सूर्य आये दिन ढलता और अस्त होता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि अगले प्रभात वह स्वर्णिम किरणें बिखेरता हुआ द्रुतगति से उदय होते हुए न दीख पड़ेगा। चन्द्रमा की कलाएँ कटती देखी जा सकती हैं पर इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि शुल्क-पक्ष आते ही वह क्रमशः बढ़ता जाता है और पूर्णिमा के दिन पूर्ण होकर रहता है। समुद्र का जल नीचे उतरता तो है, पर यथा समय उसमें उफनते ज्वार भी आते रहते हैं।
पतझड़ में पत्ते ठूंठ रह जाते हैं, पर बसन्त आते ही उन्हें फूलों और फलों से लदा देखा जा सकता है। ग्रीष्म की तिलमिला देने वाली गर्मी-दुपहरी तभी तक चिलचिलाती है जब तक कि सावन की मेघमाला की घटाटोप बरसने में देरी रहती है। समय बदलते ही सूखी धरती हरितिमा की मखमली चादर ओढ़ कर मुस्कराती है।
जराजीर्ण काया बहुत दिनों तक कराहती नहीं रहती। नियति उसकी स्थिति को बदलती है और शैशव के नये अलंकारों से अलंकृत करती है। शरीर से बहुत कुछ हर दिन बाहर निकलता रहता है, पर यह भी स्पष्ट है कि उसकी पूर्ति नये अनुदानों से होती है व प्रकृति उस घाटे की पूरी तरह भरपाई करती रहती है। निराशा की घड़ियाँ आती तो हैं पर आशा का अभिनव उल्लास उसे खदेड़ कर रहता है। अवगति सामयिक और प्रगति शाश्वत है।
पिछले दिनों बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ है जिसे अनर्थ कह सकते हैं। विपन्नता के बहुत अंश अभी भी मौजूद हैं। इतने पर भी जिन्हें नियतिचक्र पर विश्वास है, उन्हें यह आशा करनी ही चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य का उदय हुए बिना रह नहीं सकता। इक्कीसवीं सदी ऐसे ही सुखद परिवर्तनों को साथ लेकर आ पहुँचे तो उसे सृष्टिचक्र की सुनिश्चित एवं सुखद संभावना ही समझना चाहिए।