प्रज्ञा पुराण भाग-4

। अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-5

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आदर्शहीनं सिद्धान्तहीनं यद्यच्च जीवनम् । 
प्रवृत्तयः सापराधाः सविलासाः क्षणादिव ।। ७२ ।। 
झञ्झावात इव प्रायो दृश्यन्ते वृद्धिमागताः । 
अनास्था विद्यते नूनं लोके भीमतरोऽसुरः।। ७३ ।। 
रूपं किमपि नैवास्य स्थानं नैवाऽपि निश्चितम् । 
प्रत्येकंहि जनस्यायं प्रविष्टश्चिन्तनेऽभितः ।। ७४ ।।

भावार्थ- आदर्शहीन,  सिद्धांतहीन जीवन,  विलासी और अपराधी प्रवृत्तियों को प्राय: आधी- तूफान की   तरह बढ़ते देखा जा सकता है अनास्था भीषणतम असुर है ।। इसका कोई रूप नहीं कोई निश्चित स्थान नहीं । वह जन जन के चिंतन में घुसा बैठा है ।

व्याख्या- अपराध पहले भी होते थे । उनके कारण होते थे, आवश्यकताएँ अथवा प्रतिष्ठा के प्रश्न । पर इन दिनों अपराधों की बाढ़ आ गई है । अपराधों में अधिकांश विलासिता के लिए अथवा किन्हीं निकृष्ट उद्देश्यों के लिए मनमानी करने के लिए होते पाए गए हैं । मोटेसर्वेक्षण इस प्रकार है- 

आतंक फैलाने के लिए बिलकुल बेगुनाहों को मार डालने के प्रकरण भारत में ही नहीं विश्व स्तर पर चिंता के विषय बन गए हैं । हृदयहीनता की यह सीमा कल्पना के बाहर है । विगत कुछ वर्षों में बलात्कारों के आंकड़े दहलाने वाले हैं  । सामूहिक बलात्कार तो अपराधों के इतिहास में नई सनसनी है ।।   निर्लज्जता इस सीमा तक भी जा सकती है किसी ने सोचा भी न होगा । चिकित्सा विभाग तथा सुरक्षा विभाग के व्यक्तियों का अपराधियों में शामिल होना ऐसी घटना है, जिसके आधार पर असुरक्षा का भय चरम सीमा को छूने लगा है । 

खाद्य वस्तुओं में मिलावट पहले निरर्थक, हानिहीनपदार्थों की ही होती थी, । अब आकर्षक रूप देने के लिए हानिकारक और जहरीले पदार्थ मिलाने में भी झिझक नहीं रह गई है । औषधियों में भी जानलेवा पदार्थों की मिलावट के प्रकरण देखकर लगता है, मनुष्य पर कौन सा पिशाच हावी है? यह सब अपराध अनास्थाजनित ही है । यही इस युगका असुर है, जो ढेरों असुरों के समान विप्लवकारी सिद्ध हो रहा  है ।

यह भीषण अदृश्य असुर - पहले आसुरी उत्पात हुए हैं, पर असुरों का प्रकट स्वरूप था । अनास्था असुर सूक्ष्म रूप में सक्रिय है, पुराण काल के सभी भयानक असुरों के कारनामे इसके साथ जुड़े हैं । विवेक चक्षु से  देखने पर इसके स्वरूप कुछ इस प्रकार दिखते हैं- 

हिरण्याक्ष- :पृथ्वी की सारी संपदा रसातल में ले गया था । आज सूक्ष्म रूप में अर्थ अनुशासन के प्रति अनास्था बनकर सक्रिय हैं । काले धन के रूप में कितनी संपदा रसातल ( अंडर ग्राउंड) को प्राप्त हो चुकी  है, कोई नहीं कह सकता । यही नहीं अधिकारों के सम्मान के भी अनैतिक अपहरण इसी का रूप है । 

रावण- आतंकवाद फैलाकर अपनी और समर्थकों की मनमानी चलाना चाहता था । सीता को कायरता भरे ढंग से चुराकर बदला लेने में भी उसे शर्म नहीं थी । लगता है आतंकवादी- उग्रवादियों के अंदर रावण साकार हो उठा है । 

हिरण्यकश्यप- अपने अहंकार के लिए अपने बेटे तक को कुर्बान करने को तुल गया था । आज दहेज लोभी अभिभावक अपने बच्चों के दांपत्य को जिस बेरहमी से पहाड़ से गिराने, जलाने के कृत्य कर रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है हिरण्यकश्यप ने सब पर सम्मोहन डाल रखा है । 

कंस- पैसे के बल पर बच्चों तक के हिस्से का दूध- दही अपने अधिकार में कर लेता था । अपनी रानियाँ दूध में नहाएँ, भले ही बच्चे दूध पीने को तरस जाएँ । पैसे के बल पर सुविधाओं का संग्रह, प्रतिभाओं का दोहन जिस धड़ल्ले से चल रहा है, उसे कंस का कुचक्र ही कहा जा सकता है । सीता का अपहरण होता देखकर आस्थावान बूढ़ा जटायु  भी अजेय रावण के विरुद्ध अड़कर खड़ा हो गया था । पर आज समाज के प्रतिभाशाली समर्थ व्यक्ति भी सीताओं को मूकदर्शक बनकर लुटता देखते हैं । अनास्था राक्षस ने नैतिक साहस का मानो खून ही पी लिया है । 

वृत्रासुर की कथा - कहते हैं वज्र से डरकर वृत्रासुर सूक्ष्म बनकर वृत्ति रूप में मानव देह में समा गया था  । इंद्र उसे खोज नहीं पाए । तब प्रजापति ने उन्हें सूक्ष्म रूप रखकर उसका पीछा करने को कहा था । आज अनास्था  का असुर भी भ्रष्ट चिंतन बनकर जन जन में घुस गया  है । 

अनंत-सृष्टि - एक बार महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को बतलाया कि प्रत्येक परमाणु के भीतर अनंत और अपार सृष्टियाँ है । साक्षी रूप उन्होंने एक घटना भी सुनाई । 
एक समय देव- दानवों की लड़ाई छिड़ गई  । इसमें देवताओं की हार हुई । देवताओं के स्वामी इंद्र अपनी जान बचाने के लिए भाग निकले । परंतु उसने अपनी रक्षा के लिए संसार में कोई स्थान न पाया । अंततः उनने योग बल द्वारा अपने शरीर को अत्यंत सूक्ष्म बनाकर सूर्य की एक किरण में प्रवेश किया । उस  अत्यंत सूक्ष्म किरण के भीतर भी उन्हें एक ऐसा ही संसार दीख पड़ा, जैसा कि बाह्य ब्रह्मांड में था  । उस जगत में काफी दिनों तक निवास किया । 

लगता है इस युग में अनास्था का असुर कुछ ऐसा ही प्रयोग करके सूक्ष्म जगत में निवास कर रहा है । सत्पात्रों के लिए शांति-  बैकुंठ में बड़ी भीड़ थी । महाविष्णु आसन पर विराजमान सभी प्राणियों को त्रैलोक्य की संपदा वितरित कर रहे थे । उन्होंने संकल्प किया था कि आज किसी को रिक्त हस्त नहीं जाने देंगे । 
धन,रत्न, पुत्र- पौत्र, स्वास्थ्य- सौख्य, वैभव- विलासमांगने वालों का तांता नहीं टूट रहा था । 

महाविष्णु उदारतापूर्वक सबकी इच्छा पूरी कर रहे थे ।। बैकुंठ का कोश रिक्त होते देख महालक्ष्मी दौड़ आई और पति का हाथ पकड़कर बोलीं- ''यदि इसी प्रकार आप मुक्त भाव से संपदा लुटाते रहे, तो बैकुंठ में कुछ भी शेष न रहेगा । तब हम क्या करेंगे?'' महाविष्णु मंद मंद हँसे, बोले- ''देवि !मैंने सारी संपदा तो नहीं दे दी । एक निधि ऐसी है  जिसे नर, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर एवं असुर में से किसी ने भी नहीं मांगा है ।'' ''कौन सी निधि?'' महालक्ष्मी पूछ बैठीं । 

''शांति- उसे कोई नहीं मांगता ।ये प्राणी भूल गए है कि शांति के बिना कोई भी संपदा पास नहीं रह सकेगी । उन्होंने जो मांगा वह मैंने उन्हें दे दिया । अपने लिए मैंने मात्र शांति की निधि सुरक्षित रख ली है। आस्थाहीन व्यक्ति न शांति मांगते हैं, न उन्हें दी जा  सकती है ।'' कहते है कि शैतान ने इन्सान को वरगलाया किविधाता ने बेकार ही तुम्हारे दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान बना दिए हैं । एक से भी काम चल सकता था । 

मनुष्य को यह बात तर्कसंगत लगी । उसने एक अंग से  काम लेना शुरू किया और दूसरे को खाली पड़ा रहने दिया । खाली वस्तु पर शैतान का कब्जा शुरू हो गया, तब से आदमी आधा भला सोचता और करता है तथा आधा बुरा । 

विद्यमानेऽसुरे चास्मिन् नहि सन्तुलनस्य तु । 
प्रयासाः सफलाः क्वापि सम्भवन्ति कदाचन ।। ७५ ।। 
प्रयासास्ते च जायन्ते सिकताभित्तिदुर्बला: । 
स्थूलैर्यत्नैर्न नष्ट: स्याज्जनचैतन्यगोऽसुर ।। ७६ ।। 
प्रखरादर्शननिष्ठश्च  प्रवाहो जनचिन्तने । 
तदर्थं कार्य आधारो देयो नव्य: क्षमश्च यः ।। ७७ ।। 
एतदर्शं च विज्ञानं भौतिकं नोपचारताम् । 
याति केवलमध्यात्मप्रयोअगस्तु परिश्कृतः  ।। ७८ ।।
महतां चेदृशानां तु विद्यते देवसंस्कृतौ ।
उपचारप्रयोगानां क्षमता अतुला इह।। ७१ ।। ।।

भावार्थ- इसके रहते सतुंलन लाने के प्रयास सफल नहीं हो सकते  । वे बालू की दीवाल की तरह नाकाम होते रहते हैं । जन चेतना में घुस बैठे इस महा असुर को स्थूल प्रयासों से नष्ट नहीं किया जा सकता । उसके लिए जन चिंतन में प्रखर आदर्शनिष्ठ प्रवाह पैदा करना होगा । आस्था के नए सशक्त आधार देने होगे । इस उद्देश्य के लिए भौतिक विज्ञान नहीं अध्यात्म विज्ञान का परिमार्जित प्रयोग ही एक मात्र उपचार है । देवसंस्कृति में ऐसे महान् उपचार प्रयोग करने की अद्वितीय क्षमता रही है । 
व्याख्या- आजकल समस्याओं के समाधान के लिए पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास  भी भारी मात्रा में हो रहे हैं । परंतु वे सब प्रयास फलित नहीं हो रहे  हैं । एक तरफ बात सँभलती है, तो चार जगह बिगड़ने लगती है । जाति, भाषा, प्रांत और राष्ट्रीय सद्भावना बढ़ाने 
के प्रयास न जाने किस गर्त में विलीन हो जाते हैं ? अणु- आयुधों की दौड़ के समझौते केवल मखौल बनकर रह जाते हैं । नशा, दहेज, भिक्षा व्यवसाय आदि रोकने के प्रयास शेखचिल्ली के सपने देखकर रह जाते हैं ।  कारण एक ही है, समस्या के मूल स्रोत तक प्रहार नहीं होने पा रहा है । 

रावण की नाभि -  भगवान राम ने अनेक बार रावण के हाथ और सिर काटे, किंतु वे फिर उग आते थे । सारा कौशल निरर्थक जा रहा था । विभीषण से पता लगा कि रावण  की नाभि में अमृत स्रोत है, वह नष्ट हुए बिना यह  क्रम रुकेगा नहीं । श्रीराम ने उसे अग्नि बाण से नष्ट किया, उसके बाद के प्रहार कारगर साबित हुए । 
रक्तबीज - दुर्गा के आगे राक्षस टिक न सके, पर रक्तबीज के रक्त कणों से दूसरे राक्षस पैदा होते जाते थे । पता लगा कि रक्त कण भूमि पर न गिरने दिए जाएँ । दुर्गा ने काली रूप रखकर रक्त नीचे न गिरने देने का तंत्र रचा, तब उसका नाश हुआ । 

त्रिपुरों का दाह - राक्षसों से देवता लंबे समय तक लड़े, पर पार न पा सके । पता लगा कि किसी गुप्त स्थल पर राक्षसों के तीन पुर बसे हुए हैं, वहाँ से राक्षस योद्धाओं की पूर्ति होती रहती है । शिवजी ने पिनाक धनुष पर दिव्य अस्त्र चढ़ाकर प्रहार किया, तीनों पुर जला दिए । त्रिपुरारी कहलाए । उसके बाद असुरों को समाप्त करने में कठिनाई नहीं हुई । 

अनास्था को नष्ट करने के लिए भी इसी तरह विचारपूर्वक सही मर्म पर प्रहार की व्यवस्था बनानी होगी ।

सुई की खोज कहाँ ? - बुढ़िया घर में अँधेरे में सुई से काम कर रही थी । अचानक सुई गिर गई । बुढ़िया उसे ढूँढ़ने लगी ।एक जानकार ने कहा- ''माई ! सुई अँधेरे में कैसे मिलेगी? प्रकाश में खोजोगी तो मिल जाएगी ।''  बुढ़िया वहाँ से उठकर बाहर म्युनिस्पैलिटी की बत्ती की रोशनी में खोजनी लगी । एक दो सद्भावना संपन्न राहगीर मदद करने लगे । काफी कोशिश करते, फिर भी सुई न मिली, तो एक समझदार ने कहा- "माँ ! जरा ढंग से बतलाओ, तुम कहाँ बैठी थीं । सुई किधर को उचटी थी?'' 

बुढ़िया उन्हें घर के अंदर ले जाकर बतलाने लगी, उन्होंने पूछा- ''गिरी यहाँ, खोज वहाँ- यह कैसी बात?'' तब उसने प्रकाश में खोजने की सलाह दुहराई । लोग हँसे, कहा- ''जहाँ वस्तु गिरी है वही प्रकाश चाहिए ।'' 

अनास्था भीतर जमीं बैठी है, उसे हटाने के लिए नेक विचारों का प्रकाश अंदर ही पहुँचाना या पैदा करना होगा । यह अध्यात्म विज्ञान से ही समाप्त होगा । 

भिक्षुओं की समाधि लगी - एक बार भगवान बुद्ध के दर्शन के लिए अनेक भिक्षु अपने गुरु के साथ आए । वे आते समय  बड़ा शोरगुल कर रहे थे । भगवान बुद्ध ने उनके गुरु को खबर भेजी कि वे उन्हें शील का अभ्यास ठीक से कराएँ, फिर उन्हें लाएँ । इनके गुरु ने वर्ष भर इनसे शील का अभ्यास कराया । जब ये भगवान बुद्ध के पास आए, तब भगवान चुपचाप शांत भाव से बैठ गए । भिक्षु लोग उनके सामने नियमानुसार बैठते गए । वे रात्रि भर बैठे रहे । आनंद भगवान बुद्ध को बार बार उन भिक्षुओं के बैठे रहने की खबर देता, परंतु भगवान कुछ न बोलते । सबेरा होने पर देखा गया कि वे सब भगवान बुद्ध के समान ही समाधिस्थ हैं । बाद में तथागत ने समझाया, जो कार्य सूक्ष्म पुरुषार्थ से ही संभव है, उसके लिए स्थूल भागदौड़ काम नहीं देती ।यही प्रयास शीघ्र फल दिखाता है । चिंता से छुटकारा इस तरह -एक करोड़पति दिन- रात चिंता में डूबे रहते, सो उनकी नींद गायब हो गई । कारण यह था कि इनकम टैक्स का छापा पड़ा था और दुहरे बहीखाते पकड़े गए थे । इस केस में १० लाख तक जुर्माना हो सकता था । यही भय उन्हें खाए जा रहा था । एक विचारशील उनके मित्र थे । वे आए और  घुल- मिल कर बातें हुई । उसने पूछा- ''आपकी कुल संपत्ति कितनी है?'' बताया गया-  ''लगभग एक करोड़ ।'' पूछा  गया-  ''इसमें से यदि दस लाख चले भी जाते हैं, तो कितना बचता है?'' उत्तर था-  ''१० लाख । विचारशील ने कहा-  ''१० लाख के घाटे से आप भयभीत हैं और १० लाख फिर भी शेष रह जाने की प्रसन्नता आपको क्यों नहीं होती? उतने पर संतोष क्यों नहीं करते?'' 

सेठजी ने नए सिरे से विचार आरंभ किया और उन्हें दूसरे दिन से ही गहरी नींद आने लगी । हजारों स्थूल उपचारों से जो संभव नहीं हुआ, वह एक विचार संचार के द्वारा सध गया । छोटा प्रभावशाली प्रयोग - विद्वान थैक आमतौर से सभाओं में भाषण देते नहीं थे । फिर भी बहुत आग्रह के उपरांत वे एक समारोह में भाषण के लिए सहमत हो गए । ऐसे ख्याति प्राप्त विद्वान के सहज सत्संग का अवसर सुनकर लाखों की भीड़ जमा हो गई । 

थैकर मंच पर पहुँचे । उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा- '' भाइयो ! (१) अपने से अच्छे लोगों की संगति करो ।। (२) अच्छी पुस्तकें पढ़ो । (३) अच्छाई का आदर करो । इन तीन सूत्रों पर ही जीवन का सारा सौभाग्य निर्भर है । इन्हीं सूत्रों को महापुरुषों ने अपनाया ।। हम लोगों के समान विकास और उज्ज्वल भविष्य का भी वही रास्ता है ।'' 

दो मिनट में अपनी बात कह लेने के उपरांत उनने भाषण का उपसंहार किया और फिर से कहा- ''अच्छी शिक्षाएँ थोड़ी ही हैं । उन्हें बार बार लंबे समय तक सुनने की अपेक्षा जीवन में धारण करने का महत्व कहीं अधिक है । अच्छा, अलविदा ।'' 

सीधे- सादे विचार लोगों के गले उतर गए । ढेरों आकर्षक भाषण से जो लाभ न हो सका था वह इस सधे हुए प्रयास से संभव हो गया । 

शांति, सुख और प्रसन्नता - मिट्टी के टीले पर बैठे हुए संत अनाम अस्ताचलगामी भगवान सूर्य को बड़े ध्यान से देख रहे थे, किस प्रकार एक दिन महाशक्तियों का वैभव नष्ट हो जाता । 

संत अनाम इन्हीं विचारों में डूबे थे कि एक आदमी उनके समीप आया और प्रणाम कर चुपचाप खड़ा हो गया । मुस्कराते हुए संत अनाम ने पूछा- ''वत्स ! मुझसे कुछ काम है?'' 

आगंतुक ने विनय की- ''भगवन् ! मैं पुरुदेश का धनी सेठ हूँ । तीर्थयात्रा के लिए चलने लगा, तो मेरे एक मित्र ने मुझे कहा- आप इतने स्थानों की यात्रा करेंगे, कहीं से मेरे लिए शांति, सुख, प्रसन्नता मोल ले आना । मैंने अनेक स्थानों पर ढूँढ़ा पर यही तीन वस्तुएँ कहीं नहीं मिलीं ।। आपको अत्यंत शांत, सुखी और प्रसन्न देखकर ही आप के पास आया हूँ संभव है आपके पास ही वह वस्तुएँ उपलब्ध हो जाएँ ।'' 

संत अनाम फिर मुस्कराए और अपनी कुटिया के भीतर चले गए । एक निमिष के उपरांत ही लौट कर आए और एक कागज की पुड़िया देते हुए बोले- ''यह अपने मित्र को दे देना और हाँ, तब तक इसे कहीं खोलना मत ।'' 

आगंतुक पुड़िया लेकर चला गया । मित्र ने एकांत में ले जाकर उसे खोला और उसमें रखी औषधि का सेवन करके कुछ दिन में ही सुखी, शांत और प्रसन्न हो गया ।एक दिन वह धनी सज्ज्न मित्र के पास जाकर बोले- ''मित्र ! मुझे भी अपनी औषधि का कुछ अंश दे दो, तो मेरा भी कल्याण हो जाए ।'' 

मित्र ने पूड़िया खोलकर दिखाई, उसमें लिखा था- ''अंत करण में विवेक और संतोष से ही स्थायी सुख- शांति और प्रसन्नता मिलती है ।'' चिंतन के स्तर पर किए गए पुरुषार्थ ही स्थाई सुख- शांति मिल सकती है, स्थूल पदार्थों के द्वारा नहीं । 

ऋषियों का त्याग- श्रेय - एक कल्प में बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा  । जनता का पुण्य और मनोबल क्षीण हो गया था । स्थूल पुरुषार्थ कुछ फल नहीं दे पा रहे थे । कोई उपाय न देखकर सप्त ऋषियों ने अपना तप जनकल्याण के लिए दान कर दिया और स्वयं कृषि का काम करने लगे । दुर्भिक्ष का दैत्य इस त्याग को देखकर सहम गया और वापस चला गया । सुभिक्ष आया और पूर्ववत् वर्षा हुई । 

मुनयो नूनमद्यैतत्स्वरुपं देवसंस्कृतेः । 
अस्तव्यस्तमिव प्रायो जातं तत्तुपुरातनम् ।।  ८० ।। 
तत्राधुना जनैः सर्वैर्दृश्यते नैकरूपता । 
यथाऽन्धा, हस्तिनः किच्ञिदङ्ग प्राप्य तथैव तम् ।। ८१ ।।  
निश्चिन्वन्ति तथा धर्मो जीर्णतयाश्च विकृतेः । 
विभाजितत्वहेतोश्चाऽनास्थया स उपेक्षित: ।।  ८२ ।। 
विवेकिनो नरास्तेनाऽसन्तोषाऽक्रोशपूरिताः । 
दृश्यन्तऽत्र तथाप्यत्र किञ्चिच्चिन्त्यं न मन्यताम् ।। ८३ ।। 
दुर्गतिं वर्तमानां तु वारयिष्यति चान्ततः। 
महाकाल: समग्रं च परिशोधितुमेव सः ।। ८४ ।। 
प्रज्ञाभियानमत्युग्रं चालयिष्यति ताः स्थिती: । 
विधास्यति स्वतो नूनं विपरीता बुधा ऋजूः ।। ८५ ।।

भावार्थ- महर्षि कात्यायन पुनः बोले- हे मननशील मुनिजनों ! इन दिनों देवसंस्कृति का पुरातन स्वरूप अस्त- व्यस्त हो गया है।   उसकी एकरूपता नहीं रही । अंधे जिस प्रकार हाथी का जो अंग हाथ की पकड़ में आता है उसी आकार का उसे मान बैठते हैं । इन दिनों विभाजित विकृत एवं जराजीर्ण स्थिति बन जाने के कारण ही धर्म के प्रति उपेक्षा- अनास्था बढ़ रही है और विचारशीलों में असंतोष- आक्रोश उभर रहा है । इतने पर भी चिंता जैसी कोई बात नहीं है  । महाकाल वर्तमान दुर्गति का निवारण करेंगे । उस समग्र परिशोधन के लिए प्रज्ञा अभियान का तूफानी दौर आरंभ करेंगे । ऐसे प्रचंड परिवर्तन उलटी परिस्थितियों को उलट कर सीधी करते रहे हैं ।। 

व्याख्या- देवसंस्कृति हाथी जैसी ही विशाल है । दृष्टिहीन व्यक्ति टटोल कर उसका सही स्वरूप नहीं समझ पाते हैं । कोई उसे केवल भक्ति  से, कोई केवल कर्म से, कोई केवल ज्ञान से सिद्ध करना चाहता है । कोई केवल उपासना से, कोई केवल शास्त्र चर्चा से, कोई केवल प्रार्थना से उसकी शक्ति जागृत करने की सोचते हैं । यह सब भ्रम हटाने होंगे । प्रज्ञा दृष्टि का जागरण करके संस्कृति का समग्र रूप समझना- समझाना होगा । तभी बात बनेगी । 

दूध चाहिए किसी का भी हो -  सौराष्ट्र की एक घटना है । एक बार एक महात्मा जी एक भक्त के घर आए । भक्त की ''खुशियों का कोई पार नहीं । उसके यहाँ अनेक गाएँ थी, जो शहर के बाहर बाड़े में रहती  थी । उसने अपने नौकर से कहा-  ''जाओ, महात्माजी के लिए जल्दी से थोड़ा सा दूध ले आओ । ''नौकर का नाम था- अमेधा, अक्ल से कोरा था । 

नौकर दूध लेने चला । मकान से थोड़ी दूर ही गया हो गया कि वापस लौट आया । सेठजी से पूछने लगा- ''अपने यहाँ काली, पीली, सफेद अनेक रंग की गायें हैं, महात्मा जी के लिए किस रंग की गाय का दूध लाऊँ?'' सेठजी ने कहा-  ''भई ! किसी भी रंग या बिना रंग की (सफेद) किसी भी गाय का दूध ले आओ, पर जरा जल्दी आना ।'' ''अच्छा जी'' कहकर अमेधा पुनः दूध लाने चल पड़ा । आधे रास्ते से फिर लौट आया और पूछने लगा- ''अपने यहाँ कुछ गाएँ नई, एक बार प्रसूत है और कई पुरानी गायें अर्थात अनेक बार प्रसूता हैं । मैं नई गायों का दूध लाऊँ या पुरानी का?'' सेठजी ने झुँझलाकर गुस्से में कहा-  ''मैंने कहा था न कि चाहे किसी भी गाय का दूध ला, पर जल्दी लेकर  आना  । तू फिर खाली हाथ लौट आया । जा, जल्दी लेकर आ ।'' अमेधा इस बार गायों के बाड़े के द्वार तक पहुँच गया । फिर उसे दिमाग में एक बात उठी और पुनः  खाली हाथ लौट आया और पूछा-  ''अपने यहाँ कुछ गायों की पूँछकटी हुई है, कुछ के सींग टूटे हुए है, एक की एक टांग टूटी हुई है, उनमें से महात्माजी के लिए किस गाय का दूध लाऊँ?'' मालिक स्वयं उठकर गया, तब दूध उपलब्ध हुआ । 
आज भी मुख्य आवश्यकता को भुलाकर धर्म संस्कृति के स्थूल क्रिया- कलापों की समीक्षा में ही सारा समय नष्ट किया जा रहा है ।  

एक बात पूछ - एक व्यक्ति को खाँसी हो गई  । डाक्टर के पास गया, डाक्टर ने दवा देकर कहा ''दिन में तीन बार दो दो गोलियाँ खाना, एक सप्ताह में ठीक हो जाओगे ।'' उस व्यक्ति ने पूछना शुरू किया-  ''गोलियाँ  किससे खाऊँ? पानी से, दूध से या चाय से?'' डाक्टर ने कहा-  ''किसी से भी सही, पानी से ही ले लेना ।'' उसने फिर पूछा-  ''पानी ठंडा या गरम या गुनगुना ।'' फिर पूछा-  ''कुएँ का, नल का या डिस्टिल्ड वाटर?'' फिर पूछा-  ''गोली एक एक करके खाएं या दोनों एक साथ?'' फिर पूछा-  ''खड़े होकर, बैठकर या लेटकर ।'' फिर पूछा-  ''किस दिशा को मुँह करके खाएं?''

बात हँसी की लगती है, पर हम भी संस्कृति को गले के नीचे उतारने के स्थान पर निरर्थक उपचारों पर चर्चा करते रहते है । 

विभीषिकाएँ हजारों और उसका समाधान कर सकने वाले सांस्कृतिक सूत्र बिखेरे हुए है, यह देखकर निराशा होती है । दुष्टों की बन जाती है, सजनों का साहस टूटने लगता है ।

ऐसे ही ऋषि सुनिश्चित घोषणा करते हैं कि चिंता की बात नहीं । दैवी चेतना प्रज्ञा अभियान द्वारा जन जन में प्रज्ञादृष्टि जागृत कर देगी । उसके साथ ही उलटा चक्र पलट कर सीधा हो जाएगा । ऐसा होता भी रहा है । नैष्ठिकों को इस पर जरा भी संदेह नहीं रहता । 

ध्वंस में भी सृजन - बाढ़ आई और खेत की मिट्टी बह गई । किसान बहुत दुःखी हुआ । किंतु बही हुई जमीन के स्थान पर एक बड़ा तालाब बन गया । तालाब में कमल और सिंघाड़े जैसी बहुत चीजें पैदा होने लगीं ।  किसान को विश्वास हो गया कि हर नुकसान के पीछे कोई लाभ भी छिपा रहता है । पुराना बिगड़ता है, तो नया ढलता भी है । 

जाने योग्य जायेगा ही -  महाभारत युद्ध समाप्त हुआ । गांधारी पुत्र- शोक से बिकल थी । श्रीकृष्ण सामने पहुँचे, तो शाप दे बैठी । बोली-  ''कृष्ण ! तुमने ही सारा ताना- बाना बुना है । तुम्हारे कारण मेरे कुल में कोई नहीं  बचा, इसी तरह तुम्हारे कुल में भी कोई न बचेगा ।'' 

कृष्ण ने सहज भाव से मस्तक झुका कर शाप स्वीकार किया । कहा-  ''माँ! जिस महान् भारत की रचना की जा रही है, उसके योग्य न कौरव थे, न यादव है ।। नव निर्माण की धारा के अनुकूल न बन सकने वालों को तो नष्ट होना ही पड़ता है । आपने यह शाप देकर मेरा कार्य आसान कर दिया । स्रष्टा अशिव को नष्ट करके शिवत्व की स्थापना के लिए हर संभव प्रयोग करता है ।  

नैष्ठिकों के विश्वास - गिरिजाघर के बाहर निकलने वाले व्यक्तियों को बरामदे में ही रुक जाना पड़ा । बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी । ऐसा लगता था, मानो प्रलय की घड़ी आ पहुँची हो । प्रख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन से उनके निकट ही खड़े एक मित्र ने पूछा-  ''मार्क ! तुम्हारा क्या ख्याल है? कभी यह बंद भी होगी?'' हास्य स्रष्टा के चेहरे पर महान् गंभीरता छा गई और दृढ़ विश्वास के स्वर में वे बोले-  ''क्यों नहीं, शुरू से ही तो ऐसा होता आया है ।'' सच है, समस्याएँ भीषण दिखे  चाहे जितनी, उनका हल निकला अवश्य है । 

दुनियाँ मानवों के लिए है -  पाकिस्तान में कैद रहने के समय बँगला बंधु शेख मुजीबुर्रहमान रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक गीत निरंतर गुनगुनाया करते थे । उस गीत का सार हैं- ''जीत हम सचाई  की राह पर चलने वालों की ही होगी । यह दुनियाँ मानवों के लिए बनाई गई है, दानवों के लिए नहीं । ''यही बात इस युग पर भी लागू है । भगवान को मंजूर नहीं कि मनुष्य नष्ट हो या दानव बन कर रहे । इसलिए विभीषिकाओं का समाधान अवश्य निकलेगा । 

महाकाल का आघात - सुग्रीव का राज्याभिषेक हो चुका था । वे श्रीराम के बल की प्रशंसा करते हुए कहने लगे-  ''आपने बालि जैसे बलवान को एक ही बाण से धराशायी कर दिया ।'' 

राम बोले-  ''देखने वालों को यही लगा । परंतु बालि के दोषों ने उसे छेद छेद कर इतना जर्जर बना दिया था कि आदर्श के एक प्रहार से ही वह  ढह गया ।'' काल प्रभाव से जीर्ण आसुरी समस्याएँ महाकाल के एक ही धक्के से धराशायी हो जाने वाली हैं । 

सत्रे स्थितैः समैरेव ज्ञाता जिज्ञासुभिः स्वतः ।। 
धर्मव्याजेन जातास्ते परिणामा अधर्मजाः ।। ८६ ।। 
सहैवात्र नियन्तुश्च व्यवस्था शोधनोन्मुखी । 
ज्ञाता सोपक्रमा  नैषा चिरं स्थास्यति दुर्गति: ।। ८७ ।। 
विश्वस्तं तैरिदं भूयः परिवर्तनमन्ततः ।
भविष्यति तथा भूयो वातावरणमुत्तमम् ।। ८८ ।।
आगन्ता निकटे काले यथा सत्ययुगे पुरा । 
विभीषिकास्तदा नैव द्रक्ष्यन्ते भुवि कुत्रचित् ।। ८१ ।। 

भावार्थ- सत्र में उपस्थित जिज्ञासुओं ने धर्म के नाम पर प्रचलित अधर्म आच्छादन के दुष्परिणामों को समझा । साथ ही नियंता की सुधार व्यवस्था का उपक्रम भी समझा । उन्हें विश्वास हो गया कि वर्तमान दुर्गति अधिक समय न रहेगी । परिवर्तन होगा और पुरातन काल जैसा सतयुगी वातावरण निकट भविष्य में फिर 
वापस लौटेगा । तब पृथ्वी में कहीं भी ये विभीषिकाएँ नहीं दीखेगी । 

भविष्यत्युज्जवलं नृणामनया  च शुभाशया ।
मुखपद्मानि सर्वेषां विकासमगमंस्ततः ।। १० ।। 
निराशा खिन्नता चैव गते दूरं क्षणात्ततः । 
आश्वासनेन पूज्यस्य सत्राध्यक्षस्य सर्वतः ।। ११ ।। 
सत्रं चाद्यतनं यातं समाप्तिं पूर्ववत्ततः । 
वातावृतौ शभायां च शान्तिपाठेन तत्र तत् ।। १२ ।। 
कृत्वा परस्परं सर्वे श्रोतारश्चाभिवन्दनम् । 
कुटीरान् स्वान् गता दिव्यसंदेशानन्दिता अथ ।। १३ ।। 

भावार्थ - उज्ज्वल भविष्य की आशा से सभी के चेहरे कमल पुष्प जैसे खिलने लगे । खिन्नता और निराशा को सत्राध्यक्ष के आश्वासन ने दूर कर दिया । आज का सत्र गत दिवस की भांति प्रसन्नता के वातावरण में समाप्त हुआ । शांति पाठ अभिवंदन के उपरांत सभी अपने अपने निवास कुटीरों में चले गए | दिव्य संदेश से सभी आनंद का अनुभव कर रहे थे || 

        इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽविद्ययोः,युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः,
श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते ''आस्था संकट'' 
इति प्रकरणो नाम षष्ठोऽध्यायः ।। ६ ।।
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