प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -5

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विज्ञा एनां तु विश्वस्याऽनिवार्यत्वं महत्तथा। 
आधारां प्रगतेः सार्वभौमाया देवसंस्कृतेः ।। २४ ।।
मन्वाना जगदुर्विद्यावृध्यै प्राणपणैरपि। 
यतितव्यं महत्पुण्यमिदं वै पारमार्थिकम्।। २५ ।।
धर्मकार्ये पुनीतेऽस्मिन् रतांस्तांस्तु गुरून्बधाः। 
वदन्ति गणयन्त्यत्न धरित्र्या देवरूपिणः।। २६ ।।

भावार्थ- विज्ञजन इसे संसार की महती आवश्यकता, देव परंपरा और सर्वतोमुखी प्रगति का आधार मानते हैं। जगत् में विद्या संवर्द्धन के लिए प्राण- पण से लग जाना सबसे बड़ा पुण्य- परमार्थ है। इस पुनीत धर्मकाय में निरत  लोगों को गुरुजन कहा जाता है  और धरती के देवताओं  में जाता है  ।।२४- २६ ।।

व्याख्या- विद्या का उपार्जन व्यक्तित्व के संवर्द्धन एवं विकास हेतु अभीष्ट आवश्यकता मात्र ही नहीं है, यह सारे समुदाय की सर्वांगीण प्रगति का मूल आधार है। जिस समाज में विद्या से विभूषित देव मानव जितने अधिक होते हैं, वह उतना ही धन्य बनता है। विद्या एक ऐसी अक्षय संपदा है, जिसका तीनों कालों में नाश नहीं होता। वह जन्म- जन्मांतरों तक मित्र की तरह मनुष्य के साथ बनी रहती है। विद्या का प्रतिफल देव संस्कृति की मान्यतानुसार आर्थिक सफलता के रूप में नहीं देखा जावा चाहिए। विद्या नर मानव को देव मानव बनाती है, उसे सुसंस्कारित बनाती है उसकी यही सबसे बड़ी देन है, जिसे किसी भी स्थिति में कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। 

ऋषि श्रेष्ठ यहाँ विद्यार्ज को जीवन का एक उपादान नहीं अपितु सर्वश्रेष्ठ पुण्य, सारी मानव जाति के प्रति परमार्थ कार्य कहते हैं। जो नर श्रेष्ठ विद्यादान का पुण्य कार्य करते हैं, उन्हें मुरुजन कहकर उनकी अभिवंदना की गई है, उन्हें भूसुर की उपाधि दी गई है। सामान्य शिक्षक, जो लौकिक जानकारी देते हैं एवं गुरुजन, जो अंत: के परिष्कार में समर्थ विद्या देते हैं, में अत्यधिक अंतर है। दोनों को भूल कर भी एक नहीं मानना चाहिए। 
परमेश्वर जिन पर भी प्रसन्न होते हैं, उन्हें वे अधिक विचारशील, सद्भावना संपन्न और ज्ञान परायण बनाते हैं तथा ज्ञानयोग में संलग्न होने की प्रेरणा देते हैं। संसार में सद्ज्ञान का प्रसार उनका मुख्य काम बन जाता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक के समस्त सच्चे ईश्वर भक्त, ऋषि, मुनि आजीवन इसी कार्य में लगे रहते हैं। गुरुकुल चलाने में, सद्ग्रंथों का प्रणयन करने में, यज्ञ आयोजनों में, कथा- प्रवचन कहने में, संस्कार और पर्वों की व्यवस्था में संलग्न रहकर वे संसार को ज्ञानवान बनाने के लिए ही प्रयत्न करते रहे हैं। प्रत्येक ईश्वर भक्त को सदा से यही प्रयत्न करना पड़ा है। वह चुप बैठ ही नहीं सकता। अतएव उससे अपनी परिस्थतियों के अनुसार मानव जाति को अधिक ज्ञानवान बनाने के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करना ही पड़ा है। ऐसे ही महापुरुषों को गुरुजन कहा गया है और उन्हें धरती के देवता की उपाधि दी। देव संस्कृति में गुरु तत्व को बहुत महत्त्व दिया गया। उनके प्रति निष्ठा रखने के लिए अध्यात्म प्रेमियों को प्रेरणा दी गई है - वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्। तुलसीदास जी के मतानुसार गुरु व्यक्ति नहीं एक शाश्वत शक्ति है, जो पात्रतानुसार व्यक्तियों में

प्रतिबिंबित होती है। शरीर नित्य नहीं है, इसलिए गुरु के संबोधन के पीछे किसी विशेष का आग्रह नहीं है। ' शंकररूपिणम् ' उसे इसलिए कहा गया, क्योंकि वह ज्ञान का कल्याणकारी उपयोग करता है। अंत: में स्थिति आत्मतत्व को अनुभव कराने एवं ईश्वर का साक्षात्कार कराने में गुरु की प्रमुख भूमिका होने से उन्हें शिव रूप उद्बोधन उचित ही दिया गया है। 

गुरु प्रदत्त शिक्षा पद्धति की विशेषता

'' माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या: '' अर्थात् '' मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में अर्पण रहेगा। लोककल्याण की सेवा के लिए समर्पित रहेगा। मैं संपूर्ण विश्व को ज्ञान और शक्ति से उद्दीप्त रखूँगा। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त शक्ति से मैं अपने राष्ट्र को जीवित और जागृत रखूँगा। मेरे जीवित रहने तक मेरे धर्म और संस्कृति को आँच नहीं आने पाएगी। '' तब के २५ वर्षीय स्नातक की, जो गुरुकुल से विदा होने पर उपरोक्त प्रकार की प्रतिज्ञा लेता था, बौद्धिक प्रतिभा, उदात्त दार्शनिक और तात्त्विक ज्ञान से ओत- प्रोत बनाई थी, वरन् उनमें ऐसी शक्ति और प्रतिभा का भी विकास करती थी, जो अपने को ही नहीं , सारे समाज को ऊर्ध्वगामी बनाए रखने में समर्थ होती थी। 

पाणिनि की तरह व्याकरण, पतंजलि की तरह योग, चरक- सुश्रुत की तरह औषधि- शास्त्र , मनु, याज्ञवल्क्य आदि के संविधानों में अत्यंत सूक्ष्म तत्वावधान और बौद्धिक शक्तियों का अवतरण हुआ है। गुरुकुलों में ही आरण्यक और उपनिषदों की रचना हुई। उपपुराण और पुराण लिखे गए । 

ज्ञान प्रसार की ऋषि परंपरा

ऋषियों की परंपरा ज्ञान साधना की रही है। आज हमारे सामने ज्ञान का जो अथाह भंडार सुरक्षित है, वह उन्हीं की देन है। व्यास, वशिष्ठ, भारद्वाज, गौतम, पतंजलि आदि ऋषियों ने न केवल ज्ञान की साधना और खोज की, वरन् सीमित सादा, जीवन बिताकर ज्ञान के प्रसार के लिए भी कार्य किया। 

महर्षि चरक, सुश्रुत ने आयुर्वेद क्षेत्र में बहुत सी खोज और अनुसंधान करके मानव समाज को रोग मुक्त एवं स्वस्थ बनाने की दिशा में बहुत बड़ा काम किया। 
देवर्षि नारद स्वयं न केवल एक भक्त और ज्ञानी व्यक्ति ही थे, वरन् उनका ज्ञान प्रसार और लोगों को सत्प्रेरणाएँ देने का काम और भी महत्त्वपूर्ण था। वे सदैव कीर्तन, भजन गाते हुए लोगों में सद्विचार और सद्ज्ञान का प्रचार करते रहे। उन्होंने कई गिरे हुओं को उठाया, पापियों को शुभ मार्ग में लगाया, अधिकारी पात्रों को ज्ञान की दीक्षा देकर आत्म विकास की ओर अग्रसर किया। 

महर्षि कणाद के बारे में प्रसिद्ध है कि वे खेतों में उपेक्षित छोड़ दिए जाने वाले अन्न के दानों को बीनकर उनसे अपने परिवार का जीवन निर्वाह करते थे और अपना अधिकांश समय ज्ञान साधना में लगाते थे। वे चाहते तो धन अर्जन करके सुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते थे, किंतु वे अधिकाधिक समय अपनी ज्ञानोपासना में लगाना चाहते थे। स्वयं ज्ञानवान् बनना और दूसरों को ज्ञानवान बनाना उन्हें संसार में सर्वश्रेष्ठ सत्कार्य प्रतीत हुआ। इसलिए जीवन की आवश्यकताओं को कम महत्त्व देकर महर्षि कणाद ने संसार को ज्ञान का एक बहुत बड़ा कोष प्रदान किया। 

महर्षि पिप्पलाद इसी तरह पीपल वृक्ष के छोटे- छोटे फलों से जीवन निर्वाह करते थे। उन्होंने अमूल्य मानव जीवन को केवल जीवन निर्वाह के लिए ही लगाना श्रेयस्कर न समझा। उनके सामने ज्ञान साधना का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम था, जिसके लिए उक्त मार्ग अपनाया। 

शुकदेव जन्म से ही ज्ञान की खोज में निकल गए थे। वे सांसारिक प्रलोभनों में नहीं आए और जीवनोद्देश्य की पूर्ति में नितांत आवश्यक आत्मज्ञान की खोज में जुटे रहे। आजीवन त्यागी- अपरिग्रही रहकर शुकदेव जी ने ज्ञान की साधना की। इन्हीं ने महाराजा परीक्षित को भगवान की कथा सुनाई थी। राजा जनक से जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया था, उसे सारी मानव जाति में वितरित किया। 

महामनीषी चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री थे। उन्हीं के प्रयत्नों से मौर्य साम्राज्य का विस्तार हुआ, लेकिन यह सब कुछ करते हुए भी चाणक्य ने अपने विद्या- प्रेम को नहीं छोड़ा, वरन् राजकीय वातावरण से दूर एक कुटिया में रहकर ज्ञान की साधना करते थे। चंद्रगुप्त ने उनके लिए अच्छे भवन और सुख- सुविधायुक्त साधन जुटाए, लेकिन उन्हें स्वीकार न करते हुए, चाणक्य अपनी कुटिया में सरस्वती की आराधना किया करते। इसी से अध्ययन और अध्यापन दोनों ही कार्य चाणक्य के जीवन के अभिन्न अंग थे। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र के रूप में चाणक्य की बहुत बड़ी देन उनकी ज्ञान साधना का ही परिणाम है। 

प्रत्येक ऋषि के आश्रम में एक गुरुकुल रहता था। वे तपश्चर्या के साथ- साथ ज्ञानोपासना को भी अपना परम पवित्र  एवं अनिवार्य धर्म कर्तव्य मानते थे। उन दिनों देश भर की सारी शिक्षा व्यवस्था ऋषियों, ब्राह्मणों और संतों के जिम्मे ही थी। वे छोटे- बड़े अगणित विद्यालय चलाते थे। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय उन्हीं प्रयत्नों से इतने विकसित हुए कि सारे संसार के छात्र उनमें विविध विषयों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया करते थे और यहाँ की संस्कृति को समस्त विश्व में फैलाया करते थे। 

तेजस्वी अष्टावक्र 

राजा जनक जनपथ से गुजर रहे थे। उनके सैनिक मार्ग में चल रहे लोगों को एक ओर हटाते जा रहे थे। कुछ दूर मार्ग में उन्हें टेढ़े- मेढ़े शरीर का एक व्यक्ति मिला, उससे भी मार्ग से हटने को कहा गया। लेकिन वह बोला- '' यह जन मार्ग है, यहाँ सभी को चलने का अधिकार है। यदि राजा इतने लंबे- चौड़े मार्ग से नहीं गुजर सकता, तो किसी अन्य रास्ते होकर चला जाय। '' सैनिक ने दृढ़ता भरे शब्दों को सुनकर राजा से शिकायत की। महाराज जनक ने सोचा कि जिसमें स्वाभिमान और मानवीय गरिमा का इतना तेज है, वह अवश्य कोई महान् व्यक्ति होगा और राजा नम्रतापूर्वक उनके पास गए। अपनी सूक्ष्म बुद्धि से राजा ने उस व्यक्ति की गरिमा को समझ लिया और उसे सादर अपना राजगुरु बनाया, जिन्हें लोग अष्टावक्र के नाम से जानते हैं। 

आत्मज्ञान उपहार में नहीं 

ब्रह्मविद्या, आत्मज्ञा न ऐसे ही बिना प्रयास के नहीं मिल जाते। इसके लिए तो कठोर तप करना पड़ता है। हिरण्यकशिपु का नृसिंह भगवान द्वारा बध किए जाने पर पातालपुरी का राज्य प्रह्लाद को मिला। प्रह्लाद विष्णु का तप करने लगे। प्रसन्न होकर वे प्रकट हुए और पूछा- '' किस वर की कामना है ?'' 

प्रह्लाद ने कहा- '' आत्मज्ञान चाहिए। '' विष्णु ने कहा- '' वत्स!  यह ऐसा उपहार नहीं है, जिसे कोई किसी को दे सके। इसके लिए चिंतन और मनन करना पड़ता है, जिज्ञासा जगानी होती है और कुसंस्कारों के भव- बंधनों को तोड़ना पड़ता है। तभी आत्मज्ञान मिलता है। तुम दूसरे तप में इन्हीं प्रयासों को कार्यान्वित करो, मैं तुम्हें सफल बनाने में सहायता करूँगा। '' 

विष्णु की स्पष्टोक्ति सुनकर प्रह्लाद ने वही प्रयत्न करना आरंभ किया, जिनसे जकड़े हुए भव बंधन टूटें। 
फलस्वरूप उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गई। 

वशिष्ठ बोले- '' हे राम, तुम मुझसे उपहार में आत्मज्ञान मत माँगो । माया का प्रपंच समझो और उसे तोड़ने का प्रयत्न करो, तभी अभीष्ट की प्राप्ति होगी। '' 

अंश और अंशी का अंतर 

बिना गुरु के जीवन यात्रा पूरी कैसे हो ? 

घाट पर चलने वाली नाव में बैठकर दिनभर यात्री सुविधापूर्वक पार होते थे । एक यात्री बड़ा जिद्दी था। बोला- '' नाव में बैठकर पार होने की बात सभी कहते हैं, मैं घाट पर खाली नाव में बैठूँगा और सहज ही पार हो जाऊँगा। '' सब ने समझाया कि माँझी, डाँड, किराये की व्यवस्था रहने पर ही पार हुआ जा सकता है, पर जिद्दी नाव को ही सब कुछ मानता था, सो एक खाली खड़ी नाव में बैठकर पार जाने के लिए अड़ गया। नाव थोड़ी ही दूर चल कर उलट गई और नाव तथा यात्री दोनों ही डूब गए। 

भगवान् का नाम नाव तो है, पर उसके साथ जीवन परिष्कार और सुयोग्य गुरु का मार्गदर्शन भी चाहिए। 

सज्जन की तलाश

आज के युग में नर पामर तो बहुत हैं, श्रेष्ठ नरों का अभाव है। ग्रीस के डायोजिनिस भरी दोपहरी में जलती लालटेन लेकर चारों ओर नजर दौड़ाते चल रहे थे। दर्शक उन्हें जानते थे। समझे, इनकी कोई चीज खो गई है। वे भी उनके साथ हो लिए। थोड़ी दूर चल कर साथ लगे दर्शकों ने पूछा- '' क्या तलाश कर रहे है ? दिन में लालटेन की क्या जरूरत पडी़ है ?'' 

डायोजिनिस ने कहा- '' मुझे एक भले आदमी की जरूरत थी, सो आप लोगों के चेहरे पर प्रकाश डालते हुए, आगे बढ़ता जा रहा हूँ। बात को आगे जारी रखते हुए कहा- '' अब तक की जाँच- पड़ताल में धनी, विद्वान् शिल्पी, व्यवसायी, मजूर आदि तो अनेक मिले, पर सज्जन एक भी नहीं मिला। इसी तलाश में आगे बढ़ता जा रहा हूँ। ''
 
हर युग में ऐसे महामानव जन्म लेते हैं , जो अपने सुयोग्य मार्गदर्शन से नर रत्नों को जन्म देते हैं । विद्या रूपी संस्कारी शिक्षा ही इसकी पृष्ठभूमि बनाती है। 

अन्दर झाँको 

गुरु अज्ञान के अंधकार को दूर कर सही रास्ता दिखाते हैं। यह मार्गदर्शन ही व्यक्ति को आत्मतत्त्व की सच्ची जानकारी देता है ।        

श्रुतिधर स्वच्छता तलाश करने निकले। सर्वत्र कूड़ा- कचरा बिखरा देखा। जलाशय में नहाये, तो उसमें मेंढक- मछलियों का मल- मूत्र बह रहा था। प्रभात की पवन में बैठे, तो उसके साथ भी धूलि- कण उड़ रहे थे। काया को देखा, तो वह भी मल- मूत्र की गठरी देखी। चंद्रमा में कलंक, सूर्य में ताप, रात्रि में अंधकार देखा, तो दोषमुक्त स्थान कहीं मिला नहीं। 

उनके मन को पढ़ रहे गुरु मुनिराज उद्दालक ने कहा- '' तात्, अपना मन और दृष्टिकोण पवित्र करो। 
बाहर तो सर्वत्र अमंगल ही भरा पड़ा है। '' 

आहार भी,विद्या भी 

यह गुरु का ही दायित्व है कि तरह- तरह से शिष्यों की परीक्षा ले एवं उन्हें तत्वविद्या का मर्म समझाए। 

महर्षि उद्दालक ने उन गुरुकुल प्रवीण छात्रों को बुलाया और परीक्षा लेने के लिए उनके आहारों को एक- एक मास के लिए बदल दिया। अवधि पूरी होने पर सभी को बुलाया गया और उनकी स्थिति जाँची गई। जिसे एक महीने भूखा रखा गया था, वह सब कुछ भूल गया। आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। स्मृति जवाब दे रही थी। जिसने तामसिक वस्तुएँ खाई , उसकी चंचलता बढ़ गई और पढ़ने से मन उचट गया। जिसके आहार में मादकद्रव्यों का समावेश था, उसने अध्ययन में अरुचि दिखाई और घर लौटने की आज्ञा माँगने लगा। इसी प्रकार किसी को झगड़ालू किसी को शांत, किसी को सौम्य, किसी को उद्धत पाया गया। अध्ययन पर भी इस बदली मनःस्थिति का वैसा प्रभाव पड़ रहा था। 

प्रस्तुत परिवर्तन का रहस्य बताते हुए उद्दालक ने छात्रों से कहा-'' अन्न से ही प्रकारांतर से बुद्धि और चित्त बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा ही मन बनता है। विद्या को जितना महत्त्व दिया जाता है। उतना ही अनुकूल आहार पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। '' 

वैराग्य का प्राथमिक पाठ 

बंगाल के परमहंस रामकृष्ण की सत्संगति से एक युवक के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अपनी सारी संपत्ति गरीबों को बाँट कर उसने एक हजार मुद्रा परमहंस देव को भेंट करनी चाही ,पर  लोगों के , यह बतलाने पर कि परमहंस देव ऐसी भेंट स्वीकार नहीं करेंगे, उसने एक- दो- तीन चार हजार तक गिनकर सब मुद्राएँ नदी की धार में फेंक दीं। खाली हाथ परमहंस के पास जाकर उसने यह हाल कह सुनाया, यह सुनकर परमहंस देव बोले- '' जिस जगह पर तुझे एक कदम उठाकर पहुँच जाना चाहिए था, वहाँ पहुँचने के लिए तुझे एक हजार कदम उठाने पड़े । इससे मालूम होता है कि अभी तेरा धन संबंधी लोभ पूरा नहीं हुआ है। धर्मकार्य में यदि तू इस प्रकार गिन- गिन कर कदम रखेगा, तो उस स्थान तक पहुँच ही नहीं पाएगा। जा, बाजार से किसी सर्राफ की दुकान पर बैठकर धन गिनने की अपनी इच्छा को पूरी करले, तब आना। '' 

लोक- परलोक किसी की चिंता नहीं

और किसी की त्रुटि तो क्षम्य है, पर गुरु जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर बैठने वाले की छोटी सी भूल भी बहुत बड़ी है। उसे सोच- समझकर ही अपने हाथ में महत्त्वपूर्ण कार्य लेना चाहिए। कितने ही धर्म प्रेमी हसीदी धर्मगुरु बालशेम के पास जाकर आग्रह करने लगे-'' गुरुदेव !आपके शिष्य यही एल मिरवाल से हम लोग कई बार गुरु का पद स्वीकार करने के लिए कह चुके है, पर वह हर बार अनसुनी करं देते हैं। यदि आप उनसे कहें, तो संभवतःआपके आदेश की अवहेलना वह न कर सकेंगे। '' 

धर्मगुरु बालशेम ने मिरवाल को बुलाकर कहा- '' तुम्हें अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए। जानते हो, मेरे आदेश की अवहेलना तुम्हें न इस लोक का रखेगी और न परलोक का। '' 

शिष्य का उत्तर था- '' भले ही मेरे दोनों लोक चले जाएँ, मुझे इस बात की चिंता नहीं है, पर मैं यह उचित नहीं समझता कि जिस पद के योग्य नहीं हूँ , उसे स्वीकार कर लोगों को गुमराह करूँ। '' 

भूल छोटी, हानि बडी़

एक नगण्य सी भूल बहुत कुछ कर दिखा सकती है। 

सन् १९७२ में शुक्र ग्रह की खोज खबर लेने के लिए अमेरिका ने मेरीनर- १ अंतरिक्ष में छोड़ था, पर उस योजना पुर खर्च हुए करोड़ों डालर, बेकार चले गए। राकेट अपने रास्ते से भटककर कहीं का कहीं चला गया। इस असफलता का कारण क्या था ? इसकी जाँच बिठाई गई। पता चला कि यात्रा पथ निर्धारित करने में जो गणित किया गया था, उसमें एक स्थान पर एक ऋण चिह्न ( -) गणितकर्त्ताओं की भूल से छूट गया था। उतनी सी छोटी भूल ने संसार भर में अमेरिकी अंतरिक्ष विज्ञानियों को नीचा दिखाया। 

अमेरिका के अंतरिक्ष विज्ञानी जार्ज मुलर के दफ्तर में ठीक उनके सामने की दीवार पर एक मात्र चित्र पर ऋण ( -) चिह्न की एक छोटी सी रेखा भर चित्रित की गई है। उसके नीचे लिखा है- '' भूल चाहे इतनी- सी ही क्यों न हो, हानि इतनी बड़ी कर सकती है, जिसके लिए बहुतों को बहुत पश्चात्ताप करना पड़े। बड़ों के दायित्व बड़े ही होते है। वे अपने पद की गरिमा समझते हैं। 

विद्याधनः    पुलस्त्य:    स    पप्रच्छ   मुनिपुंगवः। 
कात्यायनं    महर्षि    तं    लोकमङ्गलकाम्यया ।।२७ ।। 

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