प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-3

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सप्तमी राम उक्तश्चावतारो लोक उच्यते ।
जनै श्रद्धज्ञयुतै सर्वैमर्यादापुरुषोत्तम ।।४२।।
कष्टानि सहमानोऽपि व्यतिचक्राम नो मनाक् ।
मर्यादानिरतोऽभूच्च धर्मस्य प्रतिपादने ।।४३।।
मूर्तिमान् धर्म एवायमुच्यते पुरुषो जनैः ।
एकपत्नीव्रती सर्वभूतात्मा वेदशासितः ।।४४।। 

भावार्थ- सातवां अवतार राम का है, जिन्हें श्रद्धातु जनों द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है! उन्होने
स्वयं कष्ट सहे किंतु मर्यादाओं का व्यतिक्रम नहीं किया । धर्म धारणा के प्रतिपादन में निरत रहे । उन्हें सजीव
धर्म पुरुष कहा जाता है? वह वेदनाकुल चरित्र वाले प्राणिमात्र के हितैषी एक पत्नीव्रती थे ।।४१-४४।।

रामअवतार भगवान राम ने असुरता को हटाकर देवत्व की अभिवृद्धि के लिए जन्म लिया । ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न फैलाने वाले ताडका, सुबाहु, मारीचि आदि असुरों का दमन किया और यज्ञ परंपरा को यथावत् चलने देने के लिए उसकी रक्षा में कुछ उठा न रखा । माता-पिता को प्रसन्न रखने की धर्म-मर्यादा को दीप्तिमान बनाए रखने के लिए उन्होंने वन गमन सहर्ष स्वीकार किया । भाई के साथ अन्याय करने वाले बालि को परास्त किया । ऋषियों को त्रास देने वाले खरदूषण का दमन किया । कपटी मारीचि की माया से ठगे जाते रहने वाले लोगों का दु:ख दूर किया और अंत में स्वल्प साधन रहते हुए भी रावण जैसे अधर्मी, सत्ताधीश से भिड़ गए । विजय सत्य की ही होती है, इसलिए जीते भगवान राम ही । ऋषियों का मार्ग कंटकाकीर्ण किए रहने वाले, प्रजा को सताने वाले, जनता के सामने अधार्मिकता की विजय के उदाहरण प्रस्तुत कर उसे कुमार्ग पर चलने का लालच उत्पन्न करने वाले असुरों का दमन आवश्यक था और वही भगवान राम ने किया भी । जीवन का महत्वपूर्ण भाग उन्होंने अधर्म नाश के संघर्ष में ही लगाया।

लोक आराधना ही एक मात्र लक्ष्य- भगवान राम ने लोकमंगल, लोक आराधना को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य माना था । एक बार वशिष्ठ जी किसी आवश्यक कार्य से लंबे समय तक अयोध्या से बाहर रहे । वहाँ से उन्होंने राम को सावधान किया कि मैं बाहर हूँ तुम अनुभवहीन हो । लोकमंगल के प्रयासों में कहीं कमी न आने पावे ।

असुरता के उन्मूलक- भगवान राम को रावण से सीता छुड़ानी थी मात्र इसीलिए लंका युद्ध नहीं हुआ । उसकी वापसी तो वे हनुमान की सहायता से अनायास ही करा सकते थे । जो पर्वत उठाकर आकाश में उड सकता है, वह एक हल्की फुल्की महिला को कंधे पर बिठाकर छलांग क्यों नहीं लगा सकता ।

राम का बड़ा उद्देश्य उस समय के सभी असुरों को निरस्त करना था । इसके लिए उन्होंने उस समय भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की थी जिस समय ऋषियों के हड्डियों के पर्वत खड़े देखे थे । अपने प्रण का विवरण घर घर जाकर
उन्होनें सुनाया और सज्जनों को आश्वस्त किया था । इसी प्रसंग को रामायण में इन चौपाइयों में व्यक्त किया गया है-
अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछिहि मुनिन्ह लागी अति दाया ।।
निक्षर हीन करौं महि, भुज उठाय प्रण कीन ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाय जाय सुख दीन ।।
कृष्ण एवाष्टम पूर्णोऽवतारो विद्यते स्वयम् ।
दूरीकर्तुमनीतीर्यश्रातुर्यस्य तथैव च ।।४५।।
सर्वप्रकारकस्योक्त कौशलस्यायमुत्तम : ।
नीतिनिर्धारको लक्ष्ये पवित्रे स्थितिरूपत ।।४६।।
परिवर्तनमप्येष स्वीचकारोच्यते जनैः ।
नीतिज्ञो यो व्यधान्नीति लक्ष्मगां न क्रियागताम् ।।४७।।

भावार्थ-आठवां अवतार कृष्ण का है जिन्हें अनीति को निरस्त करने के लिए चातुर्य और सर्वविध कौशल का नीति-निर्धारक कहा जाता है । लक्ष्य पवित्र होने पर वे परिस्थिति के अनुरूप व्यवहार बदलने पर विश्वास करते थे । उन्होंने नीति को क्रिया के साथ नहीं लक्ष्य के साथ जोड़ा । वे नीति पुरुष कहलाए ।।४५-४७।।

कृष्ण अवतार श्रीकृष्ण को पूर्ण पुरुष कहा जाता है । यह अवतार लेकर भगवान ने उस युग की फैली हुई अनीति एवं मूढ़ता को परास्त किया । अनीति बरतने वाले तृणासुर, अघासुर, वत्सासुर, पूतना, कालिया नाग आदि धूर्तों से उन्होंने बचपन में ही टक्कर ली । थोड़े बड़े होने पर अन्यायी शासक कंस से भिड़ गए और कुराज्य मिटाकर सुराज्य की स्थापना की । निरीह प्रजा को अपना सारा दू ध, घी धनिकों और सरदारों को देना पड़ता था । गोपियों को उनके आगे न झुकने और अपना आवश्यक भोजन स्वयं ही रखने के लिए उन्होंने सत्याग्रह भी किया । उनका रास्ता रोका और सत्ताधारियों से न डरने का साहस उत्पन्न किया ।

बड़े हुए तो अन्याय को समझाने-बुझाने से हटते न देखकर उन्होंने महाभारत की योजना की और स्वल्प साधन संपन्न पांडवों को सत्ता धारी सौ कौरवों के समक्ष न्याय की मांग को लेकर अड़ जाने के लिए खड़ा कर दिया ।

अठारह अक्षोहिणी सेना और अगणित सुभट मर गए, पर इससे क्या न्याय की रक्षा के लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े, कम है ।

उन दिनों भारत छोटे छोटे टुकड़ों में बँटा हुआ पड़ा था । छोटे छोटे सामंत अपनी अलग अलग सत्ता बनाए
रखने के लिए देश को छोटे छोटे टुकड़ों में बांटे हुए थे, एकता की शक्ति से परिचित होते हुए भी वे अपने संकुचित
स्वार्थों के लिए पृथकतावाद को ही प्रश्रय देते थे । इन पृथकतावादियों के विनाश की योजना बनाकर भगवान ने महाभारत युद्ध कराया और खंड भारत को एक परिपूर्ण राज्य बना दिया । इसके लिए युद्ध के रूप में भारी कीमत चुकानी पडी, पर कीमत चुकाए बिना कीमती चीज भी कहाँ मिलती है ?

कैदी माता-पिता की गोद में बंदीगृह में उत्पन्न होने वाला, दूसरों के घर पलने वाला, गोप परिवार में जन्मने
वाला बालक भी अपने आत्मबल और पुरुषार्थ से कितना कुछ कर सकता है ? भगवान कृष्ण ने अपना उदाहरण प्रस्तुत करके उन लोगों का मनोबल बढ़ाया, जो छोटी या साधनविहीन परिस्थितियों में जन्में या बड़े होने के कारण ऊँचा उठने की आशा छोड़ बैठे है । अर्जुन के कोचवान बनकर उनने बताया कि संसार में कोई काम छोटा नहीं है और लोक कल्याण के लिए धर्म रक्षा के लिए छोटे दीखने वाले कार्यो को भी प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए । दुष्टता, अवांछनीयता का दमन तथा सजनता की, औचित्य की स्थापना के कार्य में ही श्रीकृष्ण भगवान का सारा जीवन व्यतीत हुआ ।

ज्ञान और न्याय के पक्षधर कृष्ण- भगवान कृष्ण का मनुष्य जाति को महान अनुदान गीता का ज्ञान है । उनने दुर्बल नीति पक्ष को सहयोग दिया । अर्जुन का रथ हांका और संबंधी होते हुए भी कौरवों के विनाश में हिचक नहीं की ।

कृष्ण की राजधानी द्वारिका थी । उनने अपनी संपदा कुटुंबियों को न देकर सुदामा के गुरुकुल के लिए हस्तांतरित कर दी । यादवों को राष्ट्रीय एकता में बाधक बनते देख उन्हें भी अपने सामने ही समाप्त कर दिया । उन्होंने दुष्टों कीं दुष्टता का हर भाषा में करारा जवाब दिया । पर इस सिद्धांत पर अडिग रहे कि जिसका उचित हक है, उसे मिलना ही चाहिए ।

बुद्धावतारों नवमो बुद्धिं धर्ममथापि च ।
संघं प्रधानरूपेण स्वीचक्रे जनमङ्गलम् ।।४८।।
तप: पौरुषशक्त्या स संघमुच्चात्मनां नृणाम् ।
व्यधाद भूयश्च तान् सर्वान् प्रेषयामास भूतले ।।४१।।
जनान् प्रशिक्षितान् कर्तुमालोकं दातुमुत्तमम् ।
काले तस्मिंस्तदैवाभूद वसुधा मङ्गलोदिता ।।५०।।
काले व्यक्तिषु तत्रैवं बहुप्रचलनेष्वपि ।
परिवर्तनमाधातु साफल्य प्राप सोऽद्भुतम् ।। ५१ ।।
अत एवोव्यते बुद्धेदेंवता बुद्ध उत्तमै:।
रोगशोकजराजीर्णं जगद् वीक्ष्याद्रवच्च य : ।।५२।।

भावार्थ- नवें बुद्धावतार थे । उन्होंने जनहित में बुद्धि धर्म और संघ को प्रधानता दी । तप और पुरुषार्थ किया । उच्च आत्माओं का समुदाय समेटा उसे प्रशिक्षित करने और आलोक वितरण के लिए विश्र के कोने कोने में भेजा । इसी से उस समय पृथ्वी मंगलमयी बन पाई । समय को व्यक्तियों को और प्रचलनों को बदलने में भारी सफलता पाई । इसीलिए श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा उन्हें बुद्धि का देवता कहा जाता है रोक-शोक व वृद्धता से जर्जर विश्व को देखकर जिनका हृदय करुणा से द्रवित हो गया था ।।४८-५२।।

बुद्ध अवतार- भगवान अधर्म का नाश करने के लिए अवतरित होते है । इसके लिए जब युद्ध की, दुष्टों के शमन की आवश्यकता होती है, तब उन्हें वैसा करना पड़ता है । व्यक्तियों के व्यक्तिगत जीवन अत्यंत कलुषित हो जाएँ और उनके सुधरने की आशा जाती रहे तो 'दंड' के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रहता ।

दंड-भय से पशु बुद्धि के मूढ़ लोग आसानी से सुधर भी जाते हैं, पर केवल यह एक ही उपाय सुधार का नहीं है । इसलिए भगवान सदा दुष्ट दमन ही नहीं करते, उनका प्रयोजन तो दुष्टता का दमन रहता है । इसलिए आवश्यकतानुसार वे धर्म स्थापना के रचनात्मक कार्यो का कार्यक्रम बनाकर भी अवतीर्ण होते हैं । भगवान बुद्ध का अवतार इसी प्रयोजन के लिए हुआ था ।

भगवान बुद्ध बौद्धिक क्रांति के प्रतिष्ठापनकर्त्ता है । तात्कालीन भ्रांतियुक्त धारणाओं के उन्मूलन में उनने अपना समस्त आत्मबल लगाया । हिंसा के स्थान पर अहिंसा को, मूढ़ता के स्थान पर विवेक को, भोग के स्थान पर त्याग को उन्होंने प्रधानता दी । विवेक को सर्वोपरि बताया । जाति और लिंग के आधार पर प्रचलित असमानता का उन्होंने खंडन किया और सदाचरण एवं परोपकार को,  आत्मकल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक प्रधान उपाय बताया ।

भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सत्य से तथा उनके उज्ज्वल चरित्र से प्रभावित होकर अंगुलिमाल जैसे दुर्दांत दस्यु, आम्रपाली जैसी चरित्रहीन नारियों ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया और वे भिक्षु बनकर धर्म संस्थापन के पुनीत कार्य में लग गए । सहस्रों भावनाशील नर-नारियों ने संसार में धर्म संस्थापन के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने की प्रतिज्ञाएँ लीं और वे भिक्षु-भिक्षुणी बनकर संसार के कोने कोने में बौद्धिक क्रांति का संदेश लेकर बिखर गए । पीछे अशोक आदि राजाओं ने भी अपनी शक्ति बौद्ध धर्म के प्रचार में लगाई ।

उन्होंने अनेक विहार संघाराम स्थापित किए । नालंदा, तक्षशिला विश्वविद्यालय धर्म प्रचार में केंद्र बनाए । लाखों नर-नारी परिव्राजक रूप में दीक्षित-प्रशिक्षित किए । न केवल भारत में वरन समूचे एशिया में, विश्व में धर्म चक्र प्रवर्तन का आंदोलन चलाया । इस कार्य में उन्हें बिंबसार, हर्षवर्धन जैसे संपन्नों और आनंद, कुमारिल, मौदगल्यायन जैसे विद्वानों का भी भरपूर सहयोग मिला । बुद्ध के बुद्धिवादी आंदोलन ने वातावरण बदलने में अवांछनीय प्रचलनों को उलटने में भारी सफलता प्राप्त की । वे अवतार कहलाए और विश्व श्रद्धा के भाजन बने । मानवी गरिमा के उद्धारकर्त्ता कहलाए ।

बुद्ध का बुद्धिवाद- बुद्धावतार बुद्धिवाद के तर्क और औचित्य का समर्थन करने जन्मे । यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा से वे  बहुत दुखी थे। लोगों ने कहा ये वेदों का संदेश है । बुद्ध ने कहा- "अनीति का यदि वेद आदेश देने वाले हों तो वे अमान्य है ।'' पंडितों ने कहा-"वेद भगवान ने बनाए हैं ।''

बुद्ध ने ऐसे भगवान को मानने से इन्कार कर दिया जो अनौचित्य की परंपरा चलाता है । बुद्ध आजीवन 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का मंत्र देते रहे । संसार भर में बुद्धिवाद का विस्तार करते रहे । इसमें इन्हें उत्तम आचरण के कारण सफलता भी मिली । मात्र प्रचारक होते तो उनकी बात कौन सुनता ।

विवेक की विजय- बोधिसत्व अपने पुण्य प्रभाव से वंश परंपरानुसार प्राप्त एकछत्र पृथ्वी का पालन कर रहे थे । वह जितेंद्रय तथा प्रजाओं के हित के कार्य में दत्तचित्त थे । वे स्वयं सदाचरण में आसक्त थे तथा प्रजा भी उनका अनुसरण करती थी ।

एक बार उस देश में अनावृष्टि के कारण व्याकुलता फैल गई । राजा द्वारा कुल पुरोहितों, वृद्ध ब्राह्मणों और बुद्धिमान मंत्रियों से इसका निवारण का उपाय पूछने पर उन्होंने इसका उपाय वेद विहित यज्ञ विधि सुझाया । परंतु इसमें सैकड़ों निर्दोष प्राणियों की बलि चढ़ानी पड़ेगी, यह जानकर राजा ने इसकी उपेक्षा कर दी ।

वे विचार करते रहे और उनकी प्रजा जाग पड़ी । "भला पशु हिंसा से धर्म का, स्वर्ग प्राप्ति का या देवताओं की प्रसन्नता का क्या संबंध हो सकता है ।'' मंत्र शक्ति से मारा जाता हुआ पशु स्वर्ग जाता है, इसलिए उसकी हिंसा पुण्यकार्य है, यह भी असत्य है । भला दूसरों के कर्मफल को कौन परलोक में प्राप्त करेगा?'' जिसका चित्त असत की ओर विमुख नहीं हुआ है, जिसने शुभ कर्म करने के लिए निश्चय नहीं किया है वह पशु यज्ञ में मारा जाने पर भी अपने कर्म रूप आश्रय के बिना किस कारण से स्वर्ग जाएगा ?" "यज्ञ में मारा जाने पर यदि वह स्वर्ग जाता, तो ब्राह्मण स्वयं पशु बन जाते ।'' सुंदर अप्सराओं द्वारा दिए गए स्वाद सुगंधि व ओजपूर्ण सुधा छोड्कर देवगण क्या चर्बी के लिए पशु हिंसा से प्रमुदित होंगे ?

ये सब विवेकपूर्ण बातें सोचकर बोधिसत्व ने निर्णय लिया कि सहस्र नरमेध यज्ञ किया जाएगा और यज्ञ की तैयारी की आज्ञा दे दी । सारे गाँवों में, नगरों में डंके की चोट पर घोषणा की गई कि "जो व्यक्ति दुराचारी, दुर्विनीत होगा, शील, सदाचरण के रास्ते पर नहीं चलेगा, राजाज्ञा की अवहेलना करेगा, पशु के स्थान पर उनकी बलि दी जाएगी । यह आज्ञा सभी देश के सामंतों और नरेशों के लिए भी है ।'' दुराचारी पुरुषों की खोज में सावधान राजपुरुषों को चायें तरफ छोड़ा गया ।

देखते देखते सारी बुराइयाँ जाती रहीं । जनता के धर्म परायण होने से ऋतुओं की विषमता भी दूर हुई । पृथ्वी नाना प्रकार फसलों से परिपूर्ण हो गई । पृथ्वी से रोग-शोक जैसे सारे संताप दूर हुए । लोगों को पशु हिंसा का दोष अनुभव हुआ । धर्माचरण से प्रजाओं का कल्याण हुआ ।

प्रज्ञावतारो कल्किश्च निष्कलंकोऽपि वा पुन: ।
दशमोऽयं च लोकेऽस्मिन्नवतारस्तु विद्यते ।।५३।।
अस्यावतरणस्याद्य भूमिकाकाल आगत: ।
आगते युगसन्धेश्च प्रभाते शुभपर्वणि ।।५४।।
महाप्रज्ञेति रूपे च साद्यशक्तिरनुत्तमा ।
गायत्री केवलं लोके युगशक्तिर्भविष्यति ।।५५।।

भावार्थ- दसवां अवतार प्रज्ञावतार है जिसे निष्कलंक (कल्कि) भी कहा गया है । इसके अवतरण की
भूमिका का ठीक यही समय है! युग संधि के इस प्रभात पर्व पर महाप्रज्ञा के रूप में आद्य शक्ति गायत्री ही अब
युग शक्ति बनने जा रही है ।।५३ - ५५ ।।

व्याख्या- अब दसवां निष्कलंक अवतार इन दिनों हो रहा है अथवा यों कहना चाहिए कि हो चुका है । यह एक ऐसा भावना प्रवाह है जिसका उद्देश्य हजारों वर्षों की कलंक कालिमा को धोकर मानवता का मुख उज्ज्वल करना है । अवतार तो एक शक्ति, एक चेतना और एक प्रवाह है, जिसका प्रभाव सारे वातावरण को झकझोरता और झिंझोरता है । लोक मानस भी उससे अप्रभावित नहीं रह जाता । उस प्रभाव के परिणाम स्वरूप अवांछनीयता की जड़ें खोखली होने लगतीं और औचित्य की स्थिति दिनों दिन सुदृढ़ होती चली जाती हैं । पौराणिक भाषा में उनका नाम है । निष्कलंक क्योंकि वह हमारी पिछली तथा वर्तमान दुष्प्रवृत्तियों, कलंकों को धोने आ रहा है । उसके द्वारा ऐसा भावनात्मक प्रवाह उत्पन्न किया जा रहा है; जिससे लोग अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा समस्याओं में उलझे रहने की बजाय खुशी से लोकमंगल संबंधी कार्यों के लिए कटिबद्ध होंगे । इसके लिए बढ़-चढ़ कर तप-त्याग करने में भी संकोच न करेंगे । कल्कि अवतार का यह प्रयत्न प्रेरणा प्रवाह हम अपने चारों ओर प्रवाहित होते हुए इस समय भी आसानी से देख और अनुभव कर सकते हैं ।

अपने युग का प्रधान संकट आस्था संकट है । आस्थाएँ चेतना से संबंधित हैं । अत: अवतार का
प्रधान कार्यक्षेत्र भी चेतना का ही होगा । उसी से विचारधाराएँ, मान्यताएँ और आकांषाएँ उखाड़ी तथा
जमाई जाएँगी । इसके स्वरूप-प्रारूप का निर्धारण हो चुका है । गायत्री महामंत्र में उन सभी तथ्यों का
समावेश है, जो सद्भाव संपन्न आस्थाओं के निर्धारण एवं अभिवर्द्धन का प्रयोजन पूरा कर सके । व्यक्ति का
चरित्र, चिंतन और समाज का विधान प्रचलन क्या होना चाहिए इसका ऐसा सुनिश्चित निर्धारण इस
महामंत्र में विद्यमान है, जिसे सार्व भौम और सर्वजजीन ही कहना चाहिए । अत: तदनुरूप अपने समय का
दसवां अवतार युग शक्ति गायत्री का है । गायत्री में प्रज्ञा और प्रखरता के दोनों तत्व भरे होने से उसमें
सृजनात्मक शक्ति और ध्वंशात्मक शक्ति दोनों का समावेश है । गायत्री मंत्र में सब कुछ विद्यमान है । उसके २४ अक्षरों में बीज रूप में मान्यताओं, संवेदनाओं और प्रेरणाओं का सुनियोजित तारतम्य विद्यमान है । युग परिवर्तन के लिए लोकमानस को उच्चस्त्तरीय बनाने के लिए इस अवलंबन के अतिरिक्त ऐसा कोई कारगर उपाय नहीं खोजा जा सकता जो मनुष्य में देवोपम आस्थाएँ जगाने, प्रेरणाएँ उगाने और सक्रियता अपनाने के लिए अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचा सके ।

युग शक्ति गायत्री की अवतरण परंपरा में सर्वप्रथम वेदमाता स्वरूप ब्रह्माजी के माध्यम से प्रकट हुई । भगवती के सात अवतार, सात व्याहृतियों के रूप में प्रकट हुए जो सात ऋषियों के रूप में प्रख्यात हुए । युग परिवर्तन का नवम् अवतार अब से पिछली बार विश्वामित्र के रूप में हुआ । प्रस्तुत गायत्री मंत्र के विनियोग उद्घोष में गायत्री छंद, सविता देवता, विश्वामित्र ऋषि का उल्लेख होता है । अस्तु, अब तक के युग में विश्वामित्र ही जम्मू अवतार हैं । ब्रह्माजी के माध्यम से वेदमाता का सप्तऋषियों के माध्यम से देवमाता का, विश्वामित्र के माध्यम से विश्वमाता का अवतरण हो चुका है । नौ अवतरण पूरे हुए । दसवां अपने समय का अवतार युग आद्य शक्ति गायत्री का है । अंधकार युग के निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का शुभारंभ इसी दिव्य अवतरण के साथ प्रादुर्भूत होते हुए हम सब अपने इन्हीं चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख रहे हैं । युग समस्याओं के समाधान में यही प्रज्ञावतार महती और सफल भूमिका संपन्न कर सकेगा । यह इतना निश्चित है कि इसमें राई रत्ती भी संदेह नहीं किया जा सकता ।

दशम अवतार निष्कलंक- दसवें अवतार निष्कलंक के अवतरण का यही ठीक समय है । वह किसी व्यक्ति के रूप में ही नहीं एक प्रवाह तूफान के रूप में होगा । तूफान में अनेक तिनके पत्ते उड़ते हैं । प्रवाह में अनेक लहरें होती है, इसी प्रकार युग परिवर्तन के अभियान का निर्माण असंख्य भावनाशीलों के संयुक्त प्रयास से होगा ।


हर व्यक्ति में न्यूनाधिक दोष दुर्गुण होते हैं । मात्र विवेक ही निष्कलंक है । आदर्शवादी विवेकशीलता को 'प्रज्ञा' कहते हैं वही निष्कलंक है । आज की अगणित  समस्याएँ आस्था संकट के कारण ही उत्पन्न हुई है । अनास्था का प्रज्ञा के द्वारा ही निराकरण हो सकता है । अस्तु, प्रज्ञा अभियान जैसे नैतिक, बौद्धिक सामाजिक क्रांति के प्रयत्नों को युग अवतार के रूप में जाना जा सकता है । स्मरण रहे वह कोई व्यक्ति नहीं एक प्रचंड आंदोलन ही होगा । उसी को निष्कलंक अवतार भावी पीढ़ियाँ कहेंगी । अगले दिनों उज्ज्वल भविष्य के निर्माण तथा प्रस्तुत विकृतियों का निवारण करने के लिए उच्चस्तरीय चेतना द्वारा उभयपक्षीय प्रयोजन संभव होने जा रहा है । निष्कलंक प्रज्ञावतरण उसी के उदय और उद्भव का नाम है । इन दिनों इसी का अवतरण काल है । अरुणोदय की वेला सन्निकट है और नव प्रभात की संभावनाएँ प्रकट तथा प्रत्यक्ष होने जा रही हैं । विकृतियों और विपन्नताओं के अंधकार का निराकरण तथा प्रगति और उत्थान की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए आवश्यक ऊर्जा का संवर्द्धन जिस युग प्रभात में होने जा रहा है, उसी को अपने समय का अवतार कहना चाहिए । सामान्य स्तर के मानवी प्रयास इतने बड़े प्रयास में कम न पड़ जाँय, इसके लिए सूक्ष्म जगत में युग चेतना का विशिष्ट प्रादुर्भाव होने जा रहा है । कल्कि पुराण में इसी अवतरण का वर्णन अलंकारिक भाषा में किया गया है ।

'कल्कि पुराण' के आरंभ में ही 'दशम अवतार' की जो झाँकी दिखाई गईं है वह काफी महत्वपूर्ण है ।

यद्दोर्दण्डकपालसर्पकवलज्वासाज्वलद्विग्रहा । नेतु सत्करवालदण्डदलिता भूपा: क्षिति क्षोभका ।।
शाश्वत सैन्धव वाहनो द्विजजानिः कल्कि: परात्मा हरि । पयात् स भगवान् धर्म प्रवृत्ति प्रिया: ।।

अर्थात, ''जिन राजाओं (शासकों) ने पृथ्वी की शांति को नष्ट किया, वे उसकी भुज-भुजंग विषज्वाल से भस्म होंगे, जिनकी भयंकर खङ्ग धारा से अत्याचारी भूपालों को अच्छी तरह दंड दिया जाएगा । ऐसे ब्राह्मण वशोत्पन्न
श्रेष्ठ अश्वारोही, सतयुग आदि विभिन्न युगों में अवतार धारण करने वाले, धर्म रक्षक भगवान कल्कि तुम्हारी रक्षा करें ।''

विश्वमाता का मर्म- नागयज्ञ आस्तीक मुनि के हस्तक्षेप से रुक गया था । एकचित्त संत, ब्राह्मण तेजस्वी युवा ऋषि आस्तीक के सान्निध्य में सत्संग करने लगे ।

क्षत्रिय कुल में उत्पन्न विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि पद वेदमाता गायत्री की कृपा से प्राप्त हुआ । यह प्रसंग उठने पर जन्मेजय ने पूछा- "गायत्री को वेदमाता क्यों कहा गया?" 

दृष्टा आस्तीक ऋषि ने कहा- "वेदमाता ही नहीं देवमाता और विश्वमाता यही तीनों संबोधन आद्यशक्ति गायत्री के है । सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा को स्कुरणा देने, ज्ञान विज्ञान का विस्तार करने के कारण यह वेदमाता कहलाती है ।"

"जब सृष्टि संचालन का क्रम चलता है तब देव शक्तियों का क्रम चलता है, तब देव शक्तियों को पोषित करने का कार्य यही शक्ति करती है । इसके संसर्ग से देवत्व का विकास होता है, इसलिए इसे देवमाता कहते हैं ।"

"जब कभी विश्व स्तर पर अनास्था का कुविचार-दुर्भावना का कुहासा छा जाता है तब उसके निवारण के लिए यह महाशक्ति जन स्तर पर सक्रिय होती है । स्वर्ग से गंगा को भू पर लाने जैसा प्रचंड तप कोई युग पुरुष करता है । तब यह दिव्य धारा जन कल्याण हेतु महाप्रज्ञा के रूप में जन जन को स्पर्श करती है । तब यह विश्वमाता की भूमिका संपन्न करती है । उस समय वेद अर्थात, सद्ज्ञान और देवत्व के विस्तार के अनौखे प्रयोग होते हैं ।

अवतारस्तु ये पूर्वं जातास्तेषां युगे त्विह ।
समस्या: स्थानगा जाता उत व्यक्तिगता अपि ।। ५६।।
इदानीं व्यापकास्ताश्च जनमानससंगता ।
क्षेत्रं प्रज्ञावतारस्य व्यापक विद्यते तत: ।।५७।।
प्रज्ञावतार एषोऽत्न स्वरूपाद व्यापको मत: ।
सूक्ष्मं युगान्तरायाश्च चेतनाया स्वरूपत: ।।५८।।
तस्यानुकूलमेवात्र चिन्तन स्याद विनिर्मितम् ।
नाकृतिस्तस्य काऽपि स्यात् परं तस्योत्तमोत्तमा ।।५९।।
प्रेरणा: संवहन्तस्तेऽसंख्या: प्रज्ञासुताः स्वतः ।
कार्यक्षेत्रे गमिष्यन्ति तेनागन्ता सुचेतना ।।६०।।
कलेः पूर्वार्ध एवायमुत्तरार्धश्च मन्यताम् ।
बुद्धस्य रूद्धकार्यस्यावतारो बौद्धिकों महान् ।।६९।।
प्रज्ञापरिजनानां स विशालो देवसंघकः ।
कालोद्देश्यात् समस्यास्ता समाधास्यन्ति सत्वरम् ।।६२।।

भावार्थ- पिछले अवतारों के समय समस्याएँ स्थानीय और व्यक्ति प्रधान थीं । अबकी बार ये व्यापक और जन मानस में संव्याप्त हैं । इसीलिए प्रज्ञावतार का कार्यक्षेत्र अधिक व्यापक है । प्रज्ञावतार का स्वरूप व्यापक होने के कारण युगांतरीय चेतना के रूप में सूक्ष्म होगा और तदनुसार ही चिंतन विनिर्मित होगा । उसकी अपनी कोई
आकृति न होगी पर उसकी उत्तमोत्तम प्रेरणाओं का परिवहन करते हुए असंख्य प्रज्ञातंत्र कार्यक्षेत्र में उतरेगे जिससे नई चेतना जागेगी । प्रज्ञावतार कल्कि का पूर्वाध व अधूरे छूटे बुद्ध के कार्यों का पूरक है! अत: बुद्ध का उत्तरार्द्ध कहा जा सकता है । यह विचारों की क्रांति का महान बौद्धिक अवतार है । प्रज्ञा परिजनों का विशालकाय देव समुदाय महाकाल का वह उद्देश्य पूरा करेगा जिससे समस्याओं का समाधान हो सके ।।५६-६२ । ।

बुद्धवतार का पूरक-प्रज्ञावतार- बुद्धवतार का पूरक प्रज्ञावतार है, जो इन दिनों संपन्न होने जा रहा है। आज का युग बुद्धि प्रधान है और बुद्धि प्रधान युग की समस्याएँ भी चिंतन प्रधान हो सकती हैं । मनुष्य की प्रेरणाओं का केंद्र मान्यताएँ, विचारणाएँ तथा इच्छाएँ होती हैं और उन्हीं के प्रवाह में सारा समाज बहता है । ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तदनुरूप ही हो सकता है । लोक मानस में घुस पड़ी विकृतियों को उलटने तथा अवांछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यताओं को निरस्त करने में विचार क्रांति ही सफल हो सकती है । चेतना को उत्कृष्टता की दिशा में घसीट ले जाने वाला और सामाजिक क्षेत्रों को समान रूप से प्रभावित करने वाला प्रवाह ही अपने समय का अवतार हो सकता है और वही हो भी रहा है । प्रज्ञावतार को इसी रूप में देखा जा सकता है ।

अगले दिनों प्रज्ञावतार के प्रभाव से जन जन के मन में छुपा हुआ वह उल्लास अनायास ही उत्पन्न होगा, जिसमें कि अंतः प्रेरणा ही वह कार्य संपन्न कर लेगी, जो सामान्य परिस्थितियों में संभव नहीं होता । अवतार प्रक्रिया का चमत्कार ही यह है कि वह असंभव को संभव बना देती है । 

प्रचंड सहयोगी प्रवाह- भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं, प्रवाह साधन था । साधनों से प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था । प्रवाह ने साधन खड़े कर दिए थे । हर्षवर्धन, अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बुद्ध को धर्म प्रचारक नियुक्त नहीं किया था । बुद्ध ने ही हवा गरम की थी और उसी गर्मी से लाखों सुविज्ञ, सुयोग्य और सुसंपन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवरधारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे । धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने अपने समय में अपने अपने ढंग से वातावरण को गरम करके अपने समर्थन की भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गए हैं । पराधीनता पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण अनगढ़ ढंग से आंदोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुँच कर रहे । अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते है, वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते है । उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती । रामायण काल के वानरों द्वारा जान हथेली पर रखकर जलती आग में कूद पड़ना जिस प्रवाह की प्रेरणा से संभव हुआ, उसका स्वरूप और महत्व यदि समझा जा सके, तो प्रतीत होगा कि जन समुदाय को किसी दिशा विशेष में घसीट ले जाने की सामर्थ्य सूक्ष्म वातावरण में भी इतनी है, जिसे साधनों के सहारे खड़े किए हुए आंदोलनों से कम नहीं अधिक शक्तिवान ही माना जा सकता है ।

सत्पात्र ही पाते हैं- सूखी चट्टान पर लगातार पानी के बरसने पर भी एक तिनका नहीं उगता । अंधे को मनोरम दृश्य कभी नहीं दीखते । बहरा मधुर संगीत तक नहीं सुन पाता । पागल के लिए सारा संसार पागल है । दरवाजे बंद हों, तो कमरे में न रोशनी पहुँच सकती है, न धूप । औंधे मुँह पड़े हुए घड़े पर पूरी बरसात निकल जाने पर भी एक बूँद पानी नहीं घुसता, जबकि उन दिनों सभी जलाशय अपनी गहराई के अनुरूप जल संपदा जमा कर लेते है ।

इसी तरह अवतार चेतना प्रवाहित सब जगह होती है, जिनके अंदर जागृति होती है, वे उसे पहचान लेते हैं, उसके लिए आगे आते हैं और लाभ उठाते हैं ।

किसी को आगे आना ही होगा- पुराणों में अनेकानेक देवासुर संग्रामों का वर्णन है । असुर उद्धत और संगठित होने के कारण आरंभिक आक्रमण में जीतते रहे हैं । इसमें सज्जनों का असंगठित और प्रखरता सें विरत रहना बड़ा कारण रहा है । अनीति करने जैसा पाप अनीति सहना एवं न रोकना भी है । देव संस्कृति के अतिवाद में जब जब सज्जनता की आड़ में कायरता छिप बैठती है और दया, क्षमा, उदारता जैसे शब्दों की आड़ में अपनी चमड़ी बचाती है, तो स्वभावत: प्रतिरोधों के अभाव में असुर जीतते हैं । उनके हौसले बढ़ते हैं, तो चौगुनी-सौगुनी अनीति अपनाते हैं । इस स्थिति का निराकरण तभी होता है, जब देवता तन कर खड़े हो जाते है और डटकर लोहा लेते है । काँटे से काँटा निकालने और विष का उपचार विष से करने की नीति अपनाकर ही वे इस संकट से जीतते हैं । अंतत: विजयी देव पक्ष ही होता है, यह देवासुर संग्राम के अनेकानेक घटनाक्रमों का एक जैसा सुनिश्चित परिणाम है । भगवान ने सदा देव पक्ष की सहायता की है और उन्हें विजयी बनाया है, पर यह जमा तभी, जब वे लड़ने-मरने की साहसिकता अपनाकर सामने आए ।

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