वह परमसत्ता एक ही है

May 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साधना विधान में देव-उपासना का महत्वपूर्ण स्थान हैं अध्यात्म शासकों में जहाँ आत्म चिन्तन, ब्रह्मध्यान, मनोनिग्रह, विवेक, वैराग्य आदि का विस्तृत विवेचन हुआ हैं वहाँ अनेक देवताओं की उपासना के भी विधि-विधानों एवं महत्वों की चर्चा हुई है। कई उपनिषद् देवताओं के नाम पर ही हैं। उसमें प्रतिपादित देवता के गुण, धर्म एवं उपासना के प्रतिफल विस्तारपूर्वक बताये गये है। उच्च मनोभूमि के साधक वेदान्त की अद्वैत साधना में संलग्न रहें एवं उससे कुछ नीची श्रेणी के साधक देव-उपासना द्वारा अभीष्ट काम्य-प्रयोजनों की भी पूर्ति करते रहें। क्रमशः आगे अध्यात्म मार्ग पर चलते हुए ब्रह्म प्राप्ति के परम श्रेयस्कर लक्ष्य की ओर अभिमुख हो जायँ, ऐसा अभिमत ऋषियों का रहा है।

वस्तुतः देव उपासना परमात्मा के एक रूप विशेष की ही पूजा है। उसके विभिन्न गुणों शक्तियों का प्रतिनिधित्व देवगण करते हैं अन्यथा तो इस सृष्टि का उत्पादक, पोषक, संहारक, कर्ता-हर्ता एक परमात्मा ही है। उसे ही अनेक नामों से पुकारते हैं।

सृष्टि में अनेकों प्रक्रियायें चलती हैं। उनकी संचालक शक्तियाँ भी अनेक हैं। यद्यपि वे सभी परब्रह्म की ही शक्तियाँ हैं, पर उनकी गतिविधियों की पृथकता के अनुरूप उनके नामकरण अलग-अलग किये गये हैं। सूर्य एक ही है पर उसकी अनेक किरणें अपने गुण धर्म की पृथकता के कारण अल्ट्रावायलेट, इन्फ्रारेड एक्सरेज आदि अनेक नामों से पुकारी जाती हैं। मनुष्य शरीर एक ही है पर उसके विभिन्न अंगों का उपयोग और स्वरूप भिन्न भिन्न होने के कारण उन अंगों के नाम भी भिन्न-भिन्न हैं। शरीर को जो कार्य करना होता है। वह अपने तदनुकूल अंग से ही उसे पूरा करता है।

ईश्वर के विराट् स्वरूप के अंग-प्रत्यंगों को, उसकी क्रियाकलापों को देवता नाम से पुकारते है। यह देवता अपने-अपने कार्य क्षेत्र में उसी प्रकार संलग्न रहते हैं जिस प्रकार किसी सरकार के अनेक मंत्री एवं अफसर अपने-अपने विभाग को संभालते हुए राजतंत्र का संचालन करते हैं।

देवताओं की सत्ता पृथक से दृष्टिगोचर होते हुए भी वे वस्तुतः एक ही विराट् ब्रह्म के अवयव मात्र हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व भासता तो है पर है नहीं। लहरें और बबूले जल के ही अंग हैं। विविध देवताओं के जहाँ भिन्न-भिन्न स्वरूप और गुण-धम्र शास्त्रकारों ने वर्णन किये हैं वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वे सब वस्तुतः एक ही परमात्मा के अंग-प्रत्यंग मात्र है। ऋग्वेद (6/3/22/46) में कहा गया हैं- “एकं सद् प्रा बहुथा वदन्ति” अर्थात् उस एक ही परमात्मा को विद्वान लोग अनेक नामों से वर्णन करते हैं। एक सन्त बहुधा कल्पयन्ति” अर्थात् उस एक की ही अनेक रूपों में कल्पना की गई है। विष्णुपुराण 1/2/66/ के अनुसार-”यह एक ही भगवान सृष्टि का उत्पादन, पालन और संहार करता हैं उसी के ब्रह्मा, विष्णु महेश नाम हैं। बृहन्नारदीय पुराण (1/2/5) में भी कहा गया है- “उस अनादि-अजर परमात्मा को कोई शिव कोई विष्णु कोई ब्रह्मा कहते हैं। यजुर्वेद (32/1) के अनुसार यह परमात्मा ही अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र,ब्रह्म और वरुण हैं।” ऐतरेय उपनिषद् (1/1/1) में “आत्मा के इदमेक एवाग्र आसीत्”- ‘यह आत्मा एक ही था’ का प्रतिपादन हुआ है तो छान्दोग्य 6/21 में कहा गया है कि- ‘वह एक ही है, दो नहीं-”एकमेवा”द्वितीयम्” या “एको विश्वस्य भुवनस्य राजा”।

शिव पुराण के अनुसार ‘वह एक ही महाशक्ति है। उसी से यह सारा विश्व आच्छादित हैं “एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयों अस्ति कश्चन” अर्थात् तब सृष्टि के आदि में अकेला रुद्र ही था और कोई नहीं। इसी में आगे 2/1/1/27 में कहा है- सृष्टि के उत्पादन, पालन तथा संहार के गुणों के कारण मेरे ही ब्रह्मा, विष्णु शिव यह तीन भेद हुए हैं। वस्तुतः मेरा स्वरूप सदा भेद रहित है।” शिवपुराण में ही वर्णन है कि जो ब्रह्मा है, वही हरि है, जा हरि हैं वे ही महेश्वर हैं। जो काली हैं, वही कृष्ण हैं। जो कृष्ण हैं वही काली हैं। देव और देवी को लक्ष्य करके कभी मन में भेद भाव उत्पन्न होने देना उचित नहीं है। देवता के चाहे जितने नाम और रूप हों, सभी एक हैं। यह जगत् शिव शक्तिमय है।”

विभिन्न देवताओं की अलग-अलग उपासना का तात्पर्य परमात्मा की उस शक्ति से सम्बन्ध स्थापिताकरण है जो साधक के अभीष्ट प्रयोजन से सम्बन्धित है। जैसे समस्त प्रजा एक ही राजा के राज्य में रहती है तो भी उसे अलग-अलग प्रयोजनों के लिए अलग-अलग विभागों के कर्मचारियों के पास जाना पड़ता है। देव उपासना का भी यही प्रयोजन है। साधक अपनी आवश्यकता और आकाँक्षा के अनुरूप उनमें से समय-समय पर इन देवताओं का अंचल पकड़ता है और छोड़ता रहता है।

किस देवता की आराधना किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार करनी चाहिए, इसका वर्णन साधना शास्त्रों में विस्तारपूर्वक किया गया है। श्रीमद्भागवत 2/3/29 में कहा गया है- ब्रह्मतेज की इच्छा वाले को ब्रह्मा की, इन्द्रियभोगों के लिए इन्द्र की, सन्तान के लिए प्रजापति की, सौभाग्य के लिए दुर्गा की, तेज के लिए अग्नि की, धन के लिए वस्तुओं की, वीर्य के लिए रुद्र की एवं अन्न के लिए आदित्यों की, राज्य के लिए विश्वेदेवता की, लोक-प्रियता के लिए साध्यगण की, दीर्घायु के लिए अश्विनी कुमारों की, पुष्टि के लिए वसुन्धरा की, प्रतिष्ठा के लिए अन्तरा देवता की आराधना करनी चाहिए। यश के लिए यज्ञ की, विद्या के लिए शंकर की, दाम्पत्य के लिए गौरी की, रक्षा के लिए यज्ञों की, भोगों के लिए चन्द्रमा आदि देवताओं की उपासना करने से अभीष्ट की पूर्ति होती हैं। परन्तु जिसे कोई इच्छा न हो अथवा मोक्ष का आकाँक्षी साधक परमात्मा की उपासना करें।

धर्म शास्त्रों में यह देव शक्तियाँ विभिन्न आकृतियाँ, आयुध, वाहन आदि का भी स्वरूप दिखाया गया है पर वस्तुतः इन सबका आधार ध्यान योग का विज्ञान है। किस प्रकार से ध्यान करने पर कौन सी देव शक्ति को साधक अपनी धारणा में अवतरित कर सकता है, इस गूढ़ रहस्य को बहुत कम ही लोग जानते हैं। इस सूक्ष्म विज्ञान के ज्ञाता बहुत खोज करने पर ही प्राप्त हो सकते हैं। इसीलिए गुरु के रूप में मार्गदर्शक ढूंढ़कर उनके माध्यम से ही उपासना- क्रम चलाने का निर्देश शास्त्रकार देते हैं।

देव उपासना में जहाँ विधि विधान और कर्मकाण्डों का महत्व है वहाँ श्रद्धा और विश्वास की सुदृढ़ भावना का होना भी आवश्यक है। उथली श्रद्धा के साथ केवल कौतुक, कौतूहल समझकर, मन्त्र या देवता की परीक्षा के लिए कुछ आधी अधूरी साधना कर लेने से वमुचित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता। उसके लिए गहरी श्रद्धा और पूर्ण विश्वास का होना अपरिहार्य है। इस श्रद्धा विश्वास को ही “अमृत” कहते हैं। इसी को पीकर देवता तृप्त होते और प्रसन्न होते हैं। परमसत्ता को इसी कारण “रसौ वै सः” कहकर संबोधित किया गया है व कहा गया है कि उसके प्रति समर्पण होने पर आदर्शों के समुच्चय को देव प्रतीक मानते पर जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वह वर्णनातीत है उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मार्ग को भी चुना हो, लक्ष्य स्पष्ट एवं श्रेष्ठ होने चाहिए। इस प्रकार की गयी उपासना व उसके प्रति किया गया समर्पण साधक के जीवन व कायाकल्प कर देता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118