परमसत्ता से संपर्क-सान्निध्य स्थापित करने की एक विशेष प्रक्रिया होती हैं। चूँकि इसका काम दो सत्ताओं को परस्पर जोड़ना है, इसलिए इसका नाम”योग’ और इस प्रक्रिया को पूरा कर सकने वाली क्षमता का ‘योगशक्ति’ रखा गया। इसकी अनेकानेक शाखाएँ हैं, पर हर पल का लक्ष्य एक ही है- चिन्तन चेतना को परिष्कृत कर विचार बुद्धि को सुस्थिर रखना और आत्मसत्ता को परमात्म सत्ता से एकाकार करना।
‘योग’ शब्द का अर्थ-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हैं जिस ‘योग’ का जो विशेष अि उद्देश्य होता है, उसका संकेत करने वाला शब्द आगे जोड़ दिया जाता है। जैसे भक्तियोग का अर्थ है-ब्रह्मसत्ता से भक्तिभाव से जुड़े रहने की जीवन पद्धति। ज्ञानयोग का अर्थ है-ज्ञान साधना द्वारा सर्वव्यापी सत्ता की अखण्ड अनुभूति। मंत्रयोग अर्थात् मंत्र जप द्वारा आत्म चेतना क ब्रह्म चेतना से समरसता प्राप्त करने का प्रयास। कर्मयोग को प्रखर कर्मनिष्ठ एक जीवन साधना कहा गया है। हठयोग यानी पूर्ण स्वस्थता के लिए की जाने वाली विशिष्ट शारीरिक मानसिक क्रियाओं का साग्रह अभ्यास।
भगवद् गीता में योग और योगी के स्वरूप का जहाँ कहीं भी उल्लेख हुआ है, वहाँ योग के ऐसे ही लक्षणों का संकेत-निर्देश हुआ है, जो आत्मचेतना को ब्रह्मचेतना से जोड़ने पर आनन्द- उल्लास सक्रियता-स्फूर्ति, कर्मनिष्ठा- चरित्रनिष्ठ के रूप में प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। साधक के व्यक्तित्व में चिन्ह हैं इसी तथ्य को गीता में भिन्न-भिन्न ढंग से प्रतिपादित किया गया है, यथा-’समत्वं योग उच्चयते’, अर्थात् समत्व बुद्धि सुसंतुलित मनः स्थिति ही योग है। योग संन्यस्त कर्माणम्,’ अर्थात् संन्स्त भाव से निर्लिप्त एवं उत्साहपूर्ण रहकर काम करना योग है “ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र सम दर्शनम् बुद्धि से सर्वत्र परमात्मा को देखने वाले व्यक्ति योग युक्त होते हैं ‘योगः कर्मसु कौशलम्’-कर्म-कौशल या उत्कृष्ट कर्मनिष्ठा ही योग है। ‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्तत्वात्मशुद्धये’-योगी वह है, जो आत्मशुद्धि के लिए मोहासक्ति छोड़ कर कर्म करता है। ‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्’-तत्ववेत्ता जानता है कि आत्मसत्ता स्वयं स्थूल कर्म नहीं करती, कर्म तो इन्द्रियादिक द्वारा आत्मचेतना की उपस्थिति में सम्पन्न हो रहे हैं अतः उनमें सफलता विफलता से असन्तुलित हो उठने जैसी कोई बात नहीं। ‘योगयुक्तों विशुद्धात्मा’ -योगयुक्त व्यक्ति की आत्मसत्ता विशुद्ध प्रखर हो जाती है। ‘समाधवचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि’-समाधि स्थिति की तरह स्थिर, अविचल बुद्धि होने पर ही योगस्थिति प्राप्त होती हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अंतरंग चेतना का परिष्कार ही समस्त योग-साधनाओं का वास्तविक अभीष्ट है और इस परिष्कार में निरन्तर प्रवृत्त रहने की क्षमता ही योगशक्ति है। योग शक्ति का यह स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर यह परिणाम भी उतना ही स्पष्ट हो जाने पर यह परिणाम भी उतना ही स्पष्ट हो जाता है कि योगशक्ति व्यक्तित्व का विकास करती है, उसकी संकीर्णताओं को नष्ट कर उसे प्रखर-परिष्कृत बना देती है।
यही देवत्व-शक्ति के विकास की अवस्था है। यह शक्ति आत्मपरिष्कार के साथ आती और व्यक्तित्व की प्रखरता के साथ बढ़ती जाती है। यह परिष्कृति ही योगशक्ति हैं कुण्डलिनी जागरण और ऊर्ध्वारोहण इसी का दूसरा नाम हैं इसके उपरान्त क्रियाशीलता, स्फूर्ति, उत्फुल्लता तथा आनन्द का अजस्र स्रोत फुट पड़ता है। आत्मसत्ता अधिकाधिक विशुद्ध, प्रखर, विस्तृत, विराट् होती चली जाती है, जिसकी चरम परिणति ब्रह्मसत्ता से पूर्ण तादात्म्य के रूप में सामने आती हैं यही मोक्ष-मिलन, विलय-विसर्जन है-क्षुद्र सत्ता और महतसत्ता का महायोग है।