प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-7

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
कस्मिन्नपि कुले जन्मग्रहणादेव नैव तु।
कश्चिद् भवति विप्रोऽत्र लोकोद्धारक उत्तम:।। ६८।। 
तदर्थं च सदाचारसिद्धतोक्ता भवन्त्यपि। 
वानप्रस्थादिगा विप्रा ब्रह्मकर्मयुता यदि ।।  ६९।।    

भावार्थ- मनुष्य किसी कुल विशेष में जन्म लेने मात्र से ही ब्राह्मण नहीं बनता। उसके लिए आचरण सिद्ध भी होना पड़ता है। ब्रह्मकर्मरत वानप्रस्थ एवं संन्यासी भी ब्राह्मण संज्ञा में आते हैं ।।६८- ६९।।  

व्याख्या- उच्च उद्देश्यों की पूर्ति एवं विशिष्ट सामाजिक उत्तरदायित्व वहन करने हेतु एक विशेष प्रकार की जीवन पद्धति अपनाने तथा अपने भीतर ब्राह्मणत्व के गुण पैदा करने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे जाते हैं। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण ही उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। ब्राह्मणत्व अर्थात् 'उत्कृष्टता' किसी वंश विशेष की बपौती नहीं। मानसकार ने स्पष्ट कहा कि- ''किसी वंश- जाति में जन्म लेने के कारण कोई नीच- ऊँच कैसे हो सकता है- 

उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि सुन विलगाहीं ।। 
सुधा सुरा सम साधु असाधू ।  जनक एक जल जलधि अगाधू ।।  

ब्राह्मण वंश में वशिष्ठ, अत्रि, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज आदि ऋषि- मुनि-तपस्वी त्यागी हुए हैं, तो रावण, कुंभकरण, मारीचि, खरदूषण जैसे दुष्ट राक्षास भी हुए हैं। अतः जाति- वंशगत उत्तराधिकार का दावा सर्वथा निरर्थक है। हर वर्ग में श्रेष्ठ व्यक्ति होते रहे हैं और अपने श्रेष्ठ 'कर्मों के कारण ब्राह्मण पद पाते रहे हैं। अगणित ऐसे ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जो ब्राह्मणेत्तर वर्णों में जन्मे, पर अपने कर्मों के अनुरूप उनने ब्रह्मर्षि तक का पद प्राप्त किया। इन प्रमाणों से भारतीय इतिहास- पुराणों का पन्ना- पन्ना भरा पड़ा है। मध्यकाल में रैदास, कबीर, नानक, दादू , नामदेव, विवेकानंद आदि ब्राह्यणेत्तर जातियों में, कितने ही तो शूद्र वर्ण में पैदा हुए , पर उनकी गरिमा किसी ब्राह्मण से कम नहीं आँकी गई। गाँधी, बुद्ध, महावीर भी तो ब्राह्मण नहीं थे। राम- कृष्ण क्षत्रिय थे। पर उनकी पूजा ब्राह्मण भी करते हैं। श्रेष्ठता को जातीयता की सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता। 

वरिष्ठता विनम्रता पर  निर्भर 

भगवान कृष्ण ने महाभारत के उपरांत हुए राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगंतुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गाँधी जी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किंतु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। राम, भरत में से दोनों ने राजतिलक की गेंद एक दूसरे की और लुढ़काने में कोर- कसर न रहने दी। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमंत्री का ठाठ- बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं, जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है। नहुष ने ऋषियों को पालकी में जोता और सर्प बनने का शाप ओढ़ने को विवश हुए। पेशवाओं के प्रधान न्यायाधीश राम शास्त्री की पत्नी जब राजमहल से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण के उपहार लेकर वापस लौटीं, तो उनने दरवाजा बंद कर लिया और कहा-'' ब्राह्मणों की पत्नी को अपरिग्रही आदर्श का पालन करना होगा, अन्यथा विनम्रता की बहुमूल्य संपदा हमारे हाथ से चली जाएगी ।'' 

सिख धर्म के छठवें गुरु अर्जुनदेव संगत के जूठे बर्तन माँजने का काम करते थे। गुरु पदवी के इच्छुकों में से सभी को अयोग्य ठहरा कर गुरु रामदास ने अपना उत्तराधिकारी अर्जुनदेव को इस आधार पर घोषित किया कि वे नम्रता, निस्पृहता और अनुशासनपालन में अग्रणी पाए गए। अध्यात्म क्षेत्र में वरिष्ठता, योग्यता के आधार पर नहीं, आत्मिक सद्गुणों की अग्नि परीक्षा में जाँची जाती है। इस गुण श्रृंखला में निरहंकारिता को, विनयशीलता को अति महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सरकारी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर पदोन्नति होती और नौकरी बढ़ती है। वही मापदण्ड यदि अध्यात्म क्षेत्र में भी अपनाया गया, तो फिर भावनाओं का कहीं भी कोई महत्त्व न रहेगा। महत्त्वाकांक्षी लोग ही इस क्षेत्र पर भी अपना आधिपत्य जमाने के लिए योग्यता की दुहाई देने लगेंगे, तब सदाशयता की कोई पूछ ही नहीं रहेगी। संन्यास लेते समय अपने अब तक के वंश, यश, पद, गौरव, इतिहास का विस्मरण करना होता है गुरु आश्रम एवं संप्रदाय का एक विनम्र सदस्य बनकर रहना पड़ता है सेवाधर्म भी एक प्रकार से हल्की संन्यास परंपरा है। उसमें भूतकाल में अर्जित योग्यताओं, वरिष्ठताओं को प्रायः पूरी तरह भुला कर मिशन की गरिमा के साथ जुड़े हुए एक स्वयंसेवी के हाथों में जितनी प्रतिष्ठा लगती है, उसी में संतोष करना होता है। अधिक वरिष्ठ व्यक्ति अधिक विनम्र होते हैं। फलों से डालियाँ लद जाने पर आम का वृक्ष धरती की ओर झुकने लगता है। अकड़ते तो पतझड़ के डंठल ही हैं। 

ब्राह्मण की शोभा आचरण की श्रेष्ठता में, निरहंकारिता में ही है। 

ब्राह्मण बनाम शूद्र- शास्त्र की दृष्टि में 

महाभारत अनु. पर्व अध्याय २२६/१४ में लिखा हैं-'' कोई मनुष्य कुल,जाति, कर्मकांड के करण ब्राह्मण नहीं होता। यदि चांडाल भी सदाचारी है, तो ब्राह्मण होता है। '' 
महाभारत के ही वनपर्व अध्याय २१६ में आता है-'' जो ब्राह्मण दुष्ट कर्म करता है, जो दंभी, पापी और अज्ञानी है, उसे शूद्र ही समझना चाहिए। '' 

भविष्य पुराण अध्याय ४४/३३ का कथन है-'' शूद्र यदि ज्ञान संपन्न है, तो ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है। आचारभ्रष्ट ब्राह्मण शूद्र से भी नीचा है। '' 

ब्राह्मण कौन? 

भगवान् बुद्ध अनाथपिंडक के जैतवन में ग्रामवासियों को उपदेश कर रहे थे। शिष्य, अनाथपिण्डक भी समीप बैठा धर्मचर्चा का लाभ ले रहा था। 

तभी सामने से महाकश्यप, मौद्गल्यायन, सारिपुत्र, चुंद और देवदत्त आदि आते हुए दिखाई दिए उन्हें देखते ही बुद्ध ने कहा-'' वत्स ! उठो, यह ब्राह्मण मंडली आ रही है, इसके लिए योग्य आसन का प्रबंध करो। '' 

अनाथपिण्डक ने आयुष्मानों की ओर दृष्टि दौड़ाई फिर आश्चर्य से कहा-'' भगवन् !  आप संभवतः इन्हें जानते नहीं। ब्राह्मण तो इनमें कोई एक ही है, शेष कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य और कोई अस्पृश्य भी हैं। '' 

गौतम बुद्ध अनाथपिण्डक के वचन सुनकर हँसे और बोले-'' तात ! जाति जन्म से नहीं, गुण, कर्म और स्वभाव से पहचानी जाती है। श्रेष्ठ, रागरहित, धर्मपरायण, संयमी और सेवाभावी होने के कारण ही इन्हें मैंने '' ब्राह्मण '' कहा है। ऐसे पुरुष को तू निश्चय ही ब्राह्मण मान, जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं।" 

सेवा- पांडित्य से बढ़कर

बापू के सेवाग्राम में दिन विद्वज्जन आए उन्होंने अपनी विद्वत्ता के बारे में गांधी जी को बताया व बाद में उन्होंने गांधी जी से कहा कि उन्हें उनके लिए कोई उपयुक्त काम बताया जाय। बापू ने उनसे कहा यदि वास्तव में उनके पास समय है और वे सेवा करना चाहते हैं, तो आश्रम के प्रांगण में झाडू लगावें अथवा गेंहूँ पीस दें। अपने को प्रकांड विद्वान समझने वाले उन सज्जन के अहं को चोट तो लगी, पर बापू ने उनके जीवन की विचारधारा बदल दी, कि सेवा कार्य हेतु किसी पांडित्य की नहीं, समर्पण की आवश्यकता रहती है। 

मुझे गिरने दो 

जब राजा ययाति अपने मुख से अपनी तपस्या की प्रशंसा और अन्य तपस्वियों का तिरस्कार करने के कारण पुण्यक्षीण हो सिद्धों के लोक से नीचे गिरने लगे तो राजा अष्टक ने उन्हें गिरते देख कहा-'' महाराज ! समस्त देवताओं को साक्षी बना मैं अपना समस्त पुण्य आपको अर्पित करता हूँ, आपका पतन न हो। '' ययाति मुस्कराए और कहने लगे-'' नर श्रेष्ठ ! दान केवल वेदवेत्ता ब्राह्मण या दीन ही ले सकते हैं। मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न दीन। इसलिए, हे पुण्यशील अष्टक ! मुझे नीचे गिरने दो। '' 
इसी समय पास खड़े राजा प्रवर्दन ने भी ययाति को अपना पुण्य भेंट करना चाहा।  ययाति के फिर अस्वीकार करने पर राजा वसुमान ने आगे बढ़कर कहा-'' सज्जनो ! ययाति दान ग्रहण नहीं करते, आप वृथा कष्ट न करें। '' फिर ययाति की ओर मुड़कर बोले-'' महाराज ! आप एक मुट्ठी तृण मेरे लिए इकट्ठा कर दें।  मैं मूल्य रूप में अपना समस्त पुण्य देता हूँ, आप का पतन न हो। '' 

ययाति हँसे और बोले-'' पुण्यशील वसुमान ! उचित मूल्य से कम में किसी वस्तु को लेना भी एक प्रकार का दान लेना है।मैं न तो ब्राह्मण हूँ और न दीन, अतः मुझे नीचे गिरने दो ।  मैंने जो कर्म किए हैं, उनका फल मुझे पाने दो, क्योंकि यही विधाता की नीति है पुण्य देता हूँ, आप का पतन न हो । '' 

दासी पुत्री ब्राह्मण का तेज

विदुर जी ने धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयास किया कि पुत्र मोह में पड़कर विवेकहीन मत बनो, अनीति मत अपनाओ।दुर्योधन को पता लगा कि चाचा विदुर पिताजी को मेरे विरुद्ध सलाह दे रहे हैं । उसने उन्हें दरबार में बुलाया और अपमानित किया । कहा-'' तुम दासी पुत्र हो  मेरा ही अन्न खाकर मेरी ही निंदा करते हो । '' 

विदुर जी जरा भी विचलित न हुए  कहा-'' बेटा ! मैं क्या हूँ, यह तुमसे अधिक अच्छी तरह समझता हूँ । वन के शाक- पात मैं १२ वर्ष से खा रहा हूँ, तुम्हारा अन्न नहीं । तुम्हारे पिताजी, मेरे बड़े भाई मुझे बुलाकर मेरा मत माँगें, तो मुझे जो उचित लगा अपने अनुभव के आधार पर सलाह दी ।तुम्हें नहीं रुचता तो पिता कोसलाह दे सकते हो कि मुझे परामर्श के लिए न बुलाया करें । '' 

विदुर जी अपने तप- तेज से दुर्योधन का अनिष्ट भी कर सकते थे । पर वे न उत्तेजित हुए, न विचलित । 

उनकी इस अद्भुत सहनशक्ति, संतुलन क्षमता की चर्चा करते हुए सूत जी कहते हैं-'' जिसने लंबे समय शरीर को सात्विक पदार्थों तथा अंतः करण को सात्विक विचारों का आहार दिया है, ऐसे तपस्वी में ही ब्राह्मणत्व का तेज विकसित होता है । '' 

शुकदेव ही क्यों ?

आचरण के अनुरूप ही ब्राह्मणत्व निर्धारित होता है। 

राजा परीक्षित को शापवश एक सप्ताह में सर्प दंश से मरना था । उनने बचे समय का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने में बुद्धिमत्ता समझी । विचार क्षेत्र में आदर्श भर लेने की दृष्टि से पुराण कथा सुनने की व्यवस्था बनाई गई । 

कथा वाचक व्यास जी ने ही इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए, उनने अपने पुत्र शुकदेव जी को आमंत्रित करने का परामर्श दिया । व्यास के चरित्र में नियोग जैसे कई लांछन थे, पर शुकदेव का चरित्र सर्वथा निर्मल था । वाणी का कथन मात्र से ही उपदेश का प्रयोजन नहीं सधता । धर्मोपदेशक का चरित्र- व्यक्तित्व भी पवित्र होना चाहिए । 

यहाँ दुर्भिक्ष को कोई स्थान नहीं 

अभाव और कष्ट वहीं रहते हैं, जहाँ अनीति, निष्ठुरता व्यास होती है । 

एक देश में दुर्भिक्ष पडा़ । देव धर्मराज ने देवदूतों को पता लगाने के लिए भेजा, कि उस देश में अभी धर्मात्माओं का अस्तित्व है या नहीं ? देवदूत खोज कर वापस लौटे, तो उनने अपने अनुभव सुनाए। एक बोला- '' मैंने एक ऐसे व्यक्ति को देखा, जिसने बुभुक्षितों के लिए अपनी सारी विलास की सामग्री समाप्त कर दी ।'' दूसरे ने कहा-'' मैंने एक ऐसे व्यक्ति को देखा, जिसने अपना खेत-घर बेचकर भूखों की सहायता की ।'' तीसरे ने बताया कि '' एक व्यक्ति सात दिन का भूखा था ।किसी दयालु की कृपा से थोड़ा खाने को मिला, उसने समीप ही अपरिचित कुत्ते को भूख से प्राण त्यागते देखा, तो अपना भोजन उसे दे दिया और स्वयं भूखा मर गया ।'' 

धर्मराज ने कहा- '' जहाँ ऐसे एक- एक नरपुंगव रहते हों, वहाँ दुर्भिक्ष को अधिक समय नहीं रहना चाहिए ।'' उसे बुला लिया गया और वर्षा होने पर धन- धान्य से वह समूचा क्षेत्र भर गया ।

उपदेश ही नहीं,धारणा भी

इटली के एक छोटे से गाँव में जन्मे ऐविले आरंभिक, जीवन में ही पादरी बना दिए गए ।पर उन्होंने आँख खोलकर देखा कि पादरियों द्वारा कितना भ्रम- जंजाल फैलाया जा रहा है और लूट- खसोट के लिए विचित्र आडंबर किया गया है । उनने अपने समुदाय को इसके लिए लताड़ा और जनता को सावधान किया ।जिनके स्वार्थों को चोट पहुँची, वे उनके विरोधी बन गए, पर इसकी उनने तनिक भी परवाह न की।

ऐविले ने अनुभव किया, कि मात्र धर्मोपदेश या कर्मकाण्ड पूरे कर लेने में ही धर्म- धारणा का उद्देश्य पूरा नहीं होता । धर्मजीवियों को देश की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में भी जुटना चाहिए ।उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा ।एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की, जिसके माध्यम से प्रत्येक  धर्मप्रेमी को इस तत्त्वज्ञान की वास्तविकता का पता चल सके । समाज सुधार से लेकर राजनैतिक गुत्थियों के समाधान के लिए उनने बहुत कुछ किया । विग्रह और संधि के जितने अवसर पड़ोसी देशों के साथ आए, उन्हें सुलझाने में उन्होंने भरपूर सहायता की । उन्हें इटली में आदर्श पादरी माना जाता है और शरीर न रहने पर भी एक सत्यनिष्ठ दूरदर्शी के रूप में भरपूर सम्मान दिया जाता है। 

संत का संतोष 

संत जेनगुन सुनसान में झोपड़ी बनाकर रहते थे । एक दिन कोई चोर आया और माल असबाब तलाशता रहा । 

वहाँ कुछ था नहीं, सो चोर निराश होकर लौटने लगा । संत को दया आई । कितना जरूरतमंद, कितना हिम्मतवाला, फिर भी खाली हाथ लौटना पड़ रहा बेचारे को । 

संत जग रहे थे । चोर की हलचल पड़े- पड़े ही देखते रहे । चलने लगा, तो आवाज देकर रोको और कहा- '' खाली हाथ मत जाओ । मेरे पहनने के कपड़े लेते जाओ, काम आएँगे । '' 

चोर ने कपड़े ले लिए और सकुचाता हुआ चला गया । 

जेनगुन बहुत प्रसन्न थे। नंगे बदन रात की खिली हुई चाँदनी में जा बैठे ।पूरा चंद्रमा बहुत सुंदर लगा ।मन ही मन सोचने लगे-'' कैसा अच्छा होता, यह सुंदर चाँद मैं उस चोर को दे सका होता।'' 
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118