रागों से होगी अब रोगों की चिकित्सा

May 1989

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संगीत व गायन को मात्र मनोरंजन की विधा माना जाना त्रुटिपूर्ण है। इसका उपयोग पिछले दिनों स्वास्थ्य संवर्धन के क्षेत्र में हुआ है व इस चिकित्सा से कई व्यक्तियों को व्याधियों से मुक्ति भी मिली हैं इन दिनों जो शोध कार्य चल रहा है, उससे यह स्पष्ट हो गय है कि संगीत का शरीर व मन पर असाधारण प्रभाव पड़ता है व सही निदान कर उपयुक्त स्वर लहरियों का व्यक्तियों के लिए चयन कर उन्हें मनोविकारों- विभिन्न शारीरिक रागों से मुक्ति भी दिलायी जा सकती है।

इंग्लैण्ड के चिकित्सा शास्त्री डाँ. एडवीना मीड और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शरीर शास्त्री एडवर्ड पोडीलास्की ने लम्बे समय तक शरीर व मन पर संगीत के प्रभावों का अध्ययन कर अपना शोध निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि संगीत की शक्ति से स्नायु संस्थान में एक विशेष प्रकार की हलचलें उत्पन्न होती है, जो चिन्तन और भावना क्षेत्र की विकृतियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उनके अनुसार संगीत के स्वरों से शरीर मन को संचालित करने वाली अंतःस्रावी ग्रन्थियों को भी प्रभावित उत्तेजित किया जा सकता है। यह कह कर उन्होंने प्रकारान्तर से संगीतशास्त्र की रोग निवारक क्षमता का ही समर्थन किया है, जिसमें शरीर-मन की विभिन्न अवस्थाओं को प्रभावित करने के लिए विभिन्न राग रागिनियों को का निर्धारण है। पश्चिम जर्मनी के डाँ. डोनाल्ड ड्रोह एवं पूना विश्व विद्यालय के डाँ. तम्हाने का मत है कि एड्रिनोलिन के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को संगीत द्वारा उसके स्राव को सामान्य संतुलित बना कर सही किया जा सकता है। उन्होंने बच्चों पर इसका प्रयोग कर उत्साह वर्धक परिणाम प्राप्त किया। चार्ल्स कील एवं आँगेलिकी नाम वैज्ञानिकों द्वारा भी ऐसे ही परिणाम प्राप्त किये गये, जिसका उल्लेख सन् 1966 में “म्युजिकल मीनिंग ए प्रिलीमिनरी रिपोर्ट” नाम से अयेडी की पत्रिका “जनरल आफ इण्टनोम्यूजिकोलाँजी” में किया गया है। डाँ. हर्बर्ट स्पेंसर ने भी रोग और रोगियों पर संगीत उपचार के कुछ प्रयोग-परीक्षण किये थे। उन्होंने अपने प्रयोग में पाया कि द्रुतगति व तीव्र स्वर में बजती धुनों के प्रयोग से निम्न रक्तचाप वाले रोगियों तथा हल्के स्वर में बजती धुनों से उच्च रक्तचाप वाले मरीजों को लाी पहुँचता है।

संगीत से मात्र शारीरिक मानसिक रोगों को ही ठीक किया जा सकता है, ऐसी बात नहीं है। यह भावनाओं को भी परिवर्तित परिष्कृत एवं उद्वेलित करने की सामर्थ्य रखता है। त्रावणकोर के प्रसिद्ध संगीतकार वडिवेल्लु के जीवन की वह घटना प्रसिद्ध है, जिसमें उनने अपने संगीत के माध्यम से डाकुओं के कठोर हृदय को भी विगलित कर दिया था।

संगीत की इसी शक्ति का समर्थन डाँ. लुई वैरमोन ने अपनी पुस्तक “दि ग्लैण्ड रेग्युलेटिंग पर्सनालिटी” में किया है। स्वर विज्ञान का विवेचन करते हुए अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने कण्ठ नहीं से संबंधित ग्रन्थि का उल्लेख किया है और कहा है कि थायराइड ग्रन्थि न केवल रक्तचाप व चाप का नियंत्रण करती है, वरन् प्रेम और सहानुभूति बढ़ाने एवं असामान्य व विकृत स्थिति में ईर्ष्या द्वेष उभारने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उनने अपनी पुस्तक में आगे लिखा है कि सामान्य परिणाम में रक्तचाप बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि थायराइड से निकलने वाला रसस्राव थायरोक्सिन का अनुपात सही हो। उसका संतुलन बिगड़ने से न केवल रक्त की ऊष्मा और गति में गड़बड़ी उत्पन्न होती है, वरन् तरह तरह की भावनाओं संबंधी विकृतियों का भी मनुष्य शिकार बन जाता है। संगीत के माध्यम से इसके इसी रसस्राव को नियंत्रित कर व्यक्ति को भावनात्मक दृष्टि से उदात्त बनाया जाता है। संभव है संगीत से मस्तिष्क के एण्डार्फिन्स व एन्केफिलिन्स आदि रसस्राव भी प्रभावित होते हों जो भाग संस्थान से जुड़े होते है।

रूसी वैज्ञानिक और संगीतज्ञ डाँ. नेर्लिएल ने भी इसी प्रकार का मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है कि संगीत न सिर्फ रक्तचाप को प्रभावित करता हैं, वरन् इससे व्यक्ति की भावनाएँ भी बदली जा सकती हैं।

किन्तु संगीत के रूप में वर्तमान चिकित्सा पद्धति की गति अभी उतनी गहरी नहीं हो पायी है, जिसकी प्राचीनकाल में कमी थी। तब भिन्न-भिन्न आधि-व्याधियों का निर्धारण था। उदाहरण के लिए मानसिक अस्थिरता एवं क्रोध शमन् के लिए मल्हार, सौरत एवं जैजैवन्ती रागों की व्यवस्था थी। श्वास संबंधी तकलीफ, खाँसी, दमा, तपेदिक आदि में राग भैरव, रक्त अशुद्धि की स्थिति की स्थिति में राग अस्तावरी तथा मेदा, यकृत, प्लीहा वृद्धि में राग हिंडोल का प्रावधान था, पर रोगोपचार के क्षेत्र में आज विभिन्न प्रकार की पद्धतियों के प्रचलन से अब इनका प्रयोग लगभग लुप्तप्राय हो चला है। सत्य तो यह है कि संगीत की इस विद्या को आज लोग शंकित दृष्टि से देखते हैं। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में वर्णित इसकी विलक्षण शक्ति की सच्चाई जानने के लिए विज्ञान का आश्रय लिया जाता तो वह शंका तो मिटती।

प्राचीन भारतीय संगीत शास्त्रियों ने आयुर्वेदिक सिद्धांत के आधार पर कठनाद की भी तीन प्रकृति-कफ, वात, पित्त निर्धारित की हैं। उनके अनुसार कफ प्रधान कंठ से उत्पन्न नाद स्वर अथवा शब्द गंभीरता लिये, स्थिर व मधुर होता हैं। इस प्रकार के कंठ से तरंगित स्वर को “काहुल” या “कफज” कहा गया है। पित्त प्रकृति युक्त कंठ तीव्र नाद पैदा करता है। वह कर्कश व कर्णकटु होता है। ऐसे नाद को संगीत शास्त्र की भाषा में “नाटर” की संज्ञा दी गई है।, जबकि बात की अधिकता होने पर इस प्रकार के कंठ से उद्भूत स्वर माधुर्य रहित व उच्च होते है। ऐसे कंठ वाले गायक चाह कर भी अपने स्वर को स्थिर नहीं रख पाते, फलतः गायन बेसुरा हो जाता है। ऐसे स्वर को बोंबर” नाम दिया गया है। इसी प्रकार बात-कफ वात-पित्त और कफ-पित्त प्रधान कंठ अथवा स्वर भी होते हैं।

आयुर्वेदशास्त्र में जिस प्रकार वात, पित्त, कफ की त्रिधातुओं को गति, चेतन और र्मदता के लिए जिम्मेदार माना गया है, वैसे ही संगीत के आचार्यों ने इनके आधार पर स्वरों की तारता, तीव्रता और मधुरता के तीन भेदों का निर्धारण किया है। तारता (पिच) बात गुण का घोतक है। तीव्रता (लाउडनेस) पित्त गुण को इंगित करती है और मधुरता (टोनस क्वालिटी) कफ-गुण का संकेत करती है। आयुर्वेद के अनुसार पिण्ड से ब्रह्मांड तक के सारे प्राणी-पदार्थ इन्हीं तीन गुणों का विभिन्न अनुपात में सम्मिश्रण लिये होते है। काया में इनकी साम्यावस्था या विषमता से जो अवस्था उत्पन्न होती है, उसका प्रभाव हृदय नाड़ियों और स्नायु तंतुओं से लेकर समस्त अंक अवयवों पर पड़ता है, जिसके झंकार को स्वर कहते हैं। धातु-भेद के आधार पर इन स्वरों के प्रभाव-परिणाम भी श्रोताओं पर भिन्न प्रकार के होते है। इसी को ध्यान में रखते हुए रोगग्रस्त स्थिति में शरीर में इन तीन गुणों में से जिसकी कमी-अथवा अधिकता होती है, संगीत के माध्यम से उसे साम्य बनाया जाता है।

डाँ.वि.वि. गारे ने अपने लेख “संगीत और आयुर्वेद” (संगीत पत्रिका फरवरी 1962) में लिखा है कि यदि शरीर और मन पर सुस्ती छा जाय, आलस्य आ जाये एवं आवाज मन्द आने लगे, पंचम स्वर की आलापिनी, मंदती, रोहिणी, सम्बा स्वरों का कंठ पर वर्यस्व हो, तो ऐसे व्यक्ति को (कफ प्रकृति की मंदता) स्वस्थ बनाने के लिए रौद्री, क्रोषी, वजिका श्रृतियाँ ऋषभ स्वर शब्द को या ऋषभवादी स्वर वाले राग को सुनाया जाना चाहिए। इसी प्रकार पित और बात प्रकृति वाले व्यक्ति को साम्वावस्था में लाने के लिए कफ प्रकृति स्वर अर्थात् श्रंगार रस के राग खमाज, तिलंग, देस आदि सुनाने चाहिए।

शास्त्रों में संगीत की महत्ता का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। पराशर ऋषि ने इसके महात्म्य का उल्लेख करते हुए कहा है -

न नादेन बिना ज्ञानं न वादेन बिना शिवः नाद रुपं पर ज्योतिर्नदरुपी स्वयं हरिः॥ अर्थात् नाद के बिना ज्ञानं नहीं होता।

नादन के बिना शिव नहीं होता। परम ज्योति नाद .... ही है। स्वयं विष्णु नाद रूप है।” नारद रचित “संगीत मकरंद” में भी संगीत का गुणगान करते हुए कहा गय है कि आयु धर्म, यश,बुद्धि धन, धान्य, संतान की अभिवृद्धि यह सब रागों के .... द्वारा सींव है।

ऐसी बात नहीं कि संगीत की यह विधा प्राचीन समय में पुस्तकीय ज्ञान के रूप में ही सीमित होकर रह गई थी। अपितु इसका सफल प्रयोग भी होता रहा था। इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते है। कहा जाता है कि प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजूबावरा ने जग पूरिया सुनाकर राजा राजसिंह की अनिद्रा की बीमारी दूर की थी। ऐसी ही शक्ति पं. पलुस्कर और डागरबन्ध के गायन वादन में बतायाी जाती थी। अब तो क्रमशः यह पीढ़ी भी लुप्त होती जा रही है। फिर भी कुछ धराने ऐसे हैं। जहाँ इन रागों को जिन्दास रखा गया है। इटली के शासन सुसोलिनी की निद्रा संबंधी बीमारी भी, कहा जाता है कि एक भारतीय संगीतकार ने ही संगी के माध्यम से दूर की थी।

अब जैसे-जैसे विज्ञान इसकी गहराई में उतरता जा रहा है। उसे संगीत की अपरिमित शक्ति और क्षमता का ज्ञान विदित होता जा रहा है। आज “औरोटोन” जैसे कई ऐसे विशेष वाद्य यंत्र उपकरण विकसित कर लिये गये हैं, जिसमें भिन्न-भिन्न राग सुना कर स्वस्थ करने की व्यवस्था है। इसे देखते हुए आने वाले समय में संगीत को यदि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित किया गया, तो इसमें आश्चर्य जैसे कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसके लिए प्रयोग परीक्षण का एक व्यापक तंत्र बनाना होगा। हमारे पास संगीत रूपी पंजी का अभाव नहीं है। उसे विभिन्न आधुनिक यंत्रों की कसौटी पर कसे जाने भर की आवश्यकता है।

विभिन्न नादों रागों-रागिनियों को सुनाने के पूर्व शरीर व मन से जुड़े रसायनों की क्या स्थिति थी व बाद में क्या हो गयी? विभिन्न नादों रागों-रागिनियों को सुनाने के पूर्व शरीर व मन से जुड़ें रसायनों की क्या स्थिति थी व बाद में क्या हो गयी? यदि यह तुलनात्मक अध्ययन संभव हो गया तो कोई संगीत शक्ति की वैज्ञानिकता पर उँगली उठा सकेगा। ब्रह्मचर्य शोध संस्थान ने इस दिशा में प्रारंभिक कदम उठाये हैं। ऐसे ही प्रयास, संभव है कहीं और भी चल रहे हों। उन्हें समन्वित किया जा सके तो इस चिकित्सा पद्धति को पुनः प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।


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