विपन्नता के बीच एकान्त साधना

May 1989

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एकान्त यों अकेलेपन को कहा जाता है, जहाँ दूसरों का आवागमन न हो। कोलाहल कानों में न पहुँचें, आवागमन की उछल फुदक जहाँ विक्षेप उत्पन्न न करें, वहाँ एकान्त समझा जाता है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। चित्त को बढ़ाने वाली समस्याएँ, जहाँ विक्षेप उत्पन्न करें, उस मनः स्थिति एवं परिस्थिति को भी एकान्त की संज्ञा दी जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। लगाव ही दूसरों के साथ अपने संपर्क जोड़ता है। जिनके साथ परिचय, सम्बन्ध, सहयोग, विरोध न हो, वे अपने स्थान पर बने रहें, अपनी हलचलें करते रहें तो भी उस स्थिति को एकान्त कहा जा सकता है। भीड़-भाड़ और मेले ठेले में अनेकों का आवागमन रहता है पर वह दृश्य मनोरंजन के अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं होता, जो मन को अपने साथ बाँधे या विक्षेप उत्पन्न करे। ऐसी दशा में उस रिक्तता के कारण एकान्त जैसी स्थिति बन जाती है। विघ्न तब पड़ता है। जब हलचलों में, व्यक्तियों तथा वस्तुओं में रस आने लगे या उनके कारण विक्षेप उत्पन्न हो।

इस दृष्टि से कारागार को भी एकान्त की स्थिति कहा जाता है। यो वहाँ भी अनेक कर्मचारी या बन्दी अपना अपना कम करते रहते हैं। पक्षी उड़ते-चहकते हरते हैं पर उनके साथ सीधा लगाव न होने के कारण मनःस्थिति एकान्त जैसी ही बनी रहती है। उस स्थिति में रहते चिन्तन-मनन में भी बाधा नहीं पड़ती और आत्म विश्लेषण, अन्तःकरण निरीक्षण में भी कोई बाधा नहीं पड़ती। परिस्थिति जन्य एकान्त वह है जहाँ सर्वथा एकाकी रहना पड़ें। मनःस्थिति जन्य एकान्त वह है। जिसमें व्यक्तियों के इर्द-’गिर्द रहते हुए भी उनसे लगाव हटा लिया जाय या हट जाय।

एकान्त में भजन भी ठीक बनता है और मनन-चिन्तन भी। स्वाध्याय और लेख भी इन परिस्थितियों में ठीक तरह संभव हो जाता है। यों सर्वथा एकान्त तो समाधि स्थिति में ही भले बन पड़े अन्यथा शारीरिक आवश्यकताएँ और मानसिक स्मृतियाँ भी किसी न किसी प्रकार के विक्षेप उत्पन्न करती रहतीं है, वैज्ञानिक शोध एवं आध्यात्मिक अवगाहन जैसे कार्यों में विक्षेप डालती है। सरल यही है कि प्रत्यक्ष और स्मृति जन्य लगाव अन्यत्र बिखरने न दिया जाय। इतने से भी वह काम चल जाता है जो एकान्त माँगता हैं। स्वाध्याय एवं साहित्य सृजन भी वैज्ञानिक शेष अथवा अनुसंधान स्तर के ही काम है। इसके लिए मन को अनिवार्य रूप से साधना पड़ता है।

उदाहरण के लिए उन मनस्वी लोगों की महान कृतियों को लिया जा सकता है जो उन्होंने जेलखानों में ही लिखीं और वैसी सुन्दर बन पड़ी जैसी सुविधा साधनों से घिरे रहने पर कदाचित ही बन पड़ती है।

लोकमान्य तिलक ने अपना महान गीत रहस्य ग्रन्थ माँडले जेल में ही लिखा था। वहाँ उन्हें अनेकों असुविधाएँ थीं। नौकर ऐसा दिया गया जो उनकी भाषा नहीं समझता था और न तिलक ही उसकी भाषा समझते थे। गूंगे-बहरे की तरह इशारों से काम चलाते थे। गीता रहस्य में अनेक ग्रन्थों के संदर्भ बार-बार लेने पड़ते थे, पर उनकी निजी पुस्तकों में से भी उन्हें चार ही एक बार में मिलती थीं। लिखने के लिए कागज सीमित दिये जाते थे और कलम के स्थान पर पेन्सिल। उसी से बारीक अक्षर लिखकर किसी प्रकार काम चलाया और नियमित दिनचर्या एवं मानसिक संतुलन के सहारे वह कार्य पूरा किया।

विनोबा की प्रसिद्ध पुस्तक गीत प्रवचन धूलिया जेल में ही लिखी गई थी। विद्वान कुमारप्पा का प्रसिद्ध ग्रन्थ “इकोनोमिक्स आफ परमानेन्स” जेल जीवन में ही लिखा गया था। गाँधी जी ने “मंगल प्रभात” और “आश्रमवासियों से “पुस्तकें जेल जीवन में ही लिखी थीं। यों उनको ध्यान बँटाने के लिए कई साथी भी वहाँ रह रहे थे, पर गाँधी जी ने अपने को इतना नियमित और संयमित कर लिया कि प्रार्थना की तरह इस लेखन प्रक्रिया में भी कोई बाधा नहीं पड़ी।

इस दिखा में पं0 जवाहर लाल नेहरू ने भी असाधारण कार्य किया। उनने नैनी जेल में “विश्व इतिहास की झलक”, “डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” लिखनी शुरू कीं, जो देहरादून जेल में जाकर समाप्त हुई। “पिता के पत्र -पुत्री के नाम” जिनने पढ़े हैं वे जानते हैं कि उनमें अस्त व्यस्तता या ऐसी विसंगति कहीं नहीं है जो ऐसे वातावरण में स्वभावतः होनी चाहिए।

बहादुर शाह जफर जानते थे कि जेल जीवन के उपरान्त मरण ही उनके लिए एक मात्र विकल्प है तो भी उनने उन दिनों की भावभरी कविताएँ लिखने में अपना समय बिताया।

पं0 द्वारिका प्रसाद मिश्र ने जेल में ही अपना “कृश्णायन” काव्य पूरा किया। सुब्रह्मण्य भारती, माखन लाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा, ‘नवीन’, भारती प्रसाद मिश्र आदि की जेल जीवन में लिखी कृतियाँ ऐसी ही हैं।

सेठ गोविन्द दास का उपन्यास “इन्दुमती” जेल में ही लिखा गया। श्री जैनेन्द्र कुमार जैन ने भी बहुत कुछ जेल में लिखा। क्रान्तिकारियों में से श्री यशपाल और मन्मथ नाथ गुप्त की कृतियाँ जेल जीवन की कठिनाइयों के बीच भी असाधारण ही बन पड़ी हैं। गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” की जेल जीवन में लिखी गई कहानियाँ पाठनीय हैं।

राजगोपालार्य और एम0एन॰ राय, बाबू राजेन्द्र कुमार की डायरियाँ बतातीं है कि जेल जीवन में भी मानसिक संतुलन कितना सही और सुव्यवस्थित रखा जा सकता है। बाबू सम्पूर्णानन्द की “दर्शन और जीवन”, चिद् विलास”, “आर्यों का आदि देश” “वेद मंत्रों के प्रकाश में” आदि पुस्तकें जेल जीवन में ही लिखी गयी। जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, मौलाना आजाद, रामवृक्ष बेनीपुरी, वीरेन्द्र कुमार घोष, कमलापति त्रिपाठी, सज्जद जहीर, प्रिंसिपल छबीलदास आदि की कृतियाँ भी अविस्मरणीय हैं। इस संदर्भ में गाँधी की आरोग्य की कुँजी, बालपोथी, गीताबोध, गीता प्रवेशिका, अनासक्ति योग को भी नहीं भुलाया जा सकता। यह भारत के हिन्दी भाषी लेखकों का ही कुछ उल्लेख हैं। दक्षिण भारत के विद्वान भी इस दिशा में पीछे नहीं रहे हैं।

साम्यवादी साहित्य में विश्व के बहुत कम सौभाग्यशाली लेखक ऐसे हैं जिनने लेख की तरह किसी सुव्यवस्थित कमरे में बैठकर इस विषय की पुस्तकें लिखी हों। वे जेल के सीखचों, तथा गुप्तवास के ऐसे दिनों में लिखी गई है। जिन दिनों कि उनके ठहरने, सोने और खाने का भी कोई प्रबंध नहीं था।

हिमालय में एकान्त साधना करने वाले अध्यात्म विज्ञानी भी उस अवधि में महत्वपूर्ण अनुसंधान करते रहें है। मध्यकालीन सन्तों को सदा प्रचार-प्रव्रज्या में ही संलग्न रहना पड़ता था। उन्होंने अपने गीत और भजन उसी भाग-दौड़ की स्थिति में रचे हैं।

एकान्त सन्तुलन बनाता है या बिगाड़ता है? इस प्रश्न के उत्तर में इतना ही कहा जा सता है कि परिस्थितियाँ मनुष्य को सभी अस्त व्यस्त करती हैं, जब वह आत्म-संतुलन स्थिर न रखे अथवा अनेक लोगों से घिरा हुआ हो। समस्याओं में उलझा हुआ व्यक्ति भी अपने को एकाग्र किये रह सकता है और उस व्यस्त एकाग्रता के बीच भी महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है।


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