प्रज्ञा पुराण भाग-4

। अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-1

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अभूत् सत्रस्य षष्ठ च दिनमद्य  श्रुतं जनैः 
जिज्ञासुभिः कथं देवसंस्कृतिर्भारतोदिता।।१।। 
समस्तेऽपि तु संसारे ज्ञानालोकं व्यधात् तथा 
प्रकाशयति सम्पूर्णं विश्वं दिनकरो यथा।।२।।  
मर्त्ये देवत्वभाविन्या धारित्र्यां स्वर्गसंस्थितेः 
कारिण्या गौरवं लोकैर्विभूतेर्ज्ञातमुत्तमम्।।३।। 
तथ्यमेतच्च विज्ञातुं सन्देहो नैव कस्यचित् । 
अवशिष्टों यदन्येषां प्राणिनां तुलनाविधौ ।। ४ ।। 
अनेकदृष्टिभिर्हीनो मनुष्य: कथमेष तु ।। 
सष्टेर्मुकुटरत्नत्वं सहसैव गतो महान् ।। ५ ।।  

भावार्थ- आज सत्र का छठा दिन या । देवसंस्कृति ने भारत भूमि में उदित होकर समस्त संसार में किस प्रकार दिनकर जैसा प्रकाश फैलाया- यह विवरण सभी जिज्ञासुओं ने ध्यानपूर्वक सुना । मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने वाली इस विभूति की गरिमा की उन्होने गंभीरतापूर्वक समझा । 
किसी को इस तथ्य को समझने में संदेह न रहा कि अन्य प्राणियों की तुलना में अनेक दृष्टियों से गए- गुजरे मनुष्य को किस कारण सृष्टि का मुकुटमणि बनने का अवसर मिला ।। १-५ ।। 

व्याख्या- मनुष्य अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण ही श्रेष्ठ बना है, अन्यथा इंद्रिय क्षमता, उदारता, वफादारी तथा संवेदना में वह पशुओं से मात खा सकता है । 
प्रगतिशीलता का अंतर- अपने को प्रगतिशील और द्रुतगामी समझने वाला मनुष्य कितनी ही बातों में सामान्य पशु- पक्षियों से भी गया- बीता है । विशेषता तो उसकी भावना एवं विवेकशीलता की ही है, यदि वह भी न हो , तो भौतिक दृष्टि से तो वह पिछड़ा हुआ ही माना जाएगा । तेज दौड़ने की प्रतियोगिता में मनुष्य को फिसड्डी ही ठहराया जा सकता है । जल जीवों में सेलफिस नामक मछली ६८ मील प्रति घंटा की चाल से तैरती है ।। इसके बाद सोईफिश का नंबर है, उसकी चाल ६० मील प्रति घंटा 
है । ये मछलियाँ अपने गलफड़ों से पानी की तेज धार छोड़ती हैं, जिससे उन्हें धक्का लगता है और आगे बढ़ने में सहायता मिलती है । जेट वायुयानों का निर्माण इसी सिद्धांत पर हुआ है । वे हवा को पीछे और नीचे धकेलने की विधि अपनाकर ही अपनी चाल बढ़ा सकने में सफल होते हैं ।। 

नभचरों में फ्रिगेट मत्स्यभोजी पक्षी सौ मील प्रति घंटा की चाल से उड़ता है । इससे भी अधिक चाल वेहरी और वेतसाई चिड़ियों की है वे कभी कभी डेढ़ सौ मील प्रति घंटा की चाल से भी उड़ती देखी गई हैं ।। हंस की गति तो ६० मील प्रति घंटा से अधिक नहीं होती, पर वह २१ हजार फुट की ऊँचाई पर उड़ सकता है । कोयल, तोता, मैना की वाणी की मिठास मनुष्य के लिए आज भी दुर्लभ है । 

थलचरों में चीता अग्रणी है, उसकी दौड़ ७० मील प्रति घंटा होती है । अमेरिका का प्रोगहार्न और मंगोलिया का चौसिंगा हिरन ६० मील प्रति घंटा की गति से कुलाचें भरते हैं। पचास मील प्रति घंटा की चाल से तो घोड़े भी दौड़ लेते है । खरगोश और शिकारी कुत्तों की धावन गति ४० मील प्रति घंटा है । घ्राण शक्ति, अश्व शक्ति, दृष्टि क्षमता  में भी मनुष्य पशु- पक्षियों के मुकाबले में कहीं नहीं टिकता ।। 

ईमानदारी और संवेदना-  उल्जीरिया की मदाम नेपियर के पास एक कुत्ता था । वह नित्य ही एक झोला मुंह में लटका कर जाता । डबलरोटी वाला गिनकर बारह डबलरोटी उसमें रख देता और वह ले आता । कुछ क व ग्यारह ही रोटियाँ आने लगीं ।। मालिक ने दुकानदार से पूछा । मालूम पड़ा कि वह तो बारह ही रखता है । तब कुत्ते की छिपकर जांच की गई । पाया गया कि बाहर एक बीमार कुतिया है । एक रोटी नित्य वह झोले में से उसे ही दे आता है । तब तेरह रोटियाँ भेजने को कहा गया । घर पर बारह रोटियाँ पहुँचने लगीं । कुछ दिन बाद घर पर तेरह रोटियाँ पहुँचीं । तब फिर पता लगाया और पाया गया कि वह कुतिया अब चलने- फिरने योग्य हो 
गई है और अपना भोजन स्वयं जुटा लेती है । 

काश ! छल, बेईमानी, स्वार्थपरता तथा अविश्वास की ओर दौड़ता हुआ मानव इन निरीह प्राणियों से ही कुछ सीख सकता ।। 
गरहुल (उत्तरकाशी) में एक बिल्ली का बच्चा अपनी माता से भटक गया । दो- तीन कुत्तों ने उसे घेर लिया । 
अभी वह इस बच्चे को दबोचना ही चाहते थे  कि गांव के जमींदार रामसिंह का कुत्ता झपट पड़ा और उसने सभी कुत्तों 
को मार भगाया । बच्चा अपने संरक्षक के प्रति पूँछ उठाकर कृतज्ञता प्रकट करने लगा ।कुत्ते को दया आ गई, वह इस असहाय बच्चे को उठाकर ले आया और मालिक की कोठी के पिछवाड़े उसे सुरक्षित रख दिया । जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो गया, कुत्ता उसकी बराबर देख−रेख भी करता रहा और भोजन की व्यवस्था भी । बड़ा हो जाने पर भी दोनों साथ साथ घूमते थे । शाम को तो दोनों इकट्ठे ही रहते थे । उनका स्नेह जीवन भर निभा । 

बुद्धिवैशिष्ट्यहेतोर्वा शरीररचनाविधेः ।। 
कारणान्नैव स स्वत्र सर्वायाः प्रगतेरयम् ।। ६ ।।
सुयोगस्त्वयस्य चायात आदर्शचरितग्रहात् ।। 
उत्कृष्टचिन्तनाच्चैव मेधावित्वविधेरलम् ।। ७  ।। 
मनुष्याणां गरिम्णस्ता अनुरूपाश्च भावना: ।। 
मान्यता निःसृता देवसंस्कृतेरेव शोभनाः ।। ८ ।। 
अतः सा हि मनुष्याणां कृते भगवतो ध्रुवम् ।। 
मन्यतामनुदानं तद्दिव्यं मानवमड्गलम् ।। १ ।। 
विभित्रेषु हि देशेषु जातिष्वपि च दृश्यते । 
यदौत्कृष्ट्यं स्वरूपाच्च भिन्न्स्यास्ति हिमालय: ।। १० ।। 
उदगमस्थलमेषोऽत्न धर्मो यत्न स उद्गत: ।। 
भारतीयस्तथा नद्यो निर्गता वारिपूरिताः  ।। ११ ।।

भावार्थ- मात्र मलिक संबंधी विशेषता एवं शरीर संरचना के कारण नहीं, मनुष्य को समग्र प्रगति का सुयोग्य उत्कृष्ट चिंतन मेधाविता और आदर्श चरित्र अपनाने के कारण मिला है मानवी गरिमा के अनुरूप मान्यताएं और भावनाएं देवसंस्कृति से ही निःसृत हुई हैं । इसलिए उसे समस्त मनुष्य जाति के लिए भगवान का कल्याणकारी दिव्य अनुदान ही माना जा सकता। विभिन्न देशों और जातियों में जो उत्कृष्टता दृष्टिगोचर होती है, उसका स्वरुप भिन्न दीखते हुए भी उनका मूल उद्गम भारतीय धर्म का हिमालय ही है, न सूखने वाली सीरताएं उसी से निकलीं और विभिन्न दिशाओं में गतिवान हुई हैं ।

व्याख्या- मानव का विकास सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हुआ है । देवसंस्कृति इस विद्या में सर्वोपरि रहीं है और उसके अनुदान विश्व की अनेक संस्कृतियों को मिले हैं ।। उनके प्रमाण आज भी मिलते हैं ।। 

विश्वव्यापी विस्तार के प्रमाण- यूनानी सभ्यता यूरोप में बहुत विकसित मानी जाती रही ।। इतिहासज्ञ षोकरण ने अपनी शोध पुस्तक ''इंडिया इन ग्रीस (यूनान में भारत)" में उल्लेख किया है कि ईसा से ४०o वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक वहाँ ज्ञान प्रसार के लिए गए थे । मगध और सिंधु तटवासी क्षत्रियों ने वहाँ राजसत्ता व्यवस्थित बनाई । 
मैक्सिको के आदिवासियों में ''अपाच्य'' जाती है । ऐतरेय ब्राह्मण के रुद्रमहाभिषेक प्रकरण में उल्लेख है कि पश्चिम दिशा में सुदूर देश में ''अपाच्य'' और ''नीच्य'' लोगों का निवास है । 

महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है, '' शक, यवन, यूनानी, कम्बोडिया निवासी सभी क्षत्रिय थे । परंतु वहाँ ब्राह्मणों के जाने का क्रम टूट जाने से वे कर्तव्यच्यूत हो गए ।'' 

विश्वामित्र के पुत्रों और पुलस्त्य ऋषि के आस्ट्रेलिया जाने और वहाँ वर्ण व्यवस्था स्थापित करने के प्रमाण पुराणों में मिलते है । वहाँ कोल, संथाल आदि भाषाओं के शब्द तथा जाति पाँति जैसी मान्यताएँ आज भी प्रचलित है । पुनर्जन्म की भी मान्यता भारत जैसी ही वहाँ है । 

वेदों के विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने प्रमाण देते हुए लिखा है कि पारसी फारस में जाकर बसने के पूर्व भारत निवासी थे। ''ईरान'' को भाषा विज्ञान विशेषज्ञों ने ''आर्यान्'' शब्द का अपभ्रंश माना है । परंपराओं तथा भवनों के ध्वंशावशेष विश्व के सुदूर क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति की छाप का प्रमाण प्रस्तुत करते है । कम्बोडिया का अंकोरवाट और जावा का बरबदुर मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं । वर्मा, थाइलैंड, चीन, जापान, रूस, श्रीलंका सभी जगह बौद्धों तथा अन्य भारतीय संस्कृति चिह्नों की भरमार है ।। सारे विश्व में अंकों की दशमलव प्रणाली, सात वार, संगीत के सात स्वर निर्विवाद रूप से भारतीय संस्कृति की ही देन है ।  

तथ्यमेतद् विदित्वाऽस्य चित्ते नवा। 
कणादस्य महर्षेः सा  जिज्ञासोर्मङ्गलोन्मुखा।। १२।। 
यद्येवं तर्हि जायन्ते विग्रहा धर्मकारणात् । 
कथं संस्कृतयो भिन्ना युद्ध्यन्ते च परस्परम् ।। १३ ।। 
धर्ममाश्रित्य जायन्ते पाखण्डेन सहैव च । 
अनाचाराः कथं भूमौ तीव्रा लज्जाकरा नृणाम् ।। १४ ।। 
मनस: स्वस्य सन्देहो बद्धहस्तेन तेन च । 
उक्तो महर्षिणा  तत्र सोऽग्रे कात्यायनस्य तु ।। १५।। 
शङ्कां समाहितां कर्तुमनुरोधं व्यधादपि । 
सत्रसञ्चालकस्यास्य मुनेः कात्यायनस्य सः ।। २६ ।। 

भावार्थ - इस तथ्य को समझने के उपरांत जिज्ञासु ऋषिवर कणाद के मन में मंगलोन्मुख एक शंका उत्पन्न हुई कि यदि ऐसा ही है तो फिर इन दिनों धर्म के नाम पर इतने विग्रह क्यों दृष्टिगोचर होते हैं ?  

संस्कृतियाँ आपस में टकराती क्यों हैं ? धर्म के नाम पर मानव मात्र के लिए लज्जास्पद पाखंड और अनाचार क्यों होते हैं ? अपने मन का संदेह उन्होंने करबद्ध होकर महामुनि कात्यायन के सम्मुख व्यक्त किया और शंका के समाधान का अनुरोध सत्र संचालक ऋषि कात्यायन से किया ।। 

व्याख्या- मनीषियों ने सांस्कृतिक चेतना की महत्ता समझी । देवसंस्कृति के आधारों में वर्णाश्रम व्यवस्था, सरकारों, पर्वों तथा देवालय- तीर्थों के माध्यम से महामानव बनाने का ऋषि तंत्र कर्मफल और मरणोत्तर जीवन के आधार पर आदर्शनिष्ठा के सूत्र समझे ।। इतने श्रेष्ठ सूत्र तथा इतनी सटीक व्यवस्था होते हुए भी विग्रह क्यों ? संस्कृति सहयोग और विकास के लिए है, उसमें टकराव और विग्रह- पतन क्यों ? यह स्वाभाविक जिज्ञासा जो जन मन में उभरी, उसको ऋषि कणाद ने व्यक्त किया । यह एक कटु सत्य का सर्वेक्षण है । 

विग्रह किन बातों पर ?- वेद अर्थात् ज्ञान । सहयोग सिखाता है, भ्रम हटाता है ।। परंतु ऋग, यजु, साम, अथर्व आदि वेद धाराओं के नाम पर ही विग्रह पैदा होते रहे है । 

सभी जानते हैं, परमात्मा एक है । नाम रूप अपनी रुचि के अनुसार बना लेने में कोई हर्ज नहीं । पानी, अग्नि आदि को अलग अलग नामों से जानते हैं, भिन्न भिन्न रूपों में उपयोग में लाते है, उसमें कोई विरोध नहीं, परंतु परमात्मा के नामों पर विग्रह है ।

सब मानते हैं कि धर्म की स्थापना मनुष्य को मानवी गुणों से युक्त बनाने के लिए है, सबका एक उद्देश्य है, 
फिर समानता भूलकर उपासना के स्थूल रूपों को लेकर विग्रह क्यों? 


कात्यायन उवाच- 
सौम्य कालान्तरे नूनमुत्तमान्यपि चान्ततः। 
वस्तूनि विकृतेर्हेतोर्जराजीर्णतया पुनः ।।१७ ।। 
गच्छन्त्यनुपयोगित्वं प्राणिवृक्षगृहा इव । 
अखाद्यतां यथा याति द्वितीयेऽह्नि तु भोजनम् ।।१८ ।। 
क्रमस्य नियतेरेष उपचारस्तु विद्यते । 
अस्य सन्ततमेव स्याज्जीर्णोद्धारस्तु कालिकः ।। ११।। 
शरीरस्याथ वस्त्राणां नित्यं प्रक्षालन मतम् ।
कक्षाणां शोधनं चात्र पात्नसंमार्जनं तथा ।। २० ।। 
शस्त्रेषु धारा निर्मेया भवत्येव निरन्तरम् ।। 
एव रीतिषु जायन्ते क्रमाद् विकृतयश्च ता: ।। २१ ।। 

भावार्थ-महर्षि कात्यायन ने कहा- सौम्य ! कालांतर में उत्तम वस्तुएं भी विकृतियों के कारण जरा जीर्ण होकर अनुपयोगी बन जाती हैं । प्राणी, भवन, वृक्ष सभी पर वृद्धता आती है । भोजन अगले दिन अखाद्य बन जाता है । इस नियति कम का उपचार समय समय पर जीर्णोद्धार करते रहना है शरीर वस्त्र आदि को नित्य धोना पड़ता है कमरे को बुहारना और बर्तन को मांजना पड़ता है शस्त्रों पर धार रखनी पड़ती है । इसी प्रकार प्रथा- प्रचलनों में भी विकृतियाँ घुस पड़ती हैं ।

तब ठीक,अब गलत- अनेक परंपराएँ समय विशेष के लिए ठीक होती है, बाद में अनुपयुक्त हो जाती हैं । ऋतु विशेष के आहार और वस्त्र दूसरी ऋतु के अनुकूल नहीं होते । 

परंपराओं के कुछ उदाहरण देखें :- 

राष्ट्र जागरण के लिए शिवाजी घुड़सवार सेना तैयार करते थे, गांधी जी ने अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आंदोलन चलाए । अपने समय में वे आदर्श थे, परंतु आज वे निरर्थक ही नहीं, हानिकारक भी सिद्ध होंगे । वर्णों की व्यवस्था मनुष्य के स्वभावों के अनुरूप उत्तरदायित्व सौंपने के लिए बनाई गई थी । प्रत्येक कार्य का अपना गौरव अनुभव कराया गया था । विकृत होकर वह जाति पाँति, छुआछूत, ऊँच- नीच का अहंकार और विग्रहयुक्त मान्यता में बदल गए । मुगल शासकों द्वारा मनमाने ढंग से सुंदरी, कुमारियों पर अधिकार जमाने, उनसे रक्षा करने के लिए पर्दा प्रथा और बाल विवाह को आपत्ति नियम के रूप में अपनाया गया होगा, परंतु उन्हें परिस्थितियाँ बदलने पर भी छोड़ा नहीं जा सका । कभी जंगल बहुत थे । सूखे वृक्षों की कमी नहीं थी । जंगली जानवर स्वाभाविक रूप से मरे हुए मिल जाते थे । तब अपरिग्रही साधु ठंड से तथा जानवरों से रक्षार्थ धूनी जलाकर रखते थे और जानवरों का चमड़ा लपेट कर लज्जा की रक्षा करते थे । परिस्थिति बदलने पर भी कीमती लकड़ी जलाने तथा मृग चर्म के लिए पशु हत्या करने जैसे संतत्व के सर्वथा विपरीत क्रम भी चालू है । 

सिपाही की ड्यूटी क्यो ? - बात उन दिनों की है, जब रूस में जार अलेक्जेन्डर का शासन था । एक दिन प्रशा के राजदूत बिस्मार्क जार से भेंट करने उनके महल पर गए । बिस्मार्क जहाँ बैठे थे, उसके ठीक सामने खिड़की पड़ती थी, जिससे बहुत पीछे तक का बाहरी दृश्य भी वहाँ से अच्छी तरह दिखाई दे रहा था । बिस्मार्क ने देखा कि बहुत देर से एक रायफल धारी संतरी मैदान मैं खड़ा है, जबकि रक्षा करने जैसी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं है । शांतिकाल था इसलिए सैनिक गश्त जैसी कोई बात भी नहीं थी । बड़ी देर हो गई तब बिस्मार्क ने जार से पूछा- ''यह संतरी क्यों खड़ा है ?'' जार को स्वयं भी पता नहीं था कि संतरी वहाँ किस बात का पहरा दे रहा है? जार ने अपने अंगरक्षक सेनाधिकारी को बुलाया और पूछा- '' यह संतरी इस पीछे के मैदान में किसलिए नियुक्त किया जाता है ?'' सेनाधिकारी ने बताया-'' सरकार ! यह बहुत दिनों से ही यहाँ खडा होता चला आ रहा है।'' जार ने थोड़ा कड़े स्वर में कहा- '' यह तो मैं भी देख रहा हूँ । मेरा प्रश्न यह है किसलिए खड़ा होता है ? जाओ और पता लगाकर पूरी बात मालूम करो ।'' सेनाधिकारी को कई दिन तो यह पता लगाने में ही लग गए । एक दिन सारी स्थिति का पता कर वह पुनः जार के सम्मुख उपस्थित हुआ और बताया- ''पुराने सरकारी कागजात देखने से पता चला कि ८० वर्ष पहले महारानी कैथरीन के आदेश से एक संतरी वहाँ खड़ा किया गया था । बात यह थी कि एक दिन जब घूमने के लिए निकलीं, तब इस मैदान में बरफ जमा थी । सारे मैदान में एक ही फूल का पौधा था और फूल की सुरक्षा के लिए तत्काल वहाँ एक संतरी खड़ा करने का आदेश दिया और इस तरह वहाँ यह परंपरा ही चल पड़ी । ''

नाप घर भूल गया - चीनी नागरिक लिन के जूते फट गए । उसने नौकर को पैर का नाप दे दिया । नौकर केवल सब्जी ले आया, जूते इसलिए न ला सका कि नाप घर पर भूल गया था । दूसरे दिन लिन को एक मित्र से मिलने जाना पड़ा । बाजार से गुजरा पर नए जूते नहीं लाया । पत्नी ने पूछा, तो बोला- ''मित्र से मिलने के विचार में नाप तो घर पर ही रह गया था।'' पत्नी हँसी, बोली-  ''पर जिन पैरों का नाप था, वह तो साथ ही थे।'' परंपराएँ भी इसी तरह विवेकहीन हो जाती हैं ।। 

कालानुरूपं सर्वत्र व्यवस्था शोध्यते तथा । 
परिवर्तयितुं चापि बाध्यता भवति स्वतः ।। २२ ।। 
कारणं चेदमेवास्ति परिवर्तनतामिह ।
संविधानानि गच्छन्ति कालिकानि सदैव तु ।। २३ ।।
ऋषयोऽपि स्थितीर्दृष्टवा स्मृतीः स्वा व्यधुरुत्तमाः । 
अतएव तु भेदोऽपि स्मृतिष्वत्र विलोक्यते।। २४ ।।
:पूर्वेषां ग्रन्थकर्तृणां नापमानमिदं स्मृतम् । 
भूषणानां च वस्त्राणां जीर्णानां नवतात्विदम् ।। २५ ।।

भावार्थ - समय के साथ व्यवस्था भी बदलनी और सुधारनी पड़ती है। यही कारण है कि समय के अनुरूप विधान बदलते रहे हैं । ऋषियों ने बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्मृतियाँ बदली है, इसी से स्मृतियाँ में कही- कहीं अंतर दृष्टिगोचर होता है । यह पूर्व निर्धारण कर्त्ताओं का अपमान नहीं वरन् पुराने वस्त्र आभूषण 
के स्थान पर नया श्रृंगार करने जैसा उपयोगी है।

काटो मत फुसकारो भर- एक सर्प नारद जी का शिष्य हो गया । गुरु दक्षिणा में उनने किसी को न काटने की प्रतिज्ञा करा ली । यह बात गांव के बच्चों को भी पता चल गई । उनके कंकड़ों और डंडों से पिटकर सर्प बेहाल पड़ा था । 

नारद फिर आए । सर्प ने त्याग के फलस्वरूप अपनी दुर्दशा दिखाई । नारद जी ने परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन प्रस्तुत करते हुए कहा कि न काटने का नियम तो बनाए रखो, किंतु फुसकारने का क्रम चालू कर दो । सर्प ने सलाह मानी, रवैया बदल दिया और संकट भी दूर हो गया । 

रामकथा अन्य भाषा में - मान्यता थी कि भगवान की कथा देवभाषा संस्कृत में ही लिखी- कही जाय ।संत तुलसीदास ने देखा कि संस्कृत को लोग समझते नहीं और रामचरित्र से प्रेरणा प्राप्त करना आवश्यक है, तदनुसार उन्होंने हिंदी में रामचरित मानस का सृजन किया । समयानुरूप रामचरित्र की जिन विशेषताओं को उभारने की जरूरत थी, उन्हें उभारने में वाल्मीकि रामायण से भिन्न प्रयोग भी किए ।

ऐसा करने से वाल्मीकि का अपमान नहीं हुआ, बल्कि प्रबुद्ध वर्ग ने 'वाल्मीकि तुलसी भयो' कहकर सराहना की ।

दक्षिण के तमिल कवि कम्बन ने भी ऐसा ही प्रयोग तमिल भाषा में किया । 

तमिल में रामायण की रचना - तमिल कवि कम्बन दक्षिण भारत के चोल राज्य में जन्मे। आरंभिक जीवन उन्हें अनाथों की तरह बिताना पड़ा और अपनी विवेक बुद्धि से ही पढ़ते- लिखते रहकर अच्छे साहित्यकार और कवि हो गए । 

उनकी प्रतिज्ञा की चर्चा सुनकर चोल नरेश ने उन्हें मिलने बुलाया । उनकी विद्वत्ता वैसी ही पायी, जैसी सुनी थी । राजा ने उन्हें एक काम सौंपा कि वाल्मीकि रामायण का तमिल अनुवाद करें । यह कार्य उनने प्रसन्नतापूर्वक आरंभ कर दिया और उस रचना का नाम ''कम्बन रामायण'' पड़ा । 

इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि उसमें पात्रों के चरित्र और कथन थोड़े हेर-फेर के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किए गए है कि वह हर दृष्टि से प्रगतिशील बन पड़ा ह।  स्त्रियों और शूद्रों के प्रति जो हेय भावना उन दिनों अपनाई जा रही थी, उसकी इस ग्रंथ में धज्जियाँ उड़ा दी हैं और सिद्ध किया है कि वाल्मीकि की तथा उस समय की 
मान्यताएँ इससे सर्वथा भिन्न थीं, जैसी कि प्रतिगामिता इन दिनों चल रही है । कम्बन रामायण का दक्षिण भारत में बहुत सम्मान है । 

तत्वज्ञानी सुकरात-  ऐथेन्स में जन्मे सुकरात एक महान दार्शनिक हुए हैं। वे तत्वज्ञान की पाठशाला चलाते थे। पठन- पाठन मौखिक प्रश्नोत्तर के रूप में होता था। वे जीवन निर्माण पर सारा जोर देते थे । उनकी तथ्यपूर्ण विचारधारा से अनेकों प्रभावित होने लगे । एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में, इस क्रम से उनकी विचारधारा फैलती चली गई । पुरातन मान्यताओं में उनने सामयिक परिवर्तन की आवश्यकता प्रतिपादित की, फलतः उनका विरोध भी बढ़ता गया। 

उन पर धर्म विरोधी होने का अभियोग लगाया गया और मृत्युदंड मिला। उन दिनों यह प्रचलन भी था कि मृत्युदण्ड देश निकाले के रूप में बदला जा सकता है किंतु उनने वैसा आवेदन नहीं किया ।। उनका विश्वास था कि त्याग और बलिदान से सच्चाई की अग्नि और भी अधिक प्रज्ज्वलित होती है ।। मनुष्य के मरने से क्रांति मरती नहीं । सुकरात को जिस विष का प्याला पीना पड़ा, उस दिन वे तनिक भी उद्विग्न न थे । अंतिम सांस चलते तक उपस्थित लोगों को धर्मोपदेश देते रहे। 

सेंटपीटर ईसा के उत्तराधिकारी- सेंटपीटर पहले मछुआरे थे । मछली पकड़ना और पेट भरना- यही उनका धंधा था। एक दिन उनकी नाव में ईसा मसीह उस पार जाने के लिए बैठे । रास्ते में वार्तालाप होता रहा (इस वार्ता का इतना गंभीर प्रभाव हुआ कि मछलीमार उसी दिन संत बन गया और ईसा मसीह के साथ रहने लगा । उनकी सेवा शैली और प्रवचन पद्धति उसने पूरी तरह हृदयंगम कर ली । 

ईसा को फाँसी हो गई, पर सेंटपीटर न निराश हुए, न भयभीत । उनने अपने गुरु के पीछे छोड़े काम को आगे बढ़ाने का निश्चय किया और विरोधियों की परवाह किए बिना निर्भीकतापूर्वक प्रचार कार्य करने लगे । पुरानी रूढ़ि मान्यताओं को बदलने के लिए लोग मुश्किल से ही तैयार होते थे, फिर भी उनने अपना कार्य पूरे उत्साह के साथ जारी रखा । 

सेंटपीटर पर विरोधियों ने आक्रमण किए, जेल में डाला, उपहास किया और सताने के लिए जो कुछ कर सकते थे, किया । पर पीटर के प्रयासों में रत्ती भर भी अंतर न आया । उनकी प्रखर निष्ठा ने उन्हें ईसाई धर्म में ऊँचा स्थान दिलाया । वे अभी भी असाधारण श्रद्धा के साथ ईसाई समाज में स्मरण किए जाते हैं । समयानुकूल परिवर्तन सदा सराहनीय रहे है । 

रेडक्रास की संस्थापिका - 

उन दिनों सारे संसार में सामंतवाद का बोलवाला था। कुछ पड़ोसियों का क्षेत्र हड़पने के लिए, कुछ उस संभावना से भयभीत होकर अपना प्राण बचाने के लिए युद्ध छेड़ते । युद्धो की धूम मची रहती । मुर्दों की लाशें स्यार-कुत्ते खा जाते और सिसकते घायलों को भूसे की तरह गाड़ियों में भरकर कहीं अन्यत्र भेज दिया जाता, जहाँ वे सुविधाओं के अभाव में तड़प- तड़प कर प्राण छोड़ते । 

यह स्थिति जेनेवा में जन्मे हेनरी दूना ने देखी, तो उनका कलेजा फटने लगा । अकेले वे क्या कर सकते हैं । सोचते हुए उन्हें एक उपाय सूझा कि भले ही धन और सत्ता के लोभ में उन्मत्त बने सामंतों को न समझा सकें, पर इतना तो हो ही सकता है कि दोनों पक्षों के घायलों के प्राण बचाने के लिए वे अच्छी चिकित्सा एवं सुविधा की व्यवस्था कर सकें । उनने ''रेडक्रॉस'' नामक एक संगठन बनाया । अस्पताल खोला और घायलों को ढोने के लिए सुविधाजनक गाड़ियाँ खरीदी । प्राय: लड़ने वाले दोनों ही पक्ष अपनी बला टलाने के लिए दूना के इस प्रस्ताव को मान लेते और युद्ध क्षेत्र में घायलों तक पहुँचने में कोई अड़चन न डालते । रेडक्रॉस का कार्य विस्तार अत्यधिक बढ़ा । साधनों की भी कमी न रही । आज रेडक्रॉस संगठन की शाखाएँ हर देश में है ।। दूना को उनके महान् प्रयासों के लिए नोबुल पुरस्कार मिला । वे इसी कार्य में खप गए । 

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