मनुष्य का जीवन उसके विचारों का प्रतिबिम्ब है। व्यक्तित्व विकास एवं भाग्य निर्माण में इन्हीं की महती भूमिका होती है। सफलता- असफलता, उन्नति-अवनति, सुख-दुःख, शान्ति-अशान्ति आदि सभी मनुष्य के अपने विचारों पर निर्भर करते हैं। किसी भी व्यक्ति के विचार जानकर उसके जीवन के स्वरूप को सहज ही मालूम किया जा सकता है। मनुष्य को कायर-वीर, स्वस्थ-अस्वस्थ, प्रसन्न-अप्रसन्न कुछ भी बनाने में उसके विचारों का महत्वपूर्ण हाथ होता है। स्पष्ट है कि विचारों के अनुरूप ही मानव जीवन का निर्धारण होता है। अच्छे विचार उसे उन्नत बनायेंगे तो उनकी निकृष्टता उसे गर्त में धकेलेगी।
विचार चेतना क्षेत्र की एक विशिष्ट सम्पदा है। इसी के आधार पर मनुष्य जीवन का उपयोग करता, योजनायें बनाता और उन्हें पूरी करता है। विचारशील व्यक्ति सामर्थ्यवान माने जाते हैं। इसके विपरीत विचारहीनों की गणना नर पशुओं में की जाती है। विचारक्षमता को बढ़ाने के लिए स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, सत्परामर्श आदि उपाय काम में लाये जाते हैं। यह उपाय साधन जिन्हें उपलब्ध नहीं होते वे कूपमण्डूक बने रहते हैं। वे जीवन का भार ढोने के अतिरिक्त और कुछ कर नहीं पाते। इसीलिए जहाँ चेतना की शक्ति पर विचार किया जाता है वहाँ प्रकारान्तर से उसे विचार शक्ति का विशेष सुनियोजन किया जाना कहा जाता है। विचारशील ही महत्वपूर्ण योजनाएँ बनाते, महत्वपूर्ण कार्य करते और सफल महापुरुष कहलाते हैं।
विचारों को कभी चिन्तन क्षेत्र में घुमड़ते रहने और मस्तिष्क को कुछ काम देने वाली एक विशेषताभर समझा जाता था, परन्तु अब इसे भी विद्युत के समतुल्य ही प्रभावोत्पादक शक्ति माना जाने लगा है। यह न केवल शारीरिक हलचलों को जन्म देती है वरन् व्यक्ति, पदार्थ एवं वातावरण पर भी अपना प्रभाव डालती है और उन्हें बदलने तक में अपनी आश्चर्यजनक भूमिका सम्पन्न करती है। विचारों के विद्युत प्रवाह दूरस्थ व्यक्ति को उसी प्रकार प्रभावित करते हैं जैसा कि चाहा जाता है। जब मानव विचार एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक भेजे जाते हैं तो उसे “टेलीपैथी” या “विचार संप्रेषण” कहते हैं विश्व के अनेक वैज्ञानिक एवं परामनो-वैज्ञानिक इस क्षेत्र में अनुसंधानरत हैं।
प्रख्यात मनो विज्ञानी डा. अप्टान सिन्कलेयर ने अपनी पुस्तक “मेण्टल रेडिया” में बताया है कि मानवी मस्तिष्क में यदि उत्कृष्ट स्तर के विचार विद्यमान रहें तो वह उनका प्रसारण करता रह सकता है और अनेकों मस्तिष्कों को अपने जैसा सोचने वाला बना सकता है। विचारशीलता व्यक्तियों की एक और श्रेष्ठता होती है कि संसार में जो श्रेष्ठ विचार कहीं भी किसी के पास भी विद्यमान हैं उन्हें आकर्षित कर वह अपने ज्ञान भण्डार को विस्तृत कर लेते हैं। परामनोविज्ञानी जैम्बिस मोनार्ड का भी कहना है कि “आइडियोस्फियर” अर्थात् विचारों के प्रभामण्डल में सभी प्रकार के विचार प्रवाह निरन्तर गतिमान हैं। उनमें से अपने अनुकूल विचार तरंगों को आकर्षित किया और तदनुरूप लाभान्वित हुआ जा सकता है। साथ ही दूसरों तक प्रवाहित करके उन्हें अपनी इच्छानुरूप मोड़ा मरोड़ा जा सकता है। वस्तुतः अपनी प्रबल चुम्बकत्व शक्ति के कारण ही विचार शक्ति सहायक साधनों को अपने अनुरूप वातावरण में से घसीट लाती है। इस विश्व ब्रह्माण्ड में सब कुछ विद्यमान है। मनुष्य चाहे जिसका चुनाव कर सकता है और तदनुरूप उस ढाँचे में ढलकर अपना विकास या विनाश कर सकता है।
“साइकोलॉजी आफ रिलीजन” नाम अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में मनोविज्ञानवेत्ता डा. यूथेस ने लिखा है कि मनुष्य की विचारणा जिस भी प्रयोजन में लग जाती है उसी से उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता हैं। उसके मनःसंस्थान एवं अन्यान्य अवयव भी तद्नुरूप ही कार्य करने लगते है। इसी तरह की मान्यता मनःशास्त्री डा. हेनरी लिडनहर की हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक-”प्रैक्टिस आफ नेचुरल थेरैप्यूटिक्स” में कहा है। कि विचारों का स्वास्थ्य पर गहन प्रभाव पड़ता है। महापुरुषों अथवा महान् सद्गुणों के साथ एकात्मता स्थापित करने से मनुष्य की अनेकानेक शारीरिक मानसिक व्यथायें दूर हो जाती हैं। व्यक्तित्व को प्रभावोत्पादक बनाने में उत्कृष्ट विचारों की महान भूमिका होती है। विचार शक्ति ही कर्म को प्रेरणा देती है।
विचारों की छाया आचरण में प्रवेश किये बिना उभरे बिन रह नहीं सकती। निषेधात्मक चिंतन बाला व्यक्ति जहाँ जाता है, वहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तिरस्कार का भाजन बनता है। उसके मिलन की किसी को प्रसन्नता नहीं होती और चल जाने से न दुःख लगता है न अघात लगता है। उसकी निज के जीवन की समस्यायें ही इतनी उलझ जाती हैं, जिन्हें सुलझाते नहीं बनता और ऐसे ही परेशानियों में डूबता-उतराता हैं। जिनसे मन मिलता है उनके सामने आपनी विपन्नता का रोना रोने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बन पड़ता है। मानवी विचार चेतना के विपरीत प्रवाहों का ही यह परिणाम है कि आज पर्याप्त सुख सुविधा, समृद्धि, ऐश्वर्य, वैज्ञानिक साधनों से युक्त जीवन बिताकर भी वह अधिक अशान्ति, दुःख व उद्विग्नता सये परेशान हैं। अँग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान लेखक डा. रिवपट आने प्रत्येक जन्म दिन पर काले और भड़े कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे। वह कहते थे-”अच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता”। इसके ठीक विपरीत अन्धे कवि मिल्टन कहा करते थे-”भगवान का शुक्रिया है जिसने मुझे जीवन का अमूल्य वरदान दिया”। नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने अन्तिम दिनों में कहा था- “अफसोस है-मैंने जीवन का एक सप्ताह भी सुख शान्तिपूर्वक नहीं बिताया”। जबकि उसे समृद्धि ऐश्वर्य, सम्पत्ति यश आदि की कोई कमी नहीं रही। सिकन्दर महान भी अपने अन्तिम जीवन में पश्चाताप करता हुआ ही मरा। जीवन में सुख शाँति, प्रसन्नता अथवा दुःख, क्लेश अशाँति, पश्चाताप आदि का आधार मनुष्य के अपने विचार हैं-अन्य कोई नहीं। साधन सम्पन्न जीवन में भी व्यक्ति गलत विचारों के कारण दुखी रहेगा और उत्कृष्ट विचारों से अभावग्रस्त जीवन में भी सुख-शान्ति, प्रसन्नता अनुभव करेगा।
संसार एक दर्पण है। इस पर हमारे विचारों की जैसी छाया पड़ेगी वैसा ही प्रतिबिम्ब दिखाई देगा। इसके आधार पर ही सुखमय अथवा दुःखमय सृष्टि का सृजन होता हैं संसार के समस्त विचारकों ने एक स्वर से उसकी शक्ति और असाधारण महत्ता को स्वीकार किया है। स्वामी रामतीर्थ ने कहा था- “मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही उसका जीवन बनता है।” स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-”स्वर्ग और नरक कहीं अन्यत्र नहीं इनका निवास हमारे चिन्तनचेतना में ही है।” भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा था- ‘‘भिक्षुओं! वर्तमान में हम जो कुछ हैं अपने विचारों के ही कारण हैं और भविष्य में जो कुछ भी बनेंगे वह इसी के कारण।”
शेक्सपियर ने लिखा है-”कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। अच्छाई और बुराई को आधार हमारे विचार ही हैं।” ईसा ने कहा था-”मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही वह बन जाता है प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक डेलकार्नेगी ने अपने अनुभवों पर आधारित तथ्य प्रकट करते हुए लिखा हैं। कि-”जीवन में मैंने सबसे महत्वपूर्ण कोई बात सीखी है तो वह है विचारों की अपूर्व शक्ति और महत्ता। विचारों की शक्ति सर्वोच्च तथा अपार है।”
संक्षेप में जीवन की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने में हमारे विचारों का ही प्रमुख हाथ रहता है। यद्यपि देखने में वह मस्तिष्क को बिना पर वाली रंगीली उड़ान भर मालूम होते हैं। मस्तिष्क को बिना पैसे का सिनेमा भर दिखाते रहते हैं। किन्तु यदि उन्हें उद्देश्यपूर्ण दिशा में ही प्रवाहित रहने की आदत डाली जाय तो वह दृष्टिकोण को परिष्कृत कर सकते हैं। जीवन जीने की संजीवनी विद्या जैसी कला में प्रवीण कर सकते हैं। व्यक्तित्व को इस स्तर का उभार सकते हैं जिसे देवोपम कहा जा सकें, जिसके साथ चिरस्थायी सुख शान्ति जुड़ी रहें।