प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -8

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उच्चस्तरा लोकशिक्षा समारोहसुयोजनैः। 
जायते च प्रभावेण ह्येतेर्षां बहवस्त्वह  ।। ५१ ।। 
फुल्लन्ति कुसुमानीव येऽविकासस्थिता नराः। 
कथानां च पुराणानां महत्वं घटते ततः ।। ५२ ।। 

भावार्थ- समारोह-आयोजनों के माध्यम से उच्चस्तरीय लोकशिक्षण होता रहता है, तो उस ऊर्जा के प्रभाव से प्रभावित अनेक अविकसित कलियों को भी पुष्पवत खिलने का अवसर मिलता रहता है।कथा- पुराणों का उस दृष्टि से बहुत महत्त्व है।। ५१ -५२ ।। 

कीर्तनायोजनान्यत्र संगीतप्रभुखानि हि। 
भवन्ति तस्य लोकस्य रञ्जनेन सहैव तु  ।। ५३ ।। 
लाभ: समन्वितो लोकमङ्गलस्यैष प्राप्यते। 
धर्मप्रचारकेष्वत्र देवेषु च महर्षिषु ।। ५४ ।। 
अधिकैः कीर्तनस्यैषा संगीतस्यापि चाश्रिताः। 
विधा प्रभाविनी लोकशिक्षणे सरला च या ।। ५५ ।।

भावार्थ- कीर्तन- आयोजन संगीत प्रधान होते हैं और उनमें लोकरंजन के साथ लोकमंगल की समन्वित लाभ मिलता है देवताओं, ऋषियों और धर्म- प्रचारकों में से अधिकांश ने संगीत कीर्तन की विधा को अपनाया और कथा- पुराण शैली का आश्रय लिया। लोकशिक्षण की दृष्टि से यह सरल और प्रभावी माध्यम है ।। ५३- ५५ ।।

नीतिधर्मसदाचाराद्युपयोगित्वमत्र तत् । 
कथाऽऽख्यानादिभिर्नूनं जायते तु गृहे गृहे ।। ५६ ।। 
उपायाः सर्व एवैते युज्यन्ते लोकशिक्षणे। 
सार्वभौमे ततो ज्ञेयान्येतान्यत्र समान्यपि ।। ५७ ।।

भावार्थ- घरों में कथा- कहानियों के द्वारा नीति, धर्म सदाचार की उपयोगिता हर घर- पीरवार में प्रकट होती रहती है। अस्तु इन उपायों को भी सार्वजनीन लोकशिक्षण के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ।।५६- ५७ ।। 

व्याख्या- दृश्य-श्रव्य साधन एवं सामूहिक मिलन- आयोजन जनमानस के परिष्कार की दिशा में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। व्यक्ति अपने वास्तविक रूप में उत्कृष्टता का पक्षधर है। स्रष्टा की सर्वश्रेष्ठ कृति होने के नाते आदर्शवादिता, श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर होना ही उसकी अभिलाषा रहती है, किंतु यह अधिकांश में प्रसुप्त स्थिति में होते हैं। स्वभावतः जनमानस अनुकरणप्रिय होता है। अनगढ़ स्थिति पतनोन्मुख मात्र अनुकरण के कारण होता है। यदि उसे सही दिशा दी गई होती, श्रेष्ठता का, शालीनता का पक्षधर सुसंस्कृत वातावरण मिला होता, तो वह भी अपने कुसंस्कारों की मलिनता धोकर ऊर्ध्वगामी हो सकता था। कथाओं को सुनना- सुनाना, लोकमंगल की ओर प्रवृत्त करता है। 

अन्यान्य शिक्षण की विधाओं के साथ- साथ लोकशिक्षण के निमित्त, सत्प्रवृत्ति विस्तार के निमित्त जैसा वातावरण बनाया जाना अपेक्षित है, वह शब्द शक्ति की विद्या संगीत- संकीर्तन एवं कथा- आयोजनों से सरलता से संपन्न किया जा सकता है। धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की महत्ता इसी कारण अत्यधिक बाताई जाती रही है। 

दुर्मति से कला की दुर्गति 

लोकरंजन से लोकमंगल का ही प्रयोजन पूरा होना चाहिए। दिशा गलत हो जाने पर तो यही अमृत विष तुल्य बन जाता है। अप्सरा वपु को न जाने क्या सूझी कि वह साज- सजा के साथ दुर्वासा के तपोवन में जाकर असभ्य वसंत लाने का प्रयास करने लगी। गायन और नर्तन से उसने उस आरण्यक को नंदन वन जैसा रस पूरित कर दिया। 

दुर्वासा की समाधि खुली, उनने आँख पसार कर इस कौतुक को देखा। नर्तकी को बुलाकर इस अभिनय का निमित्त कारण पूछा। वपु ने अपनी बात कह दी-'' मुझे बंध्या कहा जाता है। यह दोष छुड़ा दें। मुझे संतान प्रदान करें। '' दुर्वासा विक्षोभ से भर गए। अप्सरा को उन्होंने शाप दिया-'' जा कपोती हो जा। '' कहने की देर थी कि वह चिड़िया बनकर पेड़ की डाल पर जा बैठी। इतने पर भी संतान की कामना गई नहीं। 

दुर्वासा ने उसे चार अपंग बच्चों का वरदान दिया। चिड़िया ने चार अंडे दिए और उनसे बच्चे निकले। देखने में सुंदर लगते हुए भी वे अपंग थे। घोंसले में ही बैठे रहते और माता की सहायता से पेट भरते। 

तत्त्वज्ञानी जाबालि ने अपने शिष्यों को यह कथा- प्रसंग सुनाते हुए कहा- '' अप्सरा वपु ही अपने समय की कलाकार है। दुर्मति के कारण उसकी दुर्गति हुई है। उसने श्रेय, सौंदर्य, संवेदना और अभ्युदय यह चार बच्चे उत्पन्न किए हैं। शापित न होती तो कला के यह पुत्र न जाने कितने गौरवान्वित होते, पर आज तो जन्मदात्री की मूर्खता के कारण नामधारी भर रह गए हैं। वे अपंग स्थिति में कुछ कर- धर नहीं पा रहे हैं। 

कथा- संगीत के माध्यम से अनेक महामानवों ने जनमानस को झकझोरने एवं समय को बदलने में सफलता पाई है। प्राचीन काल में यही काम मीरा, सूरदास, तुलसीदास, चैतन्य ने किया। आधुनिक काल में भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस प्रयोजन के लिए संगीत साधना को माध्यम बनाया। 

रूस का विद्रोही कवि पुश्किन  

रूस के एक सुसंपन्न परिवार में पुश्किन जन्मे। उनके पूर्वजों का राज दरबार में बहुत सम्मान था। उच्च शिक्षित होने के कारण उन्हें कोई बड़ा पद भी मिल सकता था, पर प्रजाजनों की दुर्दशा और शासन की दुष्टता देखकर आँखें मूँद रखना उचित न लगा। उनने अपनी काव्य प्रतिभा से जन- जन के मन में आक्रोश एवं उमंगें भरने का निश्चय किया । वायलिन उठाया और सभा- सम्मेलनों की प्रतीक्षा न करके गली- गली, चौराहे- चौराहे अपने गीत गाकर भीड़ इकट्ठी करते और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ बदलने की प्रेरणा देने लगे। उनने अपने देश के साहित्यकारों और कवियों को संगठित करके उन्हें युग के अनुरूप सृजन के लिए सहमत किया। थोड़े ही समय में पुश्किन ने रूस के जनमानस की स्थिति बदल दी। उनने अपनी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित कराया और ' दी कंटेम्पटैरी ' नामक पत्र प्रकाशित किया। 

रूस सरकार को इस विद्रोही कवि की गतिविधियों का पता चला, तो उन्हें जेल डाला गया। नजरबंद किया गया और देश से निकाल दिया। तो भी वे रुके नहीं। लुक- छिपकर अपना प्रयास जारी रखे ही रहे। मात्र ३८ वर्ष के जीवन में ही उस देश के वातावरण में भारी परिवर्तन कर दिया। 

मानवी अंतराल को झंकृत करने वाले बीथोवियन 

जर्मनी की राजधानी वौन में अब से २०० वर्ष पूर्व एक गायक जन्मा। उसका नाम था बोथोवियन। गले की मधुरता जन्मजात थी और वादन की प्रवीणता उसने अध्यवसाय से सीखी थी। 

उसकी कला का मूल्य देने अनेक लोग आया करते थे और धनिकों से लेकर शासकों तक के निमंत्रण उसे मिला करते थे, किंतु उसने लालचवश एक भी निमंत्रण स्वीकार न किया और जीवन भर किसी प्रकार पेट भरता रहा। 

वह हाट- बाजार और चौराहों पर गाता था। वह अपने लिए अपनी सभाएँ स्वयं ही एकत्रित करता था। उसकी वाणी से जीवट और शाश्वत सत्य के स्वर ही निकलते थे। मानवता का गायक था वह। नर्तकों और गायकों में से असंख्य लोगों के नाम विस्मृति के गर्त में चले गए, किंतु बीथोवियन की भावना और गतिविधियों के प्रति मानवता सदा कृतज्ञ रहेगी। 

नादब्रह्म का उपयोग आदर्शों के लिए  

पोलैंड मैं जन्मे संगीत कला के मूर्धन्य स्त्रा विस्की, संसार भर में प्रख्यात थे । इतना मधुर कंठ ढूँढे़ नहीं मिलता। वे अपने अध्यवसाय से वादन में भी पारंगत हो चुके थे। उन्हें कहीं जाने और किसी भी विषय पर गाने की छूट थी । पर उन्होंने आदर्शों के लिए ही गाया। जिस प्रसंग में उन्हें हेय उद्देश्यों की गंध आई, उसे बड़े से बड़े प्रलोभन के बाद भी ठुकराया। 

हालीवुड ने एक बार उन तक प्रस्ताव पहुँचाया था कि वर्ष में मात्र तीन गाने गा दिया करें, इतने भर से उन्हें एक वर्ष का पारिश्रमिक तीन लाख डालर दिया जाता रहेगा। पर वे जानते थे कि अमेरिकी फिल्म व्यवसाय में किन हेय प्रवृत्तियों का समावेश रहता है। उनने उस प्रस्ताव को स्वीकारने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। जन जीवन को ऊँचा उठाने वाले गायनों को वे स्वल्प पारिश्रमिक पर आजीवन गाते रहे। 

धर्म प्रचार हेतु संकीर्तन 

जूनागढ़ (गुजरात) के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में बालकृष्ण का जन्म हुआ। किसी प्रकार से अन्य स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सके। कुछ दिन बीमार भी रहे, पर पीछे अहमदाबाद में एक अच्छी नौकरी मिल जाने से उनकी बीमारी और गरीबी दोनों दूर हो गईं। भगवान का दिया हुआ यह नव जीवन उन्होंने भगवान के ही चरणों में समर्पित कर दिया और मधुर कंठ से धार्मिक चेतना उत्पन्न करने वाले भजन गाकर वे लोक भावना में आदर्शों की स्थापना करने लगे। वे पुनीत महाराज कहे जाने लगे। 

उनने कुछ साथियों को लेकर भजन मंडली बनाई। पीछे बढ़ते- बढ़ते उनके प्रयत्न से धर्मप्रचार की अनेक भजन मंडलियाँ बन गईं। महिलाओं की मंडलियाँ उनने अलग बनाई। 

पुनीत महाराज का कार्यक्षेत्र सीमित न रहा। देश भर में दौरा किया और अफ्रीका भी गए। भारत में उनके गीतों का संग्रह भी बड़ी संख्या में प्रकाशित हुआ और जन- जन तक पहुँचा। '' जन जागरण '' पत्रिका लोकप्रिय हुई। वे गृहस्थ वेश में रहते थे, पर थे सच्चे अर्थों में संन्यासी। उन्हें लोभ, मोह और अहंकार छू भी न गया था। उनके संपर्क में आने वालों में से अनेक के जीवन अनुकरणीय आदर्श बने। गुजरात में उनका विशेष रूप से मान है। मणिनगर अहमदाबाद में उनका स्थापित पुनीत धाम सर्वश्रेष्ठ दर्शनीय स्थल है। 

भौतिकानां तथा राजनैतिकानां पूरा युगे। 
आर्थिकानामपि क्षेत्रे समस्तास्तास्तु या मता ।। ५८ ।।  
समाधानाय तासां च ज्ञापितु ताः समानपि। 
राजसूयादियज्ञानां व्यवस्था महतामभूत् ।। ५९ ।। 

भावार्थ- पुरातनकाल में भौतिक, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्र की समस्याओं के समाधान खोजने- बताने के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञों के आयोजन होते थे ।। ५८- ५९ ।। 
विपन्नतास्तु धार्मिक्य सामाजिक्योऽपि ताः समा:। 
अभूत् कर्तुं निरस्ताश्च वाजपेयेष्टियोजना ।। ६० ।। 
अतिरिक्तं चाग्निंहोत्राज्ज्ञानप्रज्ञप्रधानता। 
अभूत्तासु नरा एकविचाराः संगता यदा ।। ६१ ।। 
एकप्रकृतयचश्चैकलक्ष्यपूर्त्यै ततो ध्रुवम्। 
तच्चिन्तनं परिप्रेक्षानिर्धृतिर्मृगयन्ति तु  ।। ६२ ।।
विधिं मानवकल्याणकारिणं फलतो भवेत्। 
प्रगतेः सार्वभौमाया द्वारं भव्यमनावृतम् ।। ६३ ।।
निवृत्तेः संकटानां च प्रशस्तोऽध्वा च जायते। 
विभिन्नेषु च तीर्थेषु तथा पर्वसु चेदृशाम् ।। ६४ ।। 
यज्ञानां करणस्येयमृषिभिस्तु परम्परा। 
दूरदर्शिभिरेतस्माद्धेतोः संचालिता शुभा।। ६५ ।। 
कुम्भर्वाणि तीर्थेषु विभिन्नेषु सचेतनैः। 
सम्मेलनैः क्रियन्ते स्म तत्र चायोजितानि तु ।। ६६ ।।

भावार्थ- धार्मिक एवं सामाजिक विपन्नताओं को निरस्त करने के लिए वाजपेय यज्ञों का प्रचलन था। उनमें अग्निहोत्र के अतिरिक्त ज्ञानयज्ञ की प्रधानता रहती थी। एक विचार के, एक स्वभाव के व्यक्ति जब एक लक्ष्य- उद्देश्य की पूर्ति के लिए एकत्रित होते हैं तो उनका चिंतन, पर्यवेक्षण और निर्धारण कल्याणकारी उपाय खोजता है। फलतः सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुलता है,संकट के निवारण का मार्ग प्रशस्त होता है। विभिन्न पर्वों पर विभिन्न तीर्थों में ऐसे ज्ञान यज्ञ करते रहने की परंपरा दूरदर्शी ऋषियों ने इसी हेतु चलाई। कुंभ पर्वों को ऐसे ही प्राणवान सम्मेलनों के रूप में आयोजित किया जाता था ।। ६०- ६१ ।।

व्याख्या- देवसंस्कृति में  धर्मानुष्ठानों के रूप में सामूहिक यज्ञायोजनों की महत्ता है। यज्ञ का अर्थ दान, देवपूजन के अतिरिक्त संगतिकरण भी है। संगतिकरण अर्थात एक उद्देश्य के लिए, एक विचारधारा वाले व्यक्तियों का सोद्देश्य मिलन। यज्ञ में प्रक्रिया भले ही अग्निहोत्र- कर्मकाण्ड के रूप में हो, पर उनके उद्देश्य के अनुरूप उनके स्वरूप में अंतर होता है। सामूहिक संयोजन, जन साधारण का संयुक्तीकरण हमेशा श्रेष्ठ परिणतियाँ अपने साथ लेकर आता है। विधाता की भी सदैव यही इच्छा रही है कि मनुष्य मात्र मिल- जुलकर श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर हों। 

चौबीस में से एक अवतार यज्ञ भगवान् 

स्कंद पुराण में यज्ञ भगवान के अवतार का वर्णन है। जिस प्रकार भगवान ने राम, कृष्ण, नरसिंह, बाराह, कच्छ, मच्छ आदि के अवतार लिए हैं, उसी प्रकार एक अवतार ' यज्ञ पुरूष' का भी लिया है। स्वायंभुव मन्वन्तर में जब देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई और संसार में सर्वत्र घोर अव्यवस्था फैल गई, उस अव्यवस्था के फलस्वरूप सब लोग नाना प्रकार के कष्ट पाने लगे। तो इस विपन्नता को दूर करने के लिए भगवान ने यज्ञ पुरुष के रूप में अवतार लेने का निश्चय किया, क्योंकि देवताओं की शक्ति वृद्धि करने के लिए यज्ञ के अतिरिक्त और कोई उपाय या मार्ग नहीं था। 

महर्षि रुचि की पत्नी आकूति के गर्भ से भगवान ने जन्म लिया और उन्होंने संसार भर में अग्निहोत्र की लुप्तप्राय प्रथा को पुनर्जीवित किया।सर्वत्र यज्ञ होने लगे। फलस्वरूप देवताओं की शक्ति बड़ी और संसार का समस्त संकट निवारण हो गया। 

आज भी ऐसे अवतार की आवश्यकता प्रतीत होती है, जिससे विश्व आकाश पर छाई हुई घोर अशांति की अंधियारी को हटाकर पुनः धर्म सूर्य का सुख- शान्तिदायक प्रकाश उत्पन्न हो सके। सामूहिक यज्ञायोजनों की, ज्ञानयज्ञ की आज के आस्था संकट से भरे समय में बड़ी आवश्यकता है ।

नारद जी से सूत जी ने पूछा-'' हे देवर्षि!  शिव जी स्वयं यज्ञ रूप हैं, फिर क्या कारण है कि दक्ष के यज्ञ का शिव- दूतों द्वारा ही विध्वंस हुआ ? दक्ष तो ' क्रिया दक्ष ' हैं। उनके द्वारा विधि- विधान में भी कोई कमी रही हो, ऐसी संभावना नहीं है। '' 

यज्ञ  का मर्म  

नारद जी बोले-'' सूत जी ! आप ज्ञानी हैं। यदि किसी का कलेवर सजाया- सँवारा जाय, परंतु प्राण निकाल दिया जाय, तो वह रहेगा या नष्ट होगा ?'' सूत जी बोले- '' प्राण हीन कलेवर तो नष्ट होगा ही। '' 

नारद जी ने कहा- '' यही बात दक्ष के यज्ञ पर लागू होती है। दक्ष अपनी क्रिया- कुशलता पर इतना गर्व करते थे कि यज्ञ के प्राण, यज्ञीय भाव पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। यज्ञ परमात्मा को '' सुहृद् सर्वभूतानाम् '' अर्थात सारी जड़ चेतन सृष्टि का मित्र हितैषी कहा गया है। इसीलिए यज्ञ सर्वहित भाव से किया जाता है। '' 
हे ऋषिवर! जहाँ द्वेष या विरोध का भाव हो वहाँ '' सर्वहित '' भाव टूट जाता है। इसीलिए यज्ञ सत्कर्म को प्रारंभ करने से पूर्व घोषणा होती है- '' सर्वेषाम् अविरोधन यज्ञकर्म समारभे '' अर्थात, सबके प्रति अविरोध का भाव रखते हुए यज्ञ कर्म प्रारंभ किया जाता है। 

दक्ष के यज्ञ का सारा विवरण समझने के बाद देवर्षि बोले- '' हे ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञीय उपचार, यज्ञीय भावना, यज्ञीय चेतना के उभार और सदुपयोग के लिए किए जाते हैं। यज्ञीय भाव न होने से केवल उपचार कभी यज्ञ नहीं बन सकते, यह मर्म जो समझता है, वही यज्ञ रूप प्रभु का लाभ उठा पाता है। 

सामूहिक यज्ञों- सम्मेलनों की सोद्देश्य परंपरा 

रावण के आसुरी आतंक का निवारण करने के लिए लंकाकाण्ड, महायुद्ध होने, लंकादहन से लेकर सेतुबंध बाँधने तक की बात सर्वविदित है। युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ था और अंततः राम को विजय का श्रेय मिला था। सीता वापस लौटीं और राज्याभिषेक का उत्सव हुआ था। रामचरित्र के ज्ञाता इस प्रसंग को भली- भाँति जानते हैं। समझा जाता है कि इतने भर से ही तत्कालीन समस्या का समाधान हो गया होता। सुख- चैन की परिस्थितियाँ बन गई होतीं।

तत्कालीन तत्त्वदर्शियों ने एकत्रित होकर यह निष्कर्ष निकाला था कि अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता ने उन दिनों लंका से लेकर चित्रकूट, पंचवटी तक अगणित असुरों को उपजाया और आतंक बढ़ाया था। उसका अदृश्य घटाटोप लंका विजय के उपरांत भी यथावत बना हुआ था। कुछ ही समय के उपरांत उसी दुखद घटनाक्रम की फिर पुनरावृत्ति होती। कुछ के मर जाने पर रक्तबीज की तरह नए असुर उत्पन्न होते और नए उपद्रव खड़े करते।इसलिए राम विजय को पर्याप्त न माना जाय, अदृश्य का परिशोधन भी किया जाय। इनके लिए जिन अध्यात्म उपचारों की आवश्यकता थी, उनकी विज्ञजनों द्वारा व्यवस्था बनाई गई थी। दस अश्वमेध यज्ञों की योजना बनीं और संपन्न हुई थी। काशी का दशाश्वमेध घाट, भगवान राम के द्वारा संपन्न हुई अदृश्य परिशोधन की उस मात्र श्रृंखला की अभी भी साक्षी प्रस्तुत करता है। 

लंका विजय और रामराज्य स्थापना के बीच दस अश्वमेधों की श्रृंखला यह बताती है कि वातावरण में छायी विषाक्तता का निवारण और अदृश्यजगत में देवत्व का अभिवर्द्धन एक ऐसा आयोजन था, जिसे महायुद्ध और महासृजन की मध्यवर्ती कड़ी कहा जा सकता है। दो पहियों के बीच में वह धुरी आँखों से ओझल रहने पर भी कम आवश्यक नहीं मानी जा सकती। 

कृष्णावतार के समय भी इसी उपक्रम की पुनरावृत्ति हुई। कंस दुर्योधन, जरासन्ध, शिशुपाल जैसों से निपटने के लिए श्रीकृष्ण ने विराट् ध्वंस लीला रची। महाभारत युद्ध भी लड़ा गया। पांडव जीते। इसके उपरांत परीक्षित के नेतृत्व में द्वापर में सतयुग की झलक दिखाने तथा संगठित राष्ट्र को चक्रवर्ती आवश्यकता पूर्ण करने की व्यवस्था बनी। महाभारत का तात्पर्य था- विशाल भारत। उस लक्ष्य की पुर्ति भली प्रकार हुई। तत्कालीन भारत का नक्सा समूचे जम्बू द्वीप के साथ गुँथा हुआ दीखता है। 

यह ध्वंस और सृजन की उभयपक्षीय प्रक्रिया हुई। इतना बन पड़ने पर भी अदृश्यजगत में भरी हुई विषाक्तता का निराकरण आवश्यक था, अन्यथा कुछ ही समय उपरांत उस अनाचार की पुनरावृत्ति होने लगती। नए कंस, दुर्योधन उपजते और नए महाभारत की आवश्यकता पड़ती। भगवान कृष्ण ने उस परोक्ष समस्या का निराकरण आवश्यक समझा और प्रख्यात राजसूय यज्ञ के रूप में वातावरण परिशोधन का अध्यात्म उपचार नियोजित किया। उससे कुछ तो काम चला, पर अधूरापन रह जाने के कारण कुछ ही समय उपरांत परीक्षित पुत्र जनमेजय के नाग यज्ञ के नाम से विष परिशोधन का दूसरा अध्यात्म उपचार संपन्न किया। 

भगवान राम और भगवान कृष्ण द्वारा नियोजित उपरोक्त दो घटनाएँ सर्वविदित हैं। पुरातन इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि समय- समय पर ऐसे ही अनेक उपचार संपन्न होते रहे हैं। पीछे तो उनकी एक क्रमबद्ध व्यवस्था परिपाटी ही बन गई, ताकि कूड़े का ढेर जमा होने पर सफाई करने की अपेक्षा साथ की साथ बुहारी लगती, धुलाई होती और फिनायल छिड़की जाती रहे। 

विशेष पर्वों, विशेष तीर्थों में धर्मानुष्ठान होते रहने की परंपरा उसी उद्देश्य के निमित्त बनी और चली। छः छःवर्ष बाद हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक के कुंभ आयोजन ऐसे ही हैं, जिनमें साधनात्मक उपचार और ज्ञान यज्ञ की उभयपक्षीय व्यवस्था साथ-साथ चलती थी। प्रस्तुत समस्याओं पर मूर्धन्य-मनीषियों द्वारा गंभीर विचार विनिमय करके किन्हीं निर्णय- निष्कर्षों पर पहुँचा जाता था। बड़ी संख्या में धर्मप्रेमी उस अवसर पर उपस्थित होते थे। बुद्धकाल में भी संघारामों के माध्यम से अवांछनीयता उन्मूलन हेतु जनमानस जगाने के निमित्त बड़े- बड़े बौद्धिक सम्मेलन आयोजित किए जाते थे। 

इस प्रकार यज्ञों व सम्मेलनों के रूप में एक सोद्देश्य परंपरा संस्कृति के आदिकाल से चली आ रही है। 

युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ 

जब महाभारत समाप्त हो गया तो, पाण्डवों को व्यास जी ने यज्ञ करके अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्रेरणा दी और कहा- हे युधिष्ठिर !  मनुष्य गण सदैव बहुत- से पाप कर्म कर यज्ञ, तप, दान आदि के द्वारा उन पापों से छूट जाया करते हैं। हे महाराज ! पापियों की शुद्धि, यज्ञादि से हो जाती है। '' 

यज्ञ के द्वारा ही देवता, असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। देवता, असुर सभी अपने- अपने पुण्य प्राप्ति और पाप निवृत्ति के लिए यज्ञ करते हैं। अतः उपरोक्त कारणों से हे कौंतेय ! तुम भी दशरथ नंदन भगवान श्रीरामचंद्र जी के समान राजसूय, अश्वमेधादि यज्ञ करो। 

श्रुति कहती है कि महायज्ञ करने से लोग पवित्र हो जाते हैं, यह ब्रह्म हत्या का प्रायश्चित है। इससे ब्रह्महत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है। 

पृथु का अश्वमेध यज्ञ

यदि राष्ट्राध्यक्ष, देवों के देव इंद्र भी अनीति पर उतारू हो जाँय, तो यज्ञ प्रक्रिया का आश्रय लेकर उन्हें श्रेष्ठता के अंकुश में लाने का कार्य ऋषिगण करते थे। 
पृथु ने एक बार एक सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया, जहाँ पश्चिमवाहिनी सरस्वती है- ब्रह्मा और मनु का ब्रह्मावर्त क्षेत्र है, उस स्थान को चुना गया। 
यह यज्ञ बड़े ही विधि- विधान के साथ किया गया था, इससे वह अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हो रहा था। इस यज्ञ के महान प्रभाव की कल्पना करने से इंद्र का मन विचलित हो गया। वह अपने इंद्रपद के छिन जाने की आशंका करने लगे। ऐसी आशंका धारण कर ऐश्वर्यवान इंद्र ने सोचा कि जब राजा पृथु का एक सौ वाँ यज्ञ पूरा हो जाएगा, तो मेरा देवराजत्व स्वर्ग का राज्य छीन लेगा। यही सोचकर वह इस धर्म- महोत्सव को सहन नहीं कर सका और उनके इस महायज्ञ में विघ्न करने का निश्चय करके प्रतिघात करना आरंभ किया। 

राजा पृथु के सौवें अश्वमेध यज्ञ में, इंद्र ने वेष परिवर्तन करके माया के प्रपंच द्वारा घोड़े का अपहरण कर लिया, किंतु पृथु के पुत्र ने बलपूर्वक घोड़ा छुडा़ लिया। माया और छल के द्वारा इंद्र ने अपने प्राण बचाए। इस भांति दो बार इंद्र ने घोड़ा चुराया और पृथु के पुत्र ने उसे बलपूर्वक छुड़ा लिया। दूसरी बार इंद्र की नीच वृत्ति से पृथु को बड़ा क्रोध हुआ, उसने धनुष पर भयंकर बाण चढ़ाकर इंद्र का नाश कर देने की इच्छा की, इस पर ऋषियों ने राजा पृथु से कहा- '' हे नृपेन्द्र !  यदि आपकी इच्छा इंद्र को मारने की ही है, तो हे राजन ! आपके इस भयंकर बाण से तो इंद्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जाएगा। अतः हम लोग उस अनर्थकारी, आपके यश- श्रवण से जलने वाले, आपके मंगल मनोरथ के नाश में लगे, अभिमानी इंद्र को यज्ञ के सार पूर्ण मंत्रों द्वारा आह्वान करके इसी यज्ञअग्नि में होम कर देंगे। 

वस्तुतः वेदमंत्रों की, यज्ञीय मंत्रों की तथा यज्ञ की शक्ति ही ऐसी है कि जिसके द्वारा इंद्र सरीखे शक्तिशाली, देवों के राजा को भी खींचकर बुला लेना या उसे अपने सारे समाज सहित बुला लेना और यज्ञाग्नि में भस्म कर देना असंभव नहीं है। पृथु के समक्ष उनके ऋत्विजों ने कोई शेखी नहीं, वरन एक ध्रुव सत्य का संकेत किया था। वस्तुतः हुआ भी वैसा ही, इंद्र को इस महाशक्ति के सामने झुकना ही नहीं पड़ा, वरन विवशता से सही रास्ते पर आना पड़ा। 

ऋषियों की वाणी सुनकर राजा पृथु ने कहा-'' जब तक आप लोगों के द्वारा यज्ञीय मंत्रों से खिंचकर अधर्मी इंद्र मेरे सामने अग्निकुंड में जल नहीं जाता, तब तक में हाथ से धनुष नहीं त्यागूँगा, क्योंकि इस दुष्ट ने अकारण ही मेरे यज्ञ में विघ्न डाला है। '' 

इसके उपरांत पृथु की इच्छा पूर्ण करने के लिए ऋषि अपने हाथ में स्त्रुवा उठाकर इंद्र का उद्देश्य कर यज्ञ कुंड (अग्निकुंड) में आहुति देने लगे। जब यज्ञीय मंत्रों से खिंचकर इंद्र अग्नि कुंड में गिरने ही वाले थे कि स्वयंभू ब्रह्माजी ने उपस्थित हो ऋषियों से निवेदन कर इंद्र को जलने से बचा लिया। पृथु ने इंद्र के क्षमा माँगने पर क्षमादान दिया। इस तरह श्रेष्ठता की देवशक्तियों पर विजय हुई। यह प्रकरण यज्ञ प्रक्रिया की महत्ता का ही प्रतिपादन करता है। 

भारत विश्व- ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ भाग 

प्राचीनकाल में राजा भरत ने सब भाँति पूर्ण विधि- विधान के साथ- साथ सौ- सौ बार  अश्वमेध यज्ञ किए। उनके वे सब यज्ञ साधारण नहीं हुए। द्रव्य, देश, काल, यौवन, श्रद्धा, ऋत्विक् अनेक देवताओं के अर्थ इत्यादिक द्वारा अतिशय बढ़- चढ़कर संपन्न हुए थे। उस समय किसी पुरुष की दूसरे पुरुष से अपने लिए आकाश पुष्पवत् कुछ भी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं हुई और कोई दूसरे की वस्तु पर लोग दृष्टि नहीं करता था। सबों के मन में स्नेह और शील के भाव ही उमड़ते थे। 

ऐसी स्थिति यज्ञों के द्वारा ही विनिर्मित हुई थी। भारत रूपी इस खंड का नाम पहले 'अजनाभ वर्ष ' था, परंतु भरत के राजा होने के बाद ही इसका नाम भारत वर्ष प्रसिद्ध हुआ। भरत ने यज्ञों द्वारा इस देश की भूमि को पवित्र कर इसे विश्व- ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ भाग बना दिया। 
यज्ञ की शाश्वत परंपरा 

महाराज बाहु ने सातों द्वीपों में सात अश्वमेध यज्ञ किए। उन्होंने चोर- डाकुओं को यथेष्ट दंड देकर शासन में रखा और दूसरों का संताप दूर करके अपने को कृतार्थ माना। उनके राज्यकाल में यज्ञों की महिमा से पृथ्वी पर बिना जोते- बोए अन्न पैदा होता था और वह फल- फूलों से भरी रहती थी। देवराज इंद्र उनके राज्य की भूमि पर समयानुसार वर्षा करते और पापाचारियों का अंत हो जाने के कारण वहाँ की प्रजा धर्म से सुरक्षित रहती थी। 

च्यवन ऋषि ने अश्विनी कुमारों का यज्ञ किया, जिसके प्रभाव से उन्होंने देवलोक में सुर दुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त किया, इसका वर्णन भविष्य पुराण में मिलता है। 

धरती पर स्वर्ग

नैमिषारण्य क्षेत्र, सृष्टि के आदिकाल में स्वयं स्रष्टा के दीर्घकाल यज्ञों  द्वारा परम पावन हुआ। उसके उपरांत एक बार शौनक आदि ८८००० (अट्ठासी हजार) ऋषियों ने धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने हेतु नैमिषारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया। उन्हीं यज्ञादि के पवित्र प्रभावों से आज भी नैमिषारण्य पवित्र क्षेत्र बना हुआ है। 

जहाँ यज्ञ, वहाँ कलि नहीं 

गौ रूप धारिणी और वृषभ आकार धारण किए हुए धर्म को जिस समय कलियुग पार्थिव आकार ग्रहण कर उत्पीड़न दे रहा था, उसी समय राजा परीक्षित वहाँ पहुँच गए थे और उन्होंने इस सताने वाले दुष्ट का सिर तलवार से काट लेना चाहा। परिस्थिति को भाँप कर दुष्ट, पर परीक्षित के सामने कमजोर, कलियुग उनके पाँवों पर गिर पड़ा और प्राण भिक्षा माँगने लगा। इस पर राजा ने उससे कहा- 'हे कलियुग!  तुम यहाँ मत रहो और सत्य, व्रत एवं धर्ममय आचरण करो, तो रहो। यह ब्रह्मावर्त देश यज्ञभूमि है। यहाँ के ज्ञानीजन यज्ञ के विस्तार के लिए प्रयत्न करते रहते हैं और सदैव एवं सर्वत्र यज्ञेश्वर भगवान का यज्ञों द्वारा पूजन करते हैं। यज्ञ में सदैव भगवान का ही पूजन होता है एवं यज्ञ रूप भगवान सदा ही यज्ञ कर्त्ताओं के कल्याण का विधान करते रहते हैं। तथा अमोघ रूपेण उनकी मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। जिस भाँति यह वायु सर्वव्यापी है, उसी भाँति यज्ञेश्वर भगवान भी स्थावर- जंगम एवं सर्वत्र सब में ही निवास करते हैं। '' 
आज कलियुग में यज्ञ प्रक्रिया का लोप हो जाने से ही दुष्प्रवृत्तियों का बाहुल्य है एवं कलि का प्रभाव चरम सीमा पर है। 

वस्तुतः यज्ञ का वेदोक्त आयोजन, शक्तिशाली मंत्रों का विधिवत् , विधिपूर्वक बनाए हुए कुंड, शास्त्रोक्त तथा सामग्रियाँ जब ठीक विधानपूर्वक हवन की जाती हैं, तब एक दिव्य प्रभाव विस्तृत आकाशमण्डल में फैल जाता है। इसके फलस्वरूप प्रजा के अंतःकरण में प्रेम, एकता, सहयोग, सद्भाव, उदारता, ईमानदारी, संयम, सदाचार, आस्तिकता आदि सद्भावों एवं सद्विचारों का स्वयमेव आविर्भाव होने लगता है। मंत्रों से आच्छादित दिव्य आध्यात्मिक वातावरण के स्थान में जो संतान पैदा होती है, वे स्वयं सद्गुणी एवं उच्च विचारधाराओं से परिपूर्ण होती हैं। पूर्वकाल में पुत्र प्राप्ति के लिए ही पुत्रेष्टि यज्ञ कराते थे। जिनके बराबर संतान होती थी, वे भी सतोगुणी एवं प्रतिभावान संतान प्राप्त करने के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराते थे। गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार बालक के जन्म लेते- लेते अबोध अवस्था में ही हो जाते थे। इनमें से प्रत्येक में हवन होता था, ताकि बालक के मन पर दिव्य प्रभाव पड़े और वह बड़ा होने पर पुरुष सिंह एवं महापुरुष बने। प्राचीन काल का इतिहास साक्षी है कि जिन दिनों इस देश में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी, उन दिनों यहाँ महापुरुषों की कमी नहीं थी। आज यज्ञ का तिरस्कार करके अनेक दुर्गुणों, रोगों, कुसंस्कारों और बुरी आदतों से ग्रसित बालकों से ही हमारे घर भरे हुए हैं। 

यज्ञ से अदृश्य आकाश में जो आध्यात्मिक विद्युत तरंगें फैलती हैं, वे लोगों के मनों से द्वेष, पाप, अनीति, वासना, स्वार्थपरता, कुटिलता आदि बुराइयों को हटाती हैं। फलस्वरूप उससे अनेक समस्याएँ हल होती हैं। अनेक उलझनें, गुत्थियाँ, पेचीदगियाँ, चिंताएँ, भय, आशंकाएँ तथा बुरी संभावनाएँ समूल नष्ट हो जाती हैं। राजा, धनी, संपन्न लोग, ऋषि- मुनि प्राचीनकाल में बड़े- बड़े यज्ञ कराते थे, जिससे दूर- दूर का वातावरण निर्मल होता था और देशव्यापी, विश्वव्यापी बुराइयाँ तथा उलझनें सुलझती थीं। आज उसी परंपरा के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। 

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