सामूहिक धर्मानुष्ठानों की बारह वर्षीय श्रृंखला

May 1989

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असुरता के दमन और सतयुगी रामराज्य के और संस्थापन की संधिवेला में भगवान राम द्वारा दशाश्व-मेध महायज्ञों की एक श्रृंखला बनायी थी। उसमें जहाँ आमन्त्रित विज्ञ समाज को नव निर्माण की योजना में सहभागी बनाना था, वहाँ एक प्रयोजन यह भी था कि उस प्रचंड धर्मानुष्ठान द्वारा अदृश्य आकाश में भरे पिछले दिनों के अनौचित्य का प्रवाह निरस्त किया जाय।

भगवान कृष्ण को अपने अवतरण काल में सर्वत्र छाई हुई अनाचारी आपा-धापी को निरस्त करना था। इसके लिए महाभारत रचा गया। जीतने पर भी एक बात शेष रही कि पिछले दिनों के संव्याप्त अनाचार को अदृश्य वातावरण में से किस प्रकार बुहार फेंका जाय। इसके लिए राजसूर्य यज्ञ रचाया गया। देश-देशान्तरों से आमन्त्रित विज्ञजनों के परामर्श से यह निर्धारण किया गया कि नव सृजन के लिए कौन क्या योगदान दे? सुनियोजित योजनाओं को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाय। साथ ही उतना आवश्यक अदृश्य आकाश का परिमार्जन भी समझा गया। उसके निमित्त राजसूर्य यज्ञ की आध्यात्मिक ऊर्जा-उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया अपनायी गयी।

सामूहिक शक्ति उत्पन्न करने और उसे दुरितों के निवारण और श्रेयस् के संवर्धन हेतु प्रयुक्त किया जाता रहा है। विश्वामित्र का महान यज्ञ इसी निमित्त था, जिसके लिए राम और लक्ष्मण को रक्षा हेतु कटिबद्ध रहना पड़ा।

सूक्ष्म स्तर के विश्व व्यवस्था से जुड़े हुए धर्मानुष्ठान सदा सामूहिक ही होते रहे है। कितने धर्मानुष्ठान तो निजी स्तर के भौतिक या आध्यात्मिक लाभ के लिए किये जाते है। पर जब उन्हें व्यापक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करना होता है तो सामूहिक साधना की ही व्यवस्था करनी पड़ती है। कुंभ पर्व जैसे ज्ञान यज्ञ इसी निमित्त आरम्भ किये गये थे कि उस अवसर पर धर्मानुष्ठान चलें और उससे लोक शिक्षण एवं अदृश्य संशोधन के दोनों ही कार्य सम्पन्न होते रहें। पर्व स्नानों के विशेष अवसरों पर तीर्थ समारोहों की परम्परा भी इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होती रही है। तीर्थों में ऐसा ही धर्मानुष्ठानों का क्रम चलते रहने के कारण उनकी गरिमा समझी जाती रही है। आज तो हर क्षेत्र में विकृतियों का ही साम्राज्य छाया हुआ है, पर भूतकाल में जब अध्यात्म को विज्ञान के समकक्ष प्रामाणिक माना जाता था तब सामूहिक अनुष्ठानों का महान महत्व और प्रभाव सर्वत्र स्वीकारा जाता था। उस हेतु समय-समय पर, स्थान-स्थान पर अभीष्ट आयोजन होते रहते थे।

फैली हुई दुर्गन्ध का शमन सुगंधित द्रव्य जलाकर या धूप आग के सहारे उससे निबटा जाता है। लाठी का जवाब लाठी, घूँसे का जवाब घूँसे के रूप में दिये जाने की मान्यता है। अंधेरे में प्रकाश जलाकर काम चलाया जाता है। यह प्रतिरोध प्रक्रिया है जो सर्वत्र काम में लायी जाती है। विषाणुओं का दमन औषधियों द्वारा करके रोगी को निरोग बनाया जाता है। भारी वजन की वस्तुएँ मिल जुलकर ही उठायी जाती है। सैन्य समुदाय ही अपनी सुसज्जित संगठित शक्ति से शत्रु का मुँह मोड़ सकने में समर्थ होते है। मेले ठेले में कितना उत्साह उमड़ता और मौज मस्ती का माहौल बनता है। यह सामूहिक जनशक्ति की ही सामर्थ्यवान प्रतिक्रिया है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक संस्थाएँ अपने अपने वार्षिकोत्सव समारोह करती रहती हैं। उनसे लोक शिक्षण और उत्साह उभारने का प्रत्यक्ष उद्देश्य तो पूरा होता है पर यह नहीं बन पड़ता कि उनके साथ कुछ धर्मानुष्ठान भी सम्मिलित रखे और उन पुण्य प्रयोजन के साथ किसी न किसी रूप में उपस्थित जन समुदाय को भी सम्मिलित करें। यदि ऐसा बन पड़ा होता तो उससे मात्र लोक शिक्षण ही पूरा न होता वरन् अदृश्य वातावरण में भी सत्प्रवाह प्रचलित कर सकने का दुहरा लाभ उपलब्ध होता। प्राचीन काल में तीर्थ स्थलों में ऐसी ही दिव्य साधनाएँ होती रही है और उस पुण्य क्षेत्र में अपनी भागीदारी जोड़ने के लिए तीर्थयात्री यही प्रायोजन लेकर वहाँ पहुँचते है। प्रकृति दर्शन और उच्चस्तरीय सत्संग का लाभ तो उन्हें साथ-साथ मिलता ही रहता था अब वे तीर्थ आयोजन भी धार्मिक मेला भर बनकर रह गये है। स्नान और देवदर्शन भर की दो क्रियायें ही वहाँ पूरी हो पाती है। इसे सुधारा और पुरातन स्तर पर लाया जाना चाहिए। उससे उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होंगे।

सन 57 में मथुरा में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न हुआ था। उसमें प्रायः चार लाख धर्मप्रेमी एकत्रित हुए थे। अदृश्य वातावरण को सदाशयता के पक्ष में प्रभावित एवं प्रवाहित करने के लिए जहाँ समय आध्यात्मिक प्रयोग सम्पन्न हुआ, वहाँ एक प्रत्यक्ष प्रक्रिया भी सम्पन्न हुई-गायत्री परिवार के अभिनव शुभारम्भ की। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद उसी अवसर पर हुआ और सर्वत्र सत्प्रवृत्ति उन्मूलन के जाति महत्वपूर्ण कार्यक्रम सुनियोजित रूप से चलने लगा।

इसके उपरान्त गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना के साथ क्षेत्रीय गायत्री यज्ञों की श्रृंखला चलती रही इसका अन्तरिक्ष पर कितना प्रभाव पड़ा होगा, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो प्रस्तुत नहीं किया जा सकता पर यह देखा गया कि लोकशिक्षण के प्रयास ने चमत्कार दिखाया और हजारों व्यक्ति अपने-अपने कार्यक्षेत्र में समयदान, अंशदान नियोजित करते हुए सृजनात्मक एवं सुधारात्मक कार्यक्रम में निरत रहने लगे।

अन्याय छोटे बड़े आध्यात्मिक एवं सामूहिक प्रयासों की चर्चा करना यहाँ अनावश्यक होगा पर इतना कहा जा सकता है कि इन दो वर्षों में दीपयज्ञों की श्रृंखला ने अतीव सस्ता और नितान्त सरल संगठन कार्यक्रम धर्म चेतना वाले जन साधारण को दिया है। उसमें साथ, लाखों लोग जुड़े है और प्रस्तुत धर्म चेतना के सहारे आत्म परिष्कार और नये सृजन प्रयोजनों में लगे भावनाशील लोगों की संख्या एक करोड़ तक जा पहुँची है।

अब उन पिछले चरणों से कही अधिक महत्व का और कहीं अधिक व्यापक चरण है-”युग संधि महा पुरश्चरण का”। यह विगत आश्विन नवरात्रि से आरम्भ हुआ है और सन् 2000 ही चैत्र. नव रात्रि तक चलेगा। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में ही वे लक्षण प्रकट होने की आशा और संभावना है जिनसे यह अनुमान लगाया जा सके कि उज्ज्वल भविष्य के लक्षण ब्रह्ममुहूर्त में प्रकट होने वाले अरुणोदय की तरह परिलक्षित होने लगेंगे।

बीसवीं सदी के अन्तिम बारह वर्ष कई दृष्टियों से कठिनाइयों से भरे माने जाते हैं। इतने पर यह विश्वास करने का कारण है कि असंख्यजनों की प्रसुप्त दिव्य चेतना जागेगी और वह प्रस्तुत व्यवधानों को निरस्त करने से लेकर स्वर्णिम संभावनाओं के अवतरण हेतु अग्रसर होगी और अपने पराक्रम से ऐसा कुछ करे सकेंगी जिससे अवाँछनियता का अन्त और सुख संभावनाओं का अवतरण सम्भव हो सके।

शान्तिकुँज हरिद्वार में अगले 12 वर्षा तक इस साधना का उपक्रम जारी रहेगा। गायत्री जप अनुष्ठान, स्वर्णिम सविता का ध्यान, अग्निहोत्र और उपवास के आधार पर .चलने वाली यह साधना अपने प्रतिष्ठा क्षेत्र की प्रयोगशाला में ऐसे प्रवाह प्रवाहित कर सकेगी जो अदृश्य अन्तरिक्ष और अनुकूलता की दिशा में गति देने से लेकर साधनारत व्यक्तियों को भी परिष्कृत व्यक्तित्व के निर्माण में प्रेरणा दे सके।

केन्द्र तो संकल्पित स्थान पर ही रहेगा पर उसके साथी सहचर आयोजन साप्ताहिक सत्संग के रूप में अनेकानेक स्थानों पर होते रहेंगे। उनकी संख्या आरम्भ में हजारों से लेकर अन्त तक लाखों में पहुँच सकती हैं। बीसवीं सदी के अन्त में इसकी पूर्णाहुति भी होगी जिसे अभूत-पूर्व स्तर का समझा जा सकेगा।

अदृश्य वातावरण को संशोधन एक महत्वपूर्ण कार्य है। युग की परिस्थितियों के अनुरूप पूरा किया जाने वाला एक दायित्व भी। इसके निमित्त किया गया साधना पुरुषार्थ साधकों को अगणि गुना प्रतिफल देगा, यह कल्पना सहज ही की जा सकती हैं।


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