भी सबकी मानवी होती हैं, किंतु इनकी प्रकृति भिन्न- भिन्न होती है। अहंकारी, आक्रामक, कालिमा से पुते, लोभी, लालची, उद्धत आचरण वाले, हेय स्तर का जीवन जीने वाले नर- पिशाच पाताल लोक वासी कहे जाते हैं। ये स्वयं जलते, औरों को जलाते, स्वयं कुढ़ते, औरों को कुढ़ाते हैं। भूलोक पर मानवी गरिमा में विश्वास रखने वाले नर मानवों का निवास होता हैं। मनुष्य अर्थात् सभ्य, शिष्ट, सज्जन। शालीनता एवं सहकारिता से प्रेम करने वाला। मर्यादा में रहने व जिम्मेदारियों को समझने- निबाहने वाला। वह दूसरों का सम्मान करता व हिल- मिलकर, मिल- बाँटकर रहने, खाने की नीति में विश्वास रखता है। 

यक्षिणियों का कुचक्र 

एक व्यापार के यहाँ नौका चालन द्वारा व्यापार होता था। एक बार दोनों बड़े लड़के नावों में माल भर कर विदेश बेचने ले गए। लौटते हुए परदेश से दूसरा माल लाने की योजना थी। 

रास्ते में समुद्री तूफान आया। नावें उलट गईं। उनमें रखे दो तख्तों के सहारे वे किनारे आ गए। जान भर बच गई। उस क्षेत्र में तीन यक्षिणियों का शासन था। एक का नाम था वासना, दूसरी का तृष्णा, तीसरी का अपूर्णा। वे सुंदर युवकों की तलाश में रहतीं। कुछ दिन के भोग- विलास से उन्हें खोखला कर देतीं और इसके बाद दूर के सिंह- बाघों से भरे जंगल में उन्हें बेमौत मरने के लिए छोड़ देतीं। यक्षिणियों ने उन युवकों का भी इसी दृष्टि से उपभोग किया। उन्हें हिदायत कर दी कि घूमना हो तो महल के इर्द- गिर्द ही घूमें। दक्षिण दिशा में भूलकर भी न आवें। 

दोनों भाई उनके पंजे से छूटकर घर जाने की फिकर में थे, सो दाँव लगते ही दक्षिण दिशा की ओर तेजी से चल पड़े। दूर जाने पर एक जर्जर अस्थि कंकाल रूप में युवक रोता मिला। उसने बताया- '' यक्षिणियों ने खोखला करके यहाँ मरने के लिए छोड़ दिया है। रहस्य की बात यह है कि वे पीछा करें, मधुर बातें करें, तो भी उनकी ओर 
मुड़कर न देखना, अन्यथा वे भारी प्रतिशोध लेंगीं। '' ऐसा ही हुआ। यक्षिणियाँ पीछे दौड़ती हुई आईं। एक भाई उनसे वार्ता करने लगा, उसे ले जाकर कुछ ही दूर पर मार डाला। जिसने मुड़कर नहीं देखा, वह उनके जादू से बच गया और किसी प्रकार घर आ गया। 

लिप्साएँ यक्षिणियाँ हैं। जो उनके कुचक्र में फँसता है, वह जान गँवाता है। 

धुंधकारी  की दुर्गति का कारण

एक संत धुंधकारी की कथा के माध्यम से मानव के अधः पतन का प्रसंग समझाते हुए एक सत्संग में कह रहे थे-'' धुंधकारी वेश्याओं के चक्कर में फँस गया था। उनको प्रसन्न करने के लिए चोरी- अनाचार भी करने लगा। जब वह वेश्याओं को प्रसन्न करने में समर्थ न हो सका तो वेश्याओं ने उसके मुख में अंगार भर कर उसे मार डाला। वह प्रेतयोनि में गया। उसके भाई गोकर्ण ने उसका गया श्राद्ध किया, पर फिर भी मुक्ति न मिली। आलंकारिक रूप से विवेचन किया जाय, तो ' धुंधकारी 'है- मनुष्य का संकीर्ण स्वार्थपरक स्वभाव। वह कोई मर्यादा- अनुशासन नहीं मानता। मनमानी करने के लिए अंधाधुन्ध कुछ भी करता है। पाँच वेश्याओं के वह वशीभूत है। पाँच वेश्याएँ हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की पाँच तन्मात्राएँ। इन्हें तुष्ट करने के लिए वह अपने पिता आत्मदेव की भी नहीं सुनता। उनसे छल करता है। उसकी माँ धुंधली स्वार्थ बुद्धि उसका समर्थन करके उसके हौसले बढ़ा देती है। 

धुंधकारी कालांतर में माता- पिता पर हावी हो जाता है। स्वार्थभाव दीवाना हो जाता है, तो न आत्मचेतना की सुनता है और न बुद्धि की। यही स्वार्थ जीव माता- पिता आत्म- चेतना (आत्मदेव) और धुंधली बुद्धि की उपेक्षा करके चोरी- धोखेबाजी करके भी वेश्याओं को तुष्ट करता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के सुख के लिए अनैतिकताओं पर भी उतर आता है। 

जब उन्हें तुष्ट नहीं कर पाता, तो वें वेश्याएँ उसके मुख में अंगार भर देती हैं। धुंधकारी जैसे स्वार्थी जीव का ऐसा ही दुखद अंत होता है। हीन प्रवृत्तियाँ जब भड़क उठती हैं, तुष्ट नहीं हो पातीं, तो जीव को ऐसी ही भीषण पीड़ा होती है। जो समय पर चेत जाए, सद्बुद्धि पा जाए, वही इस कष्ट से बच पाता है । '' 

चंद्रमा का घटना- बढ़ना

व्यक्तित्व का उत्थान- पतन किस प्रकार सुख व दु:ख का कारण बनता है, इस पर गुरुकुल में विचारविमर्श चल रहा था। पूर्णिमा पर चंद्रिका बरसाते चंद्रमा को देखकर महर्षि गार्ग्य से एक शिष्य ने पूछा-'' भगवन् !पंद्रह दिन चंद्रमा की आभा बढ़ती रहती , पंद्रह दिन घटती रहती है। इसका रहस्य क्या है ?'' 

गार्ग्य ने समझाया-'' तात ! विधाता ने चंद्रमा का यह क्रम बताने के लिए अपनाया है कि व्यक्तित्व के विकास से लोग न केवल स्वयं प्रकाशित होते हैं, वरन् संसार को भी प्रकाशित करते हैं, जबकि पतन की ओर उन्मुख होने वाले क्षीण होते और अज्ञान के अंधकार में गिरकर नष्ट हो जाते हैं। 

क्रोध- महा चांडाल 

संत उन्हें कहते हैं जो हर परिस्थिति में समरसता की नीति अपनाते-आवेश में नहीं आते हैं। 

एक साधु गंगा के किनारे कपड़े धो- सुखा कर धूप में उपासना करने बैठ गए। उसी बीच एक अछूत आया, उसने भी गंगा में स्नान किया तथा कपड़े धोकर सूखने डाल दिए। हवा चली उसके कपड़े उड़कर साधु के कपड़ों तक पहुँच गए। साधु ने देखा, तो क्रोध से भर गए। अछूत को गालियाँ देने लगे-'' कम्बख्त ने धोए कपड़े खराब कर दिए। '' अछूत बोला-'' महाराज ! हवा से उड़कर गंगा में धोए गए वस्त्र छू भी गए, तो क्या हुआ ?'' साधु का क्रोध जवाब सुनकर और बढ़ गया। उसे लात- घूँसों से पीटने लगे। अछूत स्वस्थ था। अनीति पर क्रोध उसे भी आया। उसकी त्योरी बदली देख साधु भयभीत हो हट गए और फिर नहाने लगे। अछूत को भी कुछ पिटने, कुछ क्रोध से पसीना आ गया था ! वह भी नहाने लगा। 

अब साधु खीझे-'' बोले तू क्यों फिर नहाने लगा। '' उसने भी प्रश्न किया- '' आप क्यों फिर नहाने लगे। '' संत बोले-'' चांडाल को छूने से हुई अपवित्रता हटाने के लिए नहाना जरूरी है। '' वह बोला- '' मुझे भी महाचांडाल ने, क्रोध ने छू लिया था। उससे हुई अपवित्रता दूर करने के लिए मैं भी पुनः माँ गंगा की धारा में उतरा हूँ। '' 

अहंता और अकर्तव्य परस्पर पूरक

महाभारत समाप्त हुआ। पुत्रों के वियोग से दुःखी धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर को बुलाया। उनके साथ सत्संग में दुःख हलका करने लगे। चर्चा के बीच धृतराष्ट्र ने  पूँछा -'' विदुर जी ! हमारे पक्ष का एक- एक योद्धा इतना सक्षम था कि उसने सेनापति बनने पर अपने पराक्रम से पाण्डवों के छक्के छुड़ा दिए। यह जीवन- मरण का युद्ध है, यह सबको विदित था। यह ध्यान में रखते और सेनापति बनने पर ही अपना पराक्रम प्रकट करने की जगह कर्तव्य बुद्धि से एक साथ पराक्रम दिखाते, तो क्या युद्ध जीत न जाते ?'' 

विदुर जी बोले-'' राजन ! आप ठीक सोचते हैं। यदि वे ऐसा कर सकते, तो जीत सकते थे, परंतु अकेले अधिक यश बटोरने की लिप्सा तथा अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की अहंता ने कर्तव्य को सोचने, उसे निभाने की उमंग पैदा करने का अवसर ही नहीं दिया। यदि कर्तव्य ही सोचा होता, तो वे अपने भाइयों को उनका हक देकर युद्ध टाल भी सकते थे। जो जैसा करता है, वैसा पाता है। अतः हे राजन् ! आप कौरवों की हार व उनकी मृत्यु का दुःख न करें । '' 

विंध्याचल की महत्त्वाकांक्षा

विंध्याचल पर्वत की महत्त्वाकांक्षा एक बार सूर्य के पास तक जा पहुँचने की हुई। वह उठता ही चला गया। इर्द−गिर्द खाई बनी और धूप से जनता को वंचित रहना पड़ा। 

इस अनर्थ को रोकने के लिए मुनि अगस्त्य ने पर्वतराज से वचन लेकर कुछ समय रुक जाने के लिए सहमत कर लिया। इसके बाद वे पातालपुरी में तप करने चले गए। विंध्याचल को सोचने- विचारने का अवसर मिल गया और अपनी महत्त्वाकांक्षा को मिटाकर यथास्थिति रहकर जो उपयुक्त था, उसी को करते हुए संतुष्ट रहने लगे। 

बछड़ा, झाडू !

जो संस्कार जीवन भर हावी रहते है, वे अंत तक पीछा नहीं छोड़ते। एक बूढ़ा बीमार पडा़। जीवन भर लोभ में बीता था। अपनी दवा पर भी ठीक से खर्च न करने दे। कमजोरी बढ़ती गई। उसी स्थिति में उसने देखा आँगन में बछड़ा झाडू़ चबा रहा है। उसका मन बड़ा दुःखी हुआ। मेरी कमाई इस तरह बरबाद जा रही है। बोलने का प्रयास किया पर कमजोरी में स्पष्ट शब्द नहीं निकल सके। 

लड़कों ने समझा शायद भगवान् का नाम ले रहे हैं। दूसरे ने सोचा शायद अपनी, गुप्त संपत्ति के बारे में अंत समय बतलाना चाहते हैं। उन्होंने चिकित्सक को बुलाकर कहा-'' कुछ भी खर्च हो, ऐसा प्रयास करें कि इनके कुछ शब्द स्पष्ट सुनाई दे जाएँ। '' 

कीमती दवाओं का प्रयोग किया गया। दवाओं का मूल्य और फीस मिलाकर हजार के लगभग खर्च हो गए। दवाओं ने सारी शक्ति इकट्ठी कर दी। सुनाई दिया बछड़ा, झाडू़, बछड़ा, झाडू़ यही मंत्र दुहराते हुए प्राण छूट गए। 

उन्नति पर गर्व करना भूल है

अहंकार का मद अधिक देर नहीं टिकता। बहुत शीघ्र ही इसके परिणाम सामने आते हैं। 

हवा जोर से चलने लगी। धरती की धूल उड़- उड़ कर आसमान पर छा गई। धरती से उठकर आकाश पर पहुँच जाने पर, धूल को बड़ा गर्व हो गया। वह सहसा कह उठी-'' आज मेरे सामन् कोई भी ऊँचा नहीं। जल, थल, नभ के साथ दशों- दिशाओं में मैं ही मैं व्याप्त हूँ। '' 

बादल ने धूल की गर्वोक्ति सुनी। उसने धूल की भूल पर थोड़ा अट्टहास किया और अपनी धाराएं खोल दीं। देखते ही देखते धूल आसमान से उतर कर जमीन पर पानी के साथ बहती दिखलाई देने लगी, दिशाएँ साफ हो गईं। कहीं भी धूल का नामोनिशान न रहा।

पानी के साथ बहती हुई धूल से धरती ने पूछा-'' रेणुके ! तुमने अपने उत्थान- पतन से क्या सीखा ?'' धूल ने कहा-'' धरती माता ! मैंने सीखा कि उन्नति पाकर किसी को गर्व नहीं करना चाहिए। गर्व करने वाले मनुष्य का पतन अवश्य होता है। '' 

मानव- मानव में अंतर

मानवी गरिमा की सबसे बड़ी कसौटी है- विनम्रता, निरहंकारिता। 

रूस के राजा एलेग्जेण्डर अक्सर अपने देश की आन्तरिक दशा जानने के लिए वेश बदल कर पैदल घूमने जाया करते थे। एक दिन घूमते- घूमते एक नगर में पहुँचे, वहाँ का रास्ता उन्हें मालूम न था। राजा रास्ता पूछने के लिए किसी व्यक्ति की तलाश में आगे  बढे़। 

आगे उन्होंने एक हवलदार सरकारी वर्दी पहने हुए देखा। राजा ने उसके पास जाकर पूछा-'' महाशय !अमुक स्थान पर जाने का रास्ता बता दीजिए। हवलदार ने अकड़ कर कहा-'' मूर्ख ! तू देखता नहीं, मैं सरकारी हाकिम हूँ, मेरा काम रास्ता बताना नहीं है। चल हट, किसी दूसरे से पूछ। '' राजा ने नम्रता से पूछा-'' महोदय ! यदि सरकारी आदमी भी किसी यात्री को रास्ता बता दें, तो कुछ हर्ज थोड़ा ही है। खैर, मैं किसी दूसरे से पूछ लूँगा, पर इतना तो बता दीजिए कि आप किस पद पर काम करते हैं। '' हवलदार ने और भी ऐंठते हुए कहा-'' अंधा है क्या, मेरी वर्दी को देखकर पहचानता नहीं कि मैं कौन हूँ ?'' अलेग्जेण्डर ने कहा-'' शायद आप पुलिस के सिपाही हैं। '' उसने कहा-'' नहीं, उससे ऊँचा। '' राजा-'' तब क्या नायक हैं ?'' हवलदार-'' उससे भी ऊँचा। '' राजा-'' हवलदार हैं ?'' हवलदार-'' हाँ अब तू जान गया कि मैं कौन हूँ, पर यह तो बता कि इतनी पूछताछ करने का तेरा क्या मतलब ? और तू कौन है ?'' राजा ने कहा-'' मैं भी सरकारी आदमी हूँ। '' सिपाही की ऐंठ कुछ कम हुई, उसने पूछा-'' क्या तुम नायक हो ?'' राजा ने कहा-'' नहीं उससे ऊँचा। '' हवलदार-'' तब क्या आप हवलदार हैं ?'' राजा-'' उससे भी ऊँचा। '' हवलदार-'' दरोगा ?'' राजा-'' उससे भी ऊँचा। '' हवलदार-'' कप्तान ?'' राजा- '' उससे भी ऊँचा।  हवलदार-'' सूबेदार ! '' राजा-'' उससे भी ऊँचा। '' 

अब तो हवलदार घबराने लगा, उसने पूछा-'' तब आप मंत्री जी हैं ? '' राजा ने कहा-'' भाई! बस एक सीढ़ी और बाकी रह गई है। '' सिपाही ने गौर से देखा, तो सादा पोशाक में बादशाह एलेग्जेण्डर सामने खड़े हैं। हवलदार के होश उड़ गए, वह गिड़गिडा़ता हुआ बादशाह के पाँवों पर गिर पड़ा और बड़ी दीनता से अपने अपराध की माफी माँगने लगा। 

राजा ने मीठी वाणी में कहा-'' भाई ! तुम पद की दृष्टि के कुछ भी हो पर व्यवहार की कसौटी पर बहुत नीचे हो। जो जितना नीचा होता है, उसमें उतना ही अहंकार होता है, उतना ही वह अकड़ता है। यदि ऊँचा बनना चाहते हो, तो पहले मनुष्य बनो, सहनशील नम्र बनो। अपनी ऐंठ कम करो, क्योंकि तुम जनता के सेवक हो, इसलिए तुम्हारी तो यह विशेष जिम्मेदारी है।" 

राष्ट्राध्यक्ष की सरलता 

ग्लेड्स्टन इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे। उनकी गणना संसार के सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञों में की जाती है। 

एक दिन वे घूमने निकले, तब एक गाडी़वान से उनकी भेंट हुई। गाड़ीवान ने गाड़ी में लोहा भर रखा था। ग्लेड्स्टन ने गाड़ीवान से लोहा लादकर लाने से मिलने वाले किराए आदि के बारे में पूछताछ की। इतने में रास्ते में एक टीला आ गया। घोड़ा को गाड़ी खींचने में तकलीफ होने लगी । यह देखक रग्लेड्स्टन ने गाड़ीवान से पूछा- "अब तू क्या करेगा ?'' 

गाड़ीवान ने कहा- "और क्या किया जा सकता है,कंधा लगाना पडेगा ।'' 

ग्लेड्स्टन बोले-'' अच्छा ! चलो, मैं  भी कंधा लगता हूँ। '' 

यह सुनकर ग्लेड्स्टन गाड़ी वाले के साथ कंधा लगाने लगे। थोड़ी देर में गाड़ी टीले पर चढ़ गई। गाड़ी वाले ने ग्लेड्स्टन का आभार माना और ग्लेड्स्टन अपने रास्ते चले गए। 

आगे जाने पर एक आदमी ने गाड़ीवान से कहा-'' तुम जानते हो वह आदमी कौन था ?'' गाड़ीवान बोला- नहीं तो, मैं क्या जानूँ ?'' उस व्यक्ति ने कहा-'' अरे, वे तो ग्लेड्स्टन थे, अपने राष्ट्र के प्रधानमंत्री। नादान गाड़ीवान आश्चर्य चकित होकर बोला-'' कौन, ग्लेड्स्टन ?'' 
ऐसी थी उस राष्ट्र के अध्यक्ष की सादगी और सरलता। 

ऊदबिलाव घाटे में रहे 

एक छोटे ऊदबिलाव ने पानी में घुसकर मोटी मछली की पूँछ पकड़ी। मछली उसे पानी में खींच ले चली।उसने जोर से चिल्लाकर दूसरे साथी को पुकारा। वह दौड़ा आया और दोनों ने मिलकर उसे किनोर पर ला पटका। अब बँटवारे का प्रश्न आया, तो दोनों उलझ पड़े। किसको कितना भाग मिलना चाहिए, इसका फैसला न कर सके। 

इतने में एक सियार उधर आ पहुँचा। दोनों ने उसे पंच बनाया। सियार ने वही नीति अपनाई, जो दो बिल्लियों के एक रोटी के लिए लड़ने पर बंदर ने अपनाई थी। 
सियार तगड़ा था। वह बाँटने के बहाने पूरी मछली चट कर गया और ऊदबिलावों को हाथ मलते हुए जाना पड़ा।

आपस में सुलझाने की अपेक्षा, जो अन्यों से फैसला कराते हैं , वे इसी प्रकार घाटे में रहते हैं। सद्भाव और सहकार के अभाव में व्यक्ति अपने हाथ आई संपदा भी खो बैठता है। हमारे समाज में ऊदबिलावों जैसे मूर्ख- लालची व सियार जैसे धूर्त पंचों की कमी नहीं है। 

लालच की अंतिम परिणति 

एक तांत्रिक ने आकाश से स्वर्ण वर्षा कराने की सिद्धि प्राप्त कर ली और अपने परम प्रिय शिष्य को भी सिखा दी। पर वर्ष में एक बार जब अमुक नक्षत्र उदय होता था, तभी वह प्रयोग हो सकता था। 

एक दिन दोनों कहीं यात्रा पर जा रहें थे कि रास्ते में चोर मिले। उनने दोनों को पकड़ लिया। बुढ्ढे को छोड़ दिया कि कहीं से हजार मुद्रा संग्रह करके लाये, तब उस युवक को छोड़ा जाएगा। गुरु ने शिष्य से धीरे से कहा- '' तुम घबराना मत। जल्दी ही नक्षत्र आने वाला है, सो मैं माँगा धन लेकर आ जाऊँगा। पर तुम इसका प्रयोग जल्दबाजी में न कर बैठना, नहीं तो जान से भी हाथ धो बैठोगे। '' 

दूसरे दिन ही वह नक्षत्र उदय हो गया। युवक धैर्य और विश्वास खो बैठा। उसने चोरों से कहा-'' मुझे खोल दो। मैं अभी मंत्र द्वारा स्वर्ण मुद्रा वर्षा दूँगा। कुछ तुम ले लेना, कुछ मुझे दे देना। '' चोर सहमत हो गए ''। उसे खोल दिया। युवक ने प्रयोग किया और सोना बरसने लगा। उन सबको लेकर चोर चल दिए। 

रास्ते में उन चोरों का एक और बड़ा दुर्दांत दल आया। उससे सोना देखा, तो छीनने पर उतारू हो गए। पिछले चोरों ने सब बात बता दी और उस युवक से सोना बरसाने को कहा। चोरों ने युवक को पकड़ा, पर नक्षत्र निकल चुका था, वह वर्षा न करा सका, सो उसे दुराव करने वाला कह कर मार डाला। 

अब चोरों के दोनों दलों में लड़ाई होने लगी। उस लड़ाई में एक- एक आदमी दोनों दलों के बचे। शेष सब मारे गए। दोनों ने निश्चय किया, दिन में विश्राम कर लें। रात को चलेंगे। बात तय हुई। दोनों एक- एक गाँव से भोजन और शराब लेने गए। दोनों अपने सामान में जहर मिला लाए और उसे खाने- पीने पर दोनों मर गए। 

बूढ़ा तांत्रिक हजार रुपया लेकर वापस लौटा, तो देखा सभी मरे पड़े हैं । वह उस धन को छोड़कर खाली हाथ भागा कि मुफ्त का धन कहीं इन्हीं लोगों की तरह मेरे भी प्राण हरण न कर ले। 

अहंताजन्य वित्तेषणा से जो दुर्गति इन सभी की हुई, उसे समझदार मनुष्य भली- भांति समझते व परिश्रम की कमाई को, ही महत्त्व देते हैं । 

लालची की प्राणहानि 

जो है,उसी में संतोष  करना ही बुद्धिमत्ता है। जो अधिक और  अधिक के चक्कर में पड़ते हैं ,वे प्राणों से हाथ धो  बैठते हैं। अंधड़ आया उसके कारण ? एक विशाल वृक्ष गिरा। पेड़ के नीचे एक ऊँट बैठा था उसकी कमर टूट गई और टहनियों पर लगे घोंसलों में पक्षी और अंडे- बच्चे कुचल कर चूरा हो गए। ढेरों मांस वहाँ बिखरा पडा़ था। 

एक भूखा सियार उधर से निकला और अनायास ही इतना भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुआ, सोचने लगा, महीनों तक पेट भरने का मसाला मिल गया। उसने संतोष की सांस ली। निश्चिंत होकर उसने नजर दौड़ाई, तो नदी तट पर एक बड़ा सा मेंढक दीखा। सियार ने सोचा पहले इसे लपक लिया जाय, नहीं तो यह डुबकी लगाकर भाग खड़ा होगा और हाथ से निकल जाएगा। सियार ने मेंढक पर झपट्टा मारा। मेंढक नदी में खिसक गया। सियार भी इस चिकनी मिट्टी में फिसलता चला गया और गहरे पानी में समा गया। इसे कहते हैं, लालच का फल। 

तृप्ति के लिए छड़ी की आवश्यकता 

एक राजा ने बकरी पाली और प्रजाजनों की परीक्षा लेने का निर्णय किया कि जो इसे तृप्त कर देगा उसे सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी। परीक्षा की अवधि पंद्रह दिन रखी और बकरी घर ले जाने की छूट दे दी। 

जो ले जाते, उसे भरपेट खिलाता और पंद्रह दिन उसका पेट भली प्रकार भर देता। इतने पर भी जब वह दरबार में पहुँचती, तो अपनी आदत के अनुरूप रखे हुए हरे चारे में मुँह मारती। प्रयत्न असफल चला जाता। इस  प्रकार कितनों ने ही प्रयत्न किया, पर वे सभी निराश होकर लौटे। 

एक बुद्धिमान् उस बकरी को ले गया। वह पीछे तो पेट भर देता, पर जब सामने आता तो छड़ी से बकरी की खबर लेता। वह उसे देखते ही खाना भूल जाती और मुँह फेर लेती। यह नया अभ्यास जब पक्का हो गया, तो वह बकरी को लेकर दरबार में पहुँचा। छड़ी हाथ में थी। उसके सामने हरा चारा रखा गया, तो छड़ी को ऊँची उठाते ही उसने मुँह फेर लिया, राजा समझ गया कि वह पूर्ण तृप्त हो गई। इनाम उसे मिल गया। 

रहस्य का उद्घाटन करते हुए राजपुरोहित द्वारा बताया गया कि तृष्णाएँ बकरी के सदृश हैं। वे कभी तृप्त नहीं होतीं। उन्हें व्रत, संकल्प और प्रतिरोध की छड़ी से ही काबू में लाया जा सकता है।

दुष्टता पर प्रेम की विजय 

मनुष्य की शान इसी में है, कि आत्म पर्यवेक्षण कर अपना दोष पढ़- देख लिया जाय। 

एक राजा नया- नया गद्दी पर बैठा, तो सब उसकी मात्र प्रशंसा करते। कोई दोष न बताता। ऐसी दसा में उसका सुधार और प्रगति- पथ ही अवरुद्ध हो रहा था।
राजा ने कुछ समय के लिए अवकाश लेकर सादा वस्त्रों में प्रवास के लिए निकलने का निश्चय किया, ताकि वह दूसरों के मुँह से अपने गुण ही नहीं, दोष भी जान सके। एक छोटे रथ में आवश्यक सामान लेकर राजा और सारथी निकल पड़े। 

पूछताछ से अनेक भली- बुरी बातें मालूम हुईं। चलते- चलते एक बहुत सँकरे मार्ग से रथ चल रहा था कि सामने से एक और रथ आ गया। उसमें भी कोई राजकुमार ही था। दो रथ एक साथ उस मार्ग में से निकल नहीं सकते थे। प्रश्न यह उठा कौन अपना रथ पीछे हटाए। प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और रथ आमने- सामने अड़ गए। 

अब दोनों के परिचय और गुण, दोनों का प्रसंग चला। जो हेठा पड़े, वह अपना रथ पीछे हटाए। दोनों के सारथी अपने- अपने मालिकों के गुण वर्णन करने लगे। आयु और धन की दृष्टि से दोनों समान थे, पर एक बात भिन्न निकली। एक सारथी ने कहा-'' हमारे राजकुमार सज्जनों के साथ सज्जनता का व्यवहार करते और दुष्टों को दुष्टता से जीतते हैं। '' दूसरे ने कहा-'' हमारे स्वामी सज्जनों को अधिक सज्जनता बढ़ाने और दुष्टों को प्रेम से बदलने का प्रयास करते हैं। '' 

दुष्टों से दुष्टता करने वाले प्रथम राजा ने अपना रथ पीछे हटा लिया और प्रेम का शस्त्र चलाने वाले सामने वाले के लिए रास्ता खाली कर दिया।अपना दोष समझकर पहली बार की यह यात्रा समाप्त हो गई। 

राम का आदर्श

मानवी गरिमा पर प्रकाश डालते हुए मानसकार ने राम के चरित्र के माध्यम से बड़ी अच्छी व्याख्या की है। 

नागरिक कर्तव्यों का पालन तो उतना भर है कि हम अपने उत्तरदायित्व को निबाहें और दूसरों के अधिकारों का व्यतिक्रम न करें। पर सज्जनों की शालीनता इससे भी आगे बढ़ जाती हे। वे अपने उदार व्यवहार से दूसरों के सामने आदर्श उपस्थित करते हैं और अनुकरण की प्रेरणा देते हैं। मनुष्यता का गौरव बढ़ाने वाले विभूतियों को समाज का ऋण और अमानत मानते है और उसका सदुपयोग लोकमंगल के लिए करते हैं- 

कीर्ति भनिति भूति भलि सोई। 
सुरसरि सम सब कर हित होई ।।

कीर्ति (प्रभाव) कविता (साहित्य) और संपत्ति वही श्रेष्ठ है, जो गंगाजी की तरह सबका भला कर सके। अर्थात् जो विभूतियाँ लोकहित में न लग सकें, वे निकृष्ट हैं।

 विभूति वालों को जो विशेषताएँ ईश्वर ने दी हैं, उन्हें भगवान् की धरोहर मान कर लोककल्याण में ही उनका प्रयोग करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक मात्रा में जमा संपत्ति का यही सदुपयोग है कि उसे जल्दी सत्प्रयोजनों के लिए वितरित कर दिया जाय। रावण ने प्रचुर संपत्ति जमा कर रखी थी। सिंहासनारूढ़ होने पर वह विभीषण को मिली। इस संचय का धन क्या किया जाय ? यह बात उन्होंने श्रीराम से पूछी। राम ने उसे तुरंत वितरण करके संग्रह के पाप का तत्काल प्रायश्चित करने की सलाह दी। तदनुसार वह संपदा आवश्यकता वाले लोगों एवं कार्यों के लिए अविलंब दे दी गई। 

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