ऊँचा उठें- आगे बढ़ें!

May 1989

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मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग मात्र दो ही विषयों में है। एक तो यह कि मानवी गरिमा के अनुरूप अपने गुण-कर्ण-स्वभाव को ढाला जाय संचित कुसंस्कारों का परिमार्जन किया जाय और उनके स्थान पर उन सत्प्रवृत्तियों को उभारने का पूरा पूरा अवसर दिया जाय जो मनुष्य जीवन की सुर दुर्लभ विभूति को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाती हैं। यही आत्म सुधार सच्चे अध्यात्म में प्रवेश करना है। योग और तप इसी निमित्त साधे जाते हैं। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का आश्रय इसी निमित्त लिया जाता है। तत्वदर्शन और धर्मशास्त्र की संरचना इसी निमित्त हुई है।

साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा की चार विधायें अपना कर आत्मोत्कर्ष का महान प्रयोजन पूरा किया जाता है। पशु कलेवर छूट गया, यह एक उत्साहवर्धक सफलता है पर बात इतने से ही बनती नहीं। मानव गरिमा को प्रकट प्रकाशित करने के लिए भाव भरे प्रयत्न होने चाहिए। समझदारी ईमानदारी, जिम्मेदारी और सदुद्देश्यों के लिए बहादुरी बरते जाने की प्रक्रिया अभ्यास में उतारनी चाहिए। यदि इतना न बन पड़ा तो समझना चाहिए कि विडम्बना ही सिर पर लद कर रह गई। भीतर पशु प्रवृत्तियाँ भरी पड़ी हैं। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार पर पशुता ही जड़ जमाये बैठी है। तृष्णा, वासना और अहंता ही इष्ट देवियाँ बनकर रह गईं तो सोचना चाहिए कि वस्तुतः पशुता का ही बोलबाला रहा। मुखौटा पहन कर, पोशाक अलंकार धारण करके अभिनेता अपनी वास्तविकता छिपाते और कुछ के स्थान पर कुछ दिखाने में सफल हो जाते हैं। यही स्थिति उनकी भी है जिनके चिन्तन अधोगामी हैं, चरित्र पर स्वार्थपरता छाई हुई है और व्यवहार में जिनने निकृष्टता धारण करके सेवा धर्म अपनाने की भावना ही त्याग दी है। जिनसे लिप्सा, वैभव और अहंकार प्रदर्शन करने वाली महत्वाकाँक्षाओं के अतिरिक्त और कुछ बन ही नहीं पड़ता। मनुष्य कलेवर मिला है तो अंतरंग भी उसी स्तर का होना चाहिए। यदि पैर से सिर तक पशुता ही छाई रहे तो अच्छा यह था कि भीतर और बाहर एक जैसा दिखाने के लिए पशुओं जैसा मुखौटा और आच्छादन ओढ़ कर रहा जाता। अपना नाम नर पशुओं की श्रेणी में लिखाया होता साथ ही यह आशा भी रखी गई होती अपनी वर्तमान स्थिति और संभावना भी इसी स्तर की बन कर रहेगी।

मनुष्य बानर की संतान होने की बात डार्विन कहते रहे हैं। आदर्श रहित व्यक्ति को नर बानर, नर पामर, बन मनुष्य आदि की संज्ञा दी जाती रही है। आदिम कालीन मनुष्य तक का स्तर ऐसा ही बताया गया है। अभी भी कुछ वन जातियाँ लुक छिप कर किन्हीं सघन क्षेत्रों में जानवरों जैसा जीवनयापन करती देखी जाती हैं। इन सब के अनगढ़पन पर आश्चर्य प्रकट किया जाता है, उपहासास्पद माना जाता है और दुर्भाग्यग्रस्त माना जाता है। लगभग ऐसा ही स्तर उन लोगों का भी है जो कहे तो शिक्षित जाते हैं। रहते तो सभ्य जनों की तरह हैं। साधन सुविधाओं की भी कमी नहीं। पर उन्हें कभी इस बात का ध्यान नहीं आता कि मनुष्य जन्म जैसा उच्च पद लदे हैं उन्हें भी समझा और पाला जाय। इस संदर्भ में उपेक्षा करने के उपरान्त मनुष्य का स्तर और भी अधिक गया गुजरा बन जाता है क्योंकि साधन न होने के कारण अन्य जीवधारी पेट प्रजनन तक सीमित रहने के लिए विवश हैं पर मनुष्य तो हर दृष्टि से समर्थ और सुविकसित है। इतने पर भी यदि वह अपने मूल लक्ष्य से भटक कर भूल-भुलैयों में मारा मारा फिरता है तो इसमें दोष अन्य का नहीं वरन् अपना निज का ही है। यह ऐसा बड़ा खोट है कि जिसके बदले उसे अनन्त काल तक असाधारण तप प्रायश्चित ही करना पड़े।

जिन वस्तुओं के साथ इन दिनों असाधारण मोह जोड़ रखा है, जिन्हें अपना मान लिया गया हैं, वे वस्तुतः इस विशाल संसार की ही घटक हैं, पहले से भी थीं और भी रहेंगी। अपने को तो एकाकी ही आना पड़ा है और एकाकी ही जाना पड़ेगा। वस्तुओं की उपलब्धियों में एक ही बुद्धिमत्ता है कि उनका श्रेष्ठतम सदुपयोग कर लिया जाय। किसी के भी साथ इतनी आसवित नहीं जोड़नी चाहिए कि किसी कारण वश उनसे बिछुड़ना पड़े तो दिल टूट जाय, कलेजा बैठ जाय। समझना चाहिए कि हर पदार्थ और हर प्राणी भगवान की सम्पदा हैं। हमें तो उनके साथ सद्व्यवहार की ही जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसे पूरा करते रहते तक ही अपने को साधना है। न किसी वस्तु पर अधिकार जमाना जाना चाहिए और न किसी वस्तु पर। यही अनासक्त योग हैं। इसी को शान दृष्टि कहते हैं। लाभदर्शी इसी प्रकार सोचते और जल में रुपसावत रह कर संसार में अपना निर्वाहक्रम जारी रखते हैं। जब तक व्यक्तियों और वस्तुओं को अपनेपन की सघन मान्यता के साथ जकड़ कर रखा जायगा तब तक वे भारभूत रहेंगे और उनके कारण अकर्म करने की आशंका बनी रहेगी पर जब उन्हें भगवान की धरोहर माना जायगा तब न तो अधिकार जमाने की इच्छा उठेगी और न उनके साथ अत्यधिक लगाव बढ़ाने पर, क्षण क्षण में राग द्वेष उमड़ने पर मन को अशान्त ही रहना पड़ेगा।

मनुष्य जीवन की निजी आवश्यकताओं को व्रन्ध ने न्यूनतम रखा है और तुलनात्मक दृष्टि से उसे उपार्जन की क्षमता अत्यधिक मात्रा में दी है। अन्य जीवनों को उपार्जनक्षमता और कम और आवश्यकतायें अधिक दी हैं। उपार्जन क्षमता अधिक होते हुए भी देखा यह जाता है कि मनुष्य की तृष्णा का कोई अंत नहीं है। इस आधार पर तो एक व्यक्ति के लिए सारी दुनिया का वैभव कम पढ़ता है कहते हैं कि हिरण्याक्ष ने समूची पृथ्वी ही चुरा कर अपने भण्डार में रख ली थी। रावण सिकन्दर तक अन्त तक अपने को अभावग्रस्त ही मानते रहे। हविस को पूरा करने में उनने अनाचार अत्याचार बरतने में भी कोई कमी न रखी। इतने पर भी यह संभव न हुआ कि जो बटोर सके उस पर संतोष कर पाते।

भगवान ने मनुष्य की आवश्यकताऐं कम और उपार्जन क्षमताएँ अधिक इस कारण रखी हैं कि वह निर्वाह से कुछ ही समय में निश्चित हो सके और शेष सारा समय उस प्रयोजन के लिए खर्च कर सके जिसके लिए उसे यह महान अवसर उपलब्ध हुआ है। वह उद्देश्य एक ही है कि आत्मिक दृष्टि से स्वयं ऊँचा उठना और दूसरों को उठाना। स्वयं व्यक्तित्ववान बनना और दूसरों को बनाना। सम्पत्तिवान तो चोर, डाकू, ठग, उचक्के, अनाचारी भी बन सकते हैं। पर व्यक्तित्व की दृष्टि से वे गए गुजरे ही रहते हैं। अपनी दृष्टि से अपने को गिरा हुआ पाते हैं। दूसरे भी उन्हें वैसा ही अनुभव करते हैं। वस्तुस्थिति सात पदों के पीछे छिपाने पर भी प्रकट होकर रहती है। हींग की गन्ध पोटली में बाँध लेने पर भी रुकती नहीं। सज्जनता एवं नम्रता तो आचरण में बिना बहु प्रयारित हुए भी रह सकती हैं, पर दुष्टता की दुर्गन्ध दूर दूर तक अपनी उपस्थिति का परिचय देती है और समूचे वातावरण को प्रभावित करती है। संकीर्णतावादी स्वार्थपरायण व्यक्ति सदैव उपेक्षित तिरस्कृत रहते हैं। उनका कोई सच्चा मित्र नहीं बनता। न किसी से सराहना करते, समर्थन जताते और सहयोग करते बन पड़ता है। ऐसे व्यक्ति एकाकी स्तर के ही बन कर रह जाते हैं। न कोई उनका बनता है न वे किसी के काम आते हैं।

जो आदर्शों के निर्वाह के लिए संयम निभाने उदारता बरतने के लिए साहस न कर सके, उसके लिए यह संभव ही नहीं है कि वह व्यक्तित्ववान बने, चरित्रकम रहे। स्वार्थ श्रद्धास्पद बने और दूसरों के मानव में आदर्शवादी श्रद्धा संवेदना कर संचार कर सके।

संसार में प्रवृत्ति, समृद्धि और संसार शान्ति का सुनिश्चित आधार एक ही है - चरित्रनिष्कर, व्यक्तित्व की उत्कृष्टता। उसके अभाव में किसी के लिए भी यह संभव नहीं होता कि सामग्री गरिमा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को ऊर्जा और आभा सम्पन्न बना सके। इसलिए जीवन के सदुपयोग का एक ही मार्ग रह जाता है कि निर्वाह प्रयोजन के लिए उतना ही समय श्रम कौशल चलायें जितना कि जीवित रहने के लिए आवश्यक है। शेष सारी बचत तो सत्प्रयोजनों के लिए ही लगनी चाहिए। अपना चिन्ता, प्रमाण और व्यवहार इस स्तर का रहें जिससे अपने और दूसरों के लिए सत्प्रवृत्तियाँ को अपनाने और बढ़ाने की प्रेरणा मिलती रहे। उठने और उठाने का उपक्रम निर्माण गति से चलता रहे, अग्रगामिता अपनायी जाती रहे।


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