विवेकानंद से उनके शिष्य संक्षेप में गीता का सार बताने के लिए कहा करते थे। वे समय आने पर बताने ही नहीं दिखने का भी वचन देकर बात को टालते रहे।
एक दिन वे सभी शिष्यों को लेकर खेल के उस मैदान में गये जहाँ कितने ही खिलाड़ी तन्मयतापूर्वक खेल रहे थे। पर हार जीत का कोई बड़ा मलाल इनमें से किसी को भी न था। हारने वाला भी मुख पर मलीनता न आने देता और दूने उत्साह के साथ खेलता?
विवेकानंद ने कहा देखा आपने इन लोगों को। जीवन का खेल भी यदि इसी भावना से खेला जाय तो उसे गीता में कहा गया कर्मयोग समझा जाना चाहिए।