कार्तिक अमावस्या को घनघोर अंधेरी रात थी। प्रकाश की आवश्यकता कहीं से भी पूरी नहीं हो रही थी। सूर्य थक कर सो गया था। चन्द्रमा को छुट्टी के दिन काम करने में उत्साह न था।
कोई हल निकलते न दीख कर छोटे दीपकों ने निश्चय किया कि हमीं सारी रात जलेंगे और प्रकाश की आवश्यकता पूरी करेंगे।
दीपावली हर वर्ष उसी घटना का स्मरण दिलाने आती है। कहती है छोटे मिल जुल कर बड़ा काम कर सकते है।
आद्य शंकराचार्य की माता अपने मेधावी बालक को सुसंपन्न ग्रहस्थ बनाना चाहती थी। पर बालक के मनोभाव कुछ दूसरे ही थे। वे संन्यास लेकर धर्म प्रचार में प्रवृत्त होना चाहते थे। माँ बेटे के बीच इसी प्रसंग को लेकर खींच -तान चलती रहित थी। दोनों के बीच भारी मत भेद था।
माता के दबाव का हल एक विचित्र रीति से निकला। शंकराचार्य नदी में स्नान कर रहे थे। माता किनारे पर बैठी थी। यकायक बच्चे की चीख निकली। मगर ने पैर पकड़ लिया और वह पानी में घसीटे लिये जा रहा था।
माता असहाय थी कुछ कर नहीं पा रही थी। उसने अपने उपास्य शिव को पुकारा। बचाने की प्रार्थना की, साथ ही मनौती मनाई कि बच्चा मगर से छूट जाये तो उसे परमार्थ के लिए ही अर्पित कर देंगी।
वैसा ही हुआ जैसा कि चाहा गया था। मगर की पकड़ से शंकराचार्य छूट गये। सोलह वर्ष की आयु में ही उनने आवश्यक विद्या प्राप्त कर ली। संन्यास लेकर धर्म प्रचार के लिए विस्तृत परिभ्रमण पर निकले। उनके द्वारा धर्म और संस्कृति की महती सेवा सम्पन्न हुई जो गृहस्थ की अनेकानेक समस्याओं को सुलझाते हुए संभव न थी।