परिवर्तनमायाते समये जीर्णतोदिता ।
यदि विकृतयस्तीव्रा वर्द्धितास्तर्हि तद्ग्रहः।। २६ ।।
सर्वथाऽनुचितो मर्त्याः सन्ति ये तु दुराग्रहाः ।
पुराण साधु नव्य च दूषित सर्वमित्यहो ।। २७ ।।
दुराग्रहिण एते च पारम्पर्यानुधाविनः ।
तदगृह्नन्ति मृतान् पुत्रान् यथा वानर्य आतुरा:।। २८ ।।
भावार्थ- समय बदले जाने और जीर्णता जन्य विकृतियाँ बढ़ जाने पर भी उन्हें अपनाए रहने का आग्रह अनुचित है । दुराग्रही लोग जो पुराना सो अच्छा जो नया से बुरा की दुराग्रही दृष्टि अपना लेते हैं और जो कुछ चल रहा है उसे परंपरा कहकर अनुपयोगी को भी मरे बच्चे को छाती से लगाए फिरने वाली बंदरी का उदाहरण बनते हैं ।।१६-२८ ।।
परम्पराओं ने सिद्धि रोकी - मनुष्य को अपूर्णता बुरी लगी । उसने पूर्ण बनने की बात सोची और उपाय पूछने ब्रह्माजी के पास जा पहुँचा । ब्रह्माजी ने उसका अभिप्राय समझा और कहा- '' वत्स, सत्य को धारण करना ही पूर्णता है, जिसके पास जितना सत्य होगा, वह उतना ही पूर्णता प्राप्त कर सकेगा । सो, जा तू सत्य की उपासना कर ।'' मनुष्य ने विनीत भाव से पूछा- ''भगवन् ! सत्य की उपासना कैसे होती है?''
प्रजापति ने कहा- ''उचित जिज्ञासा करते हुए उसका श्रद्धापूर्वक सही समाधान खोजने की चेष्ट को उपासना कहते है । इसी आधार से पूर्णता प्राप्त होती है ।'' प्रसन्नतापूर्वक मनुष्य लौट आया, उसने प्रयत्न भी आरंभ किया, पर परंपरागत रूढ़ियों के आगे उसका बस न चला, सत्य की उपासना वह अधूरी ही कर सका और पूर्णता की आकांक्षा अधूरी ही बनी रही ।।
शैतानी परम्परा से बचें- संत टाल्स्टाय ने कहा- ''पाप इंसान का अधिक नुकसान नहीं कर सकता, यदि मनुष्य शैतान को मान्यता दे तो।'' एक जिज्ञासु ने इस कथन का स्पष्टीकरण पूछा ।
संत बोले- ''पाप आकर्षक लगता है, सो मनुष्य अपना लेता है, परंतु मनुष्य की चेतना उसे हानिकारक समझकर बुद्धि छोड़ने को कहती है, तभी शैतान कहता है- बदल मत, मजा ले, उसी को चलने दे । चेतना की सलाह की अवज्ञा और शैतान की मान लेने से भूलों का, पापों का स्थायी चक्र चल पड़ता है । मनुष्य भूलें अनजाने में करता है, पर शैतान जानबूझ कर उन्हें परंपरा बना देता है ।''
बड़प्पन की नकल- एक गांव में दो युवक रहते थे । दोनों में बड़ी मैत्री थी । जहाँ जाते साथ साथ जाते । एक बार दोनों एक धनी व्यक्तिं के साथ उसकी ससुराल गए। किसी धनी व्यक्ति के साथ रहने का यह पहला अवसर था । सो, वे धनी मित्र की प्रत्येक गतिविधि को ध्यान से देखते रहे ।"
गर्मियों के दिन थे । रात में उक्त युवक के लिए शयन की व्यवस्था खुले स्थान पर की गई । पर्याप्त शीतलता बनी रहे, उसके लिए वहाँ चारों ओर जल छिड़का गया ।। रात को ओढ़ने के लिए बहुत हल्की मलमल की चादर दी गई।
अन्य दोनों युवकों ने इतना ही जाना कि इस तरह का रहन- सहन बड़प्पन की बात है । कुछ दिनों बाद उन्हें भी अपनी अपनी ससुराल जाने का अवसर मिला । वे दिन गर्मी के न होकर तीव्र शीत के थे । नकल तो नकल ही है ।दोनों ने अपना बड़प्पन जताने के लिए बिस्तर खुले आकाश के नीचे लगवाया और ओढ़ने के लिए कुल एक एक चादर, वह भी पतली ली । रात पाला पड़ गया । सो, दोनों को निमोनियाँ हो गया । चिकित्सा कराई गई, तब कठिनाई से जान बची । उचित और अनुचित का विचार किए बिना, जो औरों का अनुकरण करता है, वह मूर्ख ही संकट में पड़ता है, जैसे वे दोनों युवक ।
जाति- पाँति के विरोधी-जगद्बंधु- बंगाल के पवना नगर में जन्मे महाप्रभु जगद्बंधु ने देखा कि ईसाई प्रचारक अछूत वर्ग को बहकाकर तेजी से अपने धर्म में दीक्षित कर रहे हैं और हिंदू समुदाय इसके लिए कुछ सोचता तक नहीं । जगद्बंधु आगे आए ।। उन्होंने अछूत जातियों को दिशा देना अपना जीवन लक्ष्य बनाया ।। कीर्तन के माध्यम से लोगों को एकत्र करना और बाहरी स्वरूप भक्ति भावना का रखना, उनके कर्मकांड का यह बाहरी स्वरूप था । भीतर यह कि हरिजनों को बहकने से बचाना और हिंदू धर्म की महानता समझाना एवं यह विश्वास रखना कि अगले दिन मनुष्य मात्र की समानता वाले दिन आ ही रहे है ।।
उन दिनों मुसलमानों और अंग्रेजों का दबदबा था ।। उसमें धर्म प्रचार ही ऐसा रास्ता था, जिससे उनके सीधे आक्रमण से बचा जा सकता था ।। जगद्बंधु ने यही मार्ग अपनाया । वे दूर दूर क्षेत्रों में निरंतर भ्रमण करते रहे कि यदि अपनी मूढ़ मान्यताएँ न बदलेंगे, तो एक दिन उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं रहेगा। समय की आवश्यकता समझने वाले और समाधान के लिए अपने सीमित साधनों को होम देने वाले जगद्बंधु की विज्ञ समुदायों में भूरि भूरि प्रशंसा की जाती है ।
विवेक के समर्थक जियोर्डानो- इटली के दार्शनिक जियोर्डानो को सन् १६०० में अंध विश्वासियों की शिकायत पर जिंदा जला देने की सजा भुगतनी पड़ी ।
उनका कसूर इतना था कि वे तांत्रिकों की मजाक उड़ाते थे और उन्हें 'अर्द्ध विक्षिप्त धूर्त' कहते थे । उन्होंने कितनी ही उद्विग्न औरतों पर से डाकिन होने के आरोप का डटकर विरोध किया और उन्हें बचाया था ।।
आदर्शों के लिए बलिदान-अब्राहम ! लिंकन के समय में दासता विरोधी कानून पास हो चुका था, पर दक्षिण अफ्रीका वाले उस क्षेत्र में बसे हुए अफ्रीकी काले लोगों के साथ मानवोचित व्यवहार करने के लिए रजामंद न हो रहे थे ।
लिंकन के एक सौ वर्ष बाद कैनेडी उस कमी को पूरा करना चाहते थे । उस प्रयोजन के लिए एक बिल भी पार्लियामेंट में ला रहे थे । इसके विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका वालों ने बहुत कुहराम मचाया । उन्हें प्रथम वर्ष में ही धमकी भरे पत्र मिले । पर वे न्याय के लिए मौत अपनाने से भी विचलित न हुए ।
दूसरी ओर युद्ध व्यवसायी उन पर यह, जोर डाल रहे थे कि युद्ध आरंभ किया जाय, जिससे उनके अस्त्र उत्पादन की खपत हो । इन निहित स्वार्थों के सामने भी कैनेडी झुके नहीं और उनने शांति बनाए रखी ।
कुछ लोगों ने आखिर उनकी जान ले ही ली । जब वे एक जुलूस में जा रहे थे, तब किसी आततायी ने उन्हें गोली मार दी, लिंकन की मृत्यु भी इसी प्रकार हुई थी । न्यायनिष्ठ होना भी कांटों का ताज पहनना है ।
धूर्त की मरम्मत- महाराष्ट्र में भूत भगाने का पेशा करने वाले ओझा किसी के भी रोग या कष्ट की बात सुनते ही जा पहुँचते और भूत आवेश सिद्ध करके जानवरों की बलि कराते और मांस अपने घर ले जाते ।
समर्थ जब चालाकी समझ गए । एक दिन वे भी वहीं जा पहुँचे, जहाँ ओझा का मायाजाल चल रहा था । उनने देवी के आवेश की मुद्रा बनाई और ओझा की गरदन पकड़ ली, कहा- '' आज तो मेरा मन इसी की बलि लेने का है।'' भोले लोग हथियार ले आए । जान जाते देखकर ओझा ने समर्थ के पैरों में सिर रखा और कभी आगे भूतबाजी और पशुबलि न करने की प्रतिज्ञा करके अपने प्राण बचाए ।
परम्पराओं की छेड़खानी - अरस्तू भी पूर्व प्रतिपादकों की तरह यही कहते थे कि एक सेर, का गोला और चालीस मन का गोला समान ऊँचाई से एक ही समय में गिराए जाएँ, तो एक मन का गोला चालीस गुनी रफ्तार से जमीन पर गिरेगा पर गैलीलियो ने इसे गलत सिद्ध कर दिया ।। वे एक साथ गिरे ।। अरस्तू के शिष्य इस पर आगबबूला हो गए और गैलीलियो को जादूगर कहकर अपनी जन्मभूमि पीसा से भगा दिया ।।
गैलीलियो ने और भी कई आविष्कार सिद्ध किए ।। उसने पृथ्वी को चपटी नहीं गोल और भ्रमणशील सिद्ध किया । इस पर शासन, धर्मगुरु और जनता सभी रुष्ट हो गए और उसे जेल में सड़ना पड़ा ।
पुरातन मान्यताओं से छेड़खानी करना किन्हीं कलेजे वालों का ही काम है।
शकुनों की निरर्थकता- एक पंडित शकुन विचार का बहुत पक्षपाती था। छींक हो जाने पर अशुभ होने की बात पर बहुत विश्वास करता था। राजा ने उसे नई तलवारो के शुभ - अशुभ होने की शकुन परीक्षा करने के लिए रख लिया ।
पंडित एक तलवार को सूंघकर उसकी प्रकृति जांच रहा था कि जोर की छींक आई और तलवार की धार से उसकी नाक कट गई । उसने लाख की नकली लगा कर काम चलाया । राजा अपनी बेटी का विवाह किसी राज परिवार में करने जा रहे थे । बेटी को एक सामान्य परिवार का युवक पसंद था । राजकुमार ढूँढ़ने के लिए राजा ने प्रस्थान किया, तो सामने से छींक हुई । वे अशुभ समझकर लौट आए ।
बेटी ने अपनी मां को समझा कर उसे इच्छित वर से संबंध पक्का कर दिया और विवाह हो गया ।
विवाह शुभ रहेगा या अशुभ यह बताने के लिए पंडित जी उसकी ससुराल पहुँचे । वर बहुत बुद्धिमान था । उसने पंडित जी से कहा- '' महाराज ! शकुन विचार और भविष्य कथन सर्वथा निरर्थक हैं । छींक से आपकी नाक कट गई और मुझे राजकुमारी मिल गई । आप व्यर्थ ही हम लोगों के बीच शंका- कुशंका उत्पन्न न करें । हमारा दांपत्य जीवन शकुन के नहीं, हम लोगों की बुद्धिमत्ता पर निर्भर रहेगा ।
दुग्धेऽत्र मक्षिकापातो भवेच्चेत्तदपेयताम् ।
गच्छति प्राय एवं हि विकृतेर्विकृता,'इमे ।। २१ ।।
धार्मिकाः सम्प्रदायास्तु युद्ध्यन्तेऽत्र परस्परम् ।
विकृतीरपि चेदत्र वदन्त्येव परम्परा: ।। ३० ।।
दुराग्रहा गृहीतास्ता यान्त्यत्राधमतां प्रथा: ।
उत्थापयपि मर्त्यं तन्मूलं धर्मस्य संस्कृतेः ।। ३१ ।।
अग्रगं तं करोत्येवं सार्वभौमदृशा तथा ।
उन्नतं सुखिनं कर्तुं सहयोगं करोत्यलम् ।। ३२ ।।
भावार्थ - दूध में मक्खी पड़ जाने पर वह अखाद्य बन जाता है । इसी प्रकार इन दिनों प्रचलित धर्म संप्रदाय भी परस्पर लड़ते-टकराते देखे जाते हैं । उनमें घुसी हुई विकृतियाँ जब परंपरा कही और दुराग्रहपूर्वक अपनाई जाती हैं, तो उत्तम भी अधम बन जाता है अन्यथा धर्म और संस्कृति का मूल स्वरूप मनुष्य को ऊँचा ही उठाता है उसे आगे बढ़ाता और हर दृष्टि से सुखी समुन्नत बनाने में सहायता करता है।
व्याख्या- देवसंस्कृति के सूत्र दूध की तरह निर्मल हैं, परंतु मानवीय दुश्चिंतन उन्हें दूषित बना देता है । अनेक श्रेष्ठ परंपराएँ आज भी उपयोगी हैं, आवश्यक हैं, परंतु विकारों की मिलावट के कारण उन्हें अपनाया जाना हानिकारक लगता है । विकारों की मिलावट रोकी जा सके, तो वे सौभाग्यशाली हो जाएँ । ऊँच- नीच का विष- वर्ण व्यवस्था की आंतरिक बनावट के अनुरूप काम देने की व्यवस्था रही है । आजकल मनोवैज्ञानिक वृत्ति परीक्षण (Aptitude test) करके बालकों के लिए धाराएँ निर्धारित करते हैं। यह अत्यंत हितकारी क्रम हैं , परंतु उसमें जन्म- जातिगत अहंकार, नीच- ऊँच की भावना का ऐसा विष मिल रहा है कि वह अपेय लगती है । पुरोहित का कार्य समाज को सही दिशा देना, दूरगामी हितों के लिए कृत संकल्पित करना होता है । निस्पृह अपरिगृही पुरोहित वर्ग किसी भी समाज के लिए वरदान हो सकता है, परंतु उसे संकीर्ण स्वार्थपरता की मक्खी ने वमन करने योग्य बना दिया है ।
ज्योतिर्विज्ञान, निर्विवाद विज्ञान है । परंतु उसके साथ फलित और भाग्यवाद का ऐसा गठजोड़ है, जिसने उसे धूर्तता और मूर्खता की श्रेणी में ला पटका है ।
सत्पुरुष इस प्रकार के विकारग्रस्त सिद्धांतों को तब तक व्यवहार से दूर रखते हैं, जब तक वे विकार मुक्त न हो जाएँ । बड़ों का आज्ञापालन शाख सम्मत भी है और विवेक सम्मत भी, पर जब वह क्षुद्र स्वार्थजनित हो तो त्याज्य है । जैसे पिता तज्यो प्रह्लाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी ।
माता की आज्ञा का उल्लंघन - भरत की माता कैकेयी ने पति से वरदान माँगकर अपने पुत्र के लिए राज्य माँगा था, पर भरत ने ठुकरा दिया । उनने आज्ञा और परामर्श को नहीं औचित्य को मुख्य माना और उसी को स्वीकार किया । एक से अधिक स्त्रियाँ रखने पर राजा दशरथ की तरह ही फजीहत में पड़कर प्राण त्यागने पड़ते है । सुग्रीव पर रोष- श्रीराम ने सुग्रीव से मित्रता की और बालि का वध करके उन्हें राजा बना दिया ।। मित्रता की शर्त थी कि राज्य सत्ता का उपयोग असुरता के विरुद्ध संघर्ष में किया जाएगा । परंतु सुग्रीव भूल गए और सुखोपभोग में ही उसको लगाने लगे ।निर्धारित कर्तव्य के लिए दी गई क्षमता का अन्यत्र उपयोग प्रभु को सहन नहीं ।। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- '' जाओ, सुग्रीव को समझाओ ।। यदि समझाने का प्रभाव न पड़ा, तो उसका भी वध उसी बाण से करूँगा, जिससे बालि का किया था ।। ''
सुग्रीव समय पर चेत गए । अपने निर्धारित कर्तव्य में पूरे मन से जुट पड़े । इसीलिए विनाश से बच गए और अक्षय यज्ञ के भागीदार बने ।
न अपनाने का दोष - स्वामी विवेकानंद से एक बार एक जापानी ने पूछा - '' भारत में गीता, रामायण, वेद, 'उपनिषद् का इतना दर्शन है;- फिर भी वहाँ के लोग पराधीन- और निर्धन क्यों है?'' इस पर स्वामीजी ने उत्तर दिया- ''बंदूक बहुत अच्छी होते हुए भी यदि कोई उसे चलाना न जाने, तो उसे सैनिक का श्रेय नहीं मिल सकता । इसी प्रकार भारत का दर्शन तो ऊँचा है, पर भारतीय उसे व्यवहार में लाना नहीं जानते । ''
नुक्ताचीनी का अंत नही - एक व्यक्ति पैर पसार कर सोने की तैयारी कर रहा था कि इतने में एक कर्मकांडी आ गया । उसने कहा- '' पूर्व को पैर मत करो । उधर जगन्नाथ जी है ।'' फिर उसने उत्तर को पैर किए । उसने कहा- '' उधर बद्रीनाथ हैं ।'' इसी प्रकार उसने पश्चिम पूर्व को पैर किए, तो द्वारिका और दक्षिण को पैर किए, तो रामेश्वरम् होने की बात कही । उसने ऊपर पैर किए, तो सूर्य- चंद्र का अपमान होना बताया । उस व्यक्ति ने झल्लाकर कहा- ''तब मुझे जमीन में गाड़ दो, ताकि शेषनाग निगल लें और आप जैसे सनकी लोगों से छुटकारा पाऊँ । ''
ज्योतिषी का अनर्थ - केरल के राजा सुधार्मिक की रानी के मूल नक्षत्र में एक बालक पैदा हुआ । ज्योतिषियों ने उसे धननाशक और कुटुम्ब के लिए विपत्तिकारक बताया । सभी ने उस ज्योतिषी की बात पर विश्वास कर लिया तथा उसे मार डालने अथवा घर से निकाल देने की योजना बनाई ।लड़के के प्राण किसी सेविका ने बचा लिए। बड़ा होने पर वह गुणवान, सुंदर और पराक्रमी बना । उसने अपने कौशल से कुंतल देश का सिंहासन प्राप्त कर लिया । ज्योतिषी द्वारा उत्पन्न किया गया अनर्थ मिथ्या सिद्ध हुआ ।
महुर्तों का जंजाल - आचार्य महीधर का मत हैं कि महुर्तों में सुविधा एवं अवसर ही प्रधान कारण है । जैसे वर्षा ऋतु आवागमन में असुविधाजनक होती है, इसलिए उन दिनों विवाह नहीं होते । किंतु जिन देशों में वर्षा के दिन अन्य महीनों में होते है, उन दिनों वहाँ कोई अड़चन नहीं ।
दिशाशूल, योगिनी, कलराज, चंद्रमा आदि का विचार करके यात्रा करना या रोकना उपहासास्पद है, यह भी शकुन विचार की तरह अंधविश्वास है ।
विवाहों में वर के लिए सूर्य, कन्या के लिए बृहस्पति और दोनों के लिए चंद्रमा देखकर मुहूर्त निकालना ऐसे ही अंधेरे में लट्ठ मारना है ।
वर- कन्या का मंगली होना । इतने गुण मिलना, न मिलना- यह ऐसी बातें हैं, जिनके लिए वर- कन्या का व्यक्तित्व देखा- परखा जाना चाहिए । न कि पंचांगों के सहारे किसी को दोषी , किसी को भाग्यहीन ठहराना। इस झंझट में कितने ही अच्छे विवाह संबंधों से हाथ धोना पड़ता है और अनावश्यक विलंब करना पड़ता है । इन मान्यताओं को विशुद्ध भ्रम जंजाल समझकर त्यागना ही बुद्धिसंगत है । मूल आदि नक्षत्रों को अशुभ मानकर पिता, भाई आदि के लिए अनिष्टकर मानकर जन्मे बच्चे के प्रति घृणाभाव रखना सर्वथा अनुचित हैं । ऋषि बालखिल्यों को उनके पिता ने इसी कारण पानी में बहा दिया था, पर बड़े होने पर वे सबके लिए मंगलमय और प्रतिभावान निकले ।
सभी दिन भगवान के- स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे कि सभी दिन भगवान के बनाए हुए हैं । इसी प्रकार सभी महीने, पक्ष, तिथि, नक्षत्र उसी के सृजे है । इनमें एक भी अपवित्र ''अशुभ एवं अनिष्टकारक नहीं है'' जिस दिन भी सधता हो, उपयुक्त अवसर हो, उसी दिन उसे कर लेना चाहिए । विवाह आदि किन्हीं बड़े कामों का मुहूर्त निकालना हो, तो कोई पर्व- त्यौहार उसके लिए चुनकर प्राचीन परंपराकी पूर्ति कर लेनी चाहिए । रविवार और गुरुवार भी अधिक श्रेष्ठ माने जाते रहे हैं ।मांगलिक कार्यों को गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर कभी भी कर लेना चाहिए। अनुपयुक्त कार्यों को ही तिथि वार का दोष निकाल कर आगे कभी के लिए टालते रहना चाहिए।
ज्योतिषी और किसान - राजा वसुसेन का ज्योतिष पर बड़ा विश्वास था। वे हर काम मुहूर्त से करते और हर समय अपने साथ एक ज्योतिषी सदा रखते । उन दिनों दोनों कहीं यात्रा पर जा रहे थे । रास्ते में एक किसान बीज बोने हल- बैल लेकर जा रहा था । ज्योतिषी ने कहा- ''मूर्ख ! आज इस दिशा में 'दिशाशूल' है । लौट जा नहीं तो हानि उठावेगा।'' किसान ने कहा- '' मैं तो रोज ही खेत पर जाता हूँ । दिशाशूल मेरा क्या करेगा?''
इस पर ज्योतिषी ने हस्तरेखा दिखाने के लिए कहा । किसान, ने हथेली नीचे करके हाथ दिखा दिया । ज्योतिषी ने सीधा हाथ करके दिखाने को कहा । किसान बोला- ''हाथ वह पसारे जिसे किसी से कुछ माँगना हो । मैं तो आप जैसे याचकों को देकर खाता हूँ ।'' ज्योतिषी और राजा अपना सा मुँह लेकर रह गए ।
संस्कृतेर्नैव दोषोऽस्ति, पाखण्डस्य तथैव च ।
अनौचित्यस्य दोषोऽयं यस्तां दूषयति स्वतः।। ३३ ।।
परिमार्जनमेतस्य भवेदेव निरन्तरम् ।
परिशोधनमप्यस्याऽवाञ्छनीयस्य कर्मणः ।। ३४ ।।
कालावश्यकतां वीक्ष्य निर्धारणविधिश्चलेत् ।
अन्यथा धर्मतामेति पाखण्डस्य परम्परा ।। ३५ ।।
दुराचारिण एतेऽत्र तदाश्रित्य च कुर्वते ।
भ्रान्तान् साधारणान् मर्त्यान् स्वार्थ संसाधयन्त्यपि ।। ३६ ।।
भावार्थ - यह दोष संस्कृति का नहीं उसमें किसी कारण घुस पड़ने वाले पाखंड अनौचित्य का है जो उसे दूषित कर दते हैं । इसका परिमार्जन निरंतर होते रहना चाहिए ।। प्रचलित अवांछनीयता का परिशोधन और सामयिक आवश्यकताओं के अनुरुप निर्धारण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहनी चाहिएअन्यथा पाखंड ही धर्म कहलाने लगेगा और उसकी आड़ में दुराचारियों को भ्रम फैलाने अनुचित स्वार्थ साधने का अवसर मिलता रहेगा ।
व्याख्या- पिछले उदाहरणों से स्पष्ट है कि श्रेष्ठ प्रवाह में भी विकार पैदा हो जाते हैं । उन विकारों की हानियों का दोष मूल आदर्शों पर नहीं लगाना चाहिए । किंतु उसके लिए आवश्यक है कि आदर्शों और विकारों को अलग अलग करके देखा जाय। जिन कारणों से विकार पैदा हुए, उनका निवारण किया जाय, शुद्ध आदर्शों को प्रगतिशील सन्दर्भों में प्रयुक्त किया जाय । यदि वह श्रम न किया गया, तो दोषों के साथ आदर्शों की आड़ में दोषों और दुराचारियों को प्रश्रय मिलता रहेगा ।
रास्ता तोड़े या नियम सीखें ? - देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं के बड़े समर्थक थे । उनके एक मित्र ने पूछा- "धर्म के नाम पर इतने विग्रह हुए हैं, आपको धर्म का खंडन करना चाहिए । पर आप तो समर्थन करते है।"
राजेन्द्र बाबू मुस्कराए, बोले- ‘‘एक व्यक्ति कुदाल लेकर सड़क खोदने लगा ।।पूछा तो बोला- इस पर ढेरों दुर्घटनाएँ होती है, इसे खोदकर दुर्घटनाओं की जड़ ही समाप्त किए देता हूँ । कहिए आप उस आदमी कोक्या कहेंगे?
मित्र बोले- '' मार्ग खोदने से तो चलना ही मुश्किल हो जाएगा । इससे अच्छा है कि लोगों को सड़क पर चलने के नियम सिखाए जाँय, ट्रैफिक अनुशासन कड़े किए जाँय ।''
देशरत्न बोले- '' बस भाई ! यही मेरा जवाब है । धर्म चेतना मनुष्य को सही अर्थों में प्रगतिशील बनाने के लिए रचा गया मार्ग है । चलने के नियम हमारे आचरण और अभ्यास हैं । उनमें भूल से दुर्घटनाएँ होती हैं ।
दोष संस्कृति को नहीं उनके आदर्शों के प्रयोग में होने वाली भूलों को देना चाहिए । रास्ता तोड़ने की बात न सोचें, ट्रैफिक नियम सिखाएँ यही उचित है ।''
विशेषज्ञता भली या बुरी?- मालवीय जी वर्गभेद के विराधी थे, पर वर्ण व्यवस्था के समर्थक । एक नेताजी ने उनसे कहा- ''जातिगत ऊँच-नीच का भाव वर्ण व्यवस्था से ही उपजा है । फिर वर्ण व्यवस्था का समर्थन आप क्यों करते हैं?''
नेताजी उस समय अस्पताल में भर्ती थे । मालवीय जी बोले- ''यह अच्छा अस्पताल है, क्योंकि इसमें हर विषय के विशेषज्ञ हैं । यदि यह विशेषज्ञ अपने कर्तव्य भूलकर, स्वयं को एक दूसरे से अधिक महत्व का सिद्ध करने में ही समय खराब करने लगें, तो क्या आप विशेषज्ञ बनाने वाले मेडिकल कॉलेज बंद करा देंगे?''
नेताजी सहम गए । समझ गए वर्ण व्यवस्था विशेषज्ञों की परिपाटी है । व्यक्तिगत अहंकार आपाधापी से यह बदनाम है । विशेषज्ञता पर नहीं आपाधापी पर प्रतिबंध लगाना चाहिए ।
भगवान् का अनुग्रह आदर्शवादी पर- पर्वतीय क्षेत्र की एक स्त्री जंगल में अकेली घास काट रही थी । एक दुष्ट सिपाही ने भ्रष्ट करने की दृष्टि से उसे पकड़ने की चेष्टा की । स्त्री ने भगवान का नाम लिया और पहाड़ से कूद पडी। उसे चोट नहीं आई । भगवान के नाम की महत्ता की सर्वत्र चर्चा होने लगी ।
एक दूसरी स्त्री के मन मे आया कि क्यों न वह भी ऐसा ही यश कमाए । उसने सारे गाँव को इकट्ठा किया और उसी प्रकार पहाड़ से कूदने का दृश्य दिखाने की घोषणा की । वह कूदी तो हाथ पैर टूट गए ।
भगवान को पक्षपात करने का दोष देने लगी । एक ज्ञानी ने बताया कि उस स्त्री का उद्देश्य शील की रक्षा करना था और तेरा यश लूटना । भगवान उद्देश्य को देखकर भक्ति परखते और सहायता करते है । केवल अहंकार छोड़ो और ईश्वर निष्ठा बनाए रखो ।
मूर्खों के बहुमत से धूर्त जीतते हैं- एक स्वल्प शिक्षित पंडित ने अनपढ़ गँवारों के गाँव में अपना सिक्का जमाया और इधर- उधर की बेसिलसिले की बातें कहते रहकर विद्वान बन गया । उन्हें कुछ नए बहाने बनाकर ठगता रहता।
एक बार संयोगवश एक विद्वान उधर से आ निकले । गाँव वालों ने उन्हें रोक लिया और कहा कि विद्वान तो सिर्फ एक ही है, सो हमारे गाँव में रहते है । यदि आप भी विद्वान है तो हमारे विद्वान से शास्त्रार्थ करना पड़ेगा, तब आगे बढ़ सकेंगे ।
विवश हो उन्हें बात माननी पड़ी । गाँव के अनपढ़ विद्वान ने पूछा बताइए काग को संस्कृत में क्या कहते हैं । उनने कहा- काक । उसे गलत ठहराते हुए गाँव के पंडित ने तुक बिठाई उसे कहते है ''त्रीकाक'' विद्वान ने हार मान ली और अपनी पगड़ी उन्हें सौंपनी पड़ी । पूरा गांव उनका समर्थक था ।जहाँ उचित निर्धारण की व्यवस्था नहीं है, वहाँ मूर्खों के बहुमत से धूर्तों की बन आती है ।
ज्योतिषी से छुटकारा- मगध का एक व्यापारी था कठ । वह ज्योतिषियों से घिरा रहता था और उनसे हर बात में परामर्श लेता था । कठ ने रहने के लिए एक भव्य भवन बनवाया । प्रवेश के लिए चलते समय छींक हुई । ज्योतिषी ने जाना रुकवा दिया और अनिष्ट होने की आशंका व्यक्त की ।
दूसरे दिन चला तो समीप ही कुत्ते ने मक्खियों के कारण कान फटफटा दिए । उस दिन दूसरे ज्योतिष ने अपशकुन बताया और जाने की तैयारी रुक गई ।
इसी प्रकार कभी चंद्रमा, कभी योगिनी, कभी दिशाशूल आगे पीछे होते रहे और समय टलता रहा । महीनों इसी प्रकार गुजर गए । सेठानी का प्रसव होने वाला था । पुराने घर में सुविधा न थी । वह साहसपूर्वक नए घर में बिना किसी पूछताछ के चली गई । पुत्र हुआ और अच्छा हर्षोल्लास मनाया गया। कारोबार भी पहले से अच्छा चलने लगा ।
ज्योतिषी उस बालक को भी अशुभ घड़ी में जन्मा कहकर घर में चिंता का वातावरण पैदा करना चाहते थे।
सेठानी ने सेठ को ज्योतिषियों के फेर से बचाया । तब वे चैन की नींद सो सके, अन्यथा ग्रह- नक्षत्रों के उलटे होने की चिंता में रात भर करवटें ही बदलते रहते थे ।
ग्रह- नक्षत्रों की प्रसन्नता-अप्रसन्नता - क्या पंडित लोग ग्रहों की पूजा-प्रार्थना करके उनकी प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सकते हैं? एक महिला जिज्ञासु के इस प्रश्न के उत्तर में रामकृष्ण परमहंस ने कहा- '' ग्रह- नक्षत्र इतने क्षुद्र नहीं है, जो किसी पर अकारण उलटे सीधे होते रहें और न उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता ऐसी है, जो छुटपुट कर्मकांडों से बदलती रहे ।
पंडितों के पास उनकी ऐजेंसी भी नहीं है कि उन्हें दक्षिणा देने पर ग्रहों से जैसा चाहे नाच नचाया जा सके । उन्होंने एक कथा सुनाई ।
ढाल अमोघ कि तलवार - प्राचीनकाल की बात है । एक लुहार भाले और ढालें बनाया करता था। बड़ी मजबूत ढालें वह बनाता था । वह कहता था- ''संसार का कोई भी भाला मेरी ढालों को नहीं भेद सकता ।'' भाले भी वह ऐसे ही मजबूत बनाता था । बड़ा गर्व था उसे अपने तेज भालों पर । कहता था- ''ऐसी कोई ढाल नहीं? जिसे मेरे भाले नहीं छेद सकते हों ।'' एक दिन एक आदमी आया और वह लुहार से पूछने लगा- ''आखिर तुम्हारे ही भालों से कोई तुम्हारी ढालों को छेदना चाहे तो क्या होगा?'' लुहार का सारा घमंड चूर चूर हो गया । उससे कोई उत्तर देते न बना ।
पंडितों के कथन, भी ऐसे ही है । कभी कहते हैं ग्रहों का प्रभाव अकाट्य है, कभी कहते हैं हमारे उपचार अमोघ हैं ।
ज्योतिषी द्वारा अड़ंगा - एक विवाह पक्का हो गया । एक दो दिन में बारात जाने की तैयारी थी । यह निर्धारण कुल ज्योतिषी से बिना पूछे कर लिया था, सो उसे बहुत बुरा लगा और उसने कुछ अडंगा लगाने की बात सोची । यह नक्षत्र खोटा है, इस समय विवाह न करें ।
तैयारियों रोक दी गईं । समाचार वधू गृह तक पहुँचे, तो वहाँ के समझदार लोग आए और बोले- '' ऐसी अच्छी कन्या का, कुलीन परिवार का, अच्छा मौसम होने, का लाभ अच्छे नक्षत्र का चिह्न नहीं है? यदि आप लोग इन्कार करेंगे तो कन्या को दूसरी जगह ब्याह दिया जाएगा । इतनी तैयारी को निरर्थक गँवाकर कन्या पक्ष अपना अपमान नहीं कराएगा । तब अब का अच्छा नक्षत्र आप लोगों के लिए फिर कभी इतनी उत्तमता के साथ लौटकर कभी न आएगा ।''
ज्योतिषी की उपेक्षा की गई और विवाह नियत समय पर हुआ । दोनों पक्ष संतुष्ट रहे और वर-कन्या का गृहस्थ जीवन सुखपूर्वक बीता । ज्योतिषी की बात मानते, तो सभी को पछताना पड़ता ।