सर्वसुलभ, सर्वोपयोगी ध्यान-धारणा

May 1989

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मनुष्य अनेक कल्पनाएं करता है। कई आदर्शों को अपनाने की बात सोचता है। कई निर्णयों को आवश्यक मानकर उनके निमित्त पुरुषार्थ का प्रयास भी करता है। पर देखा गया है उच्चस्तरीय प्रयोजनों का उत्साह थोड़े से ही समय में ठंडा पड़ जाता है। जो उमंगें उठी थीं वे उड़ने वाले बुलबुलों की तरह समाप्त हो जाती हैं। उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए उठने वाला उत्साह प्रायः शिथिल होते होते समाप्त हो जाता है। पर अवाँछनीय दिशा में उठाए गए कदम सहज विस्मृत नहीं होते, वे अपनी जगह दृढ़ता-पूर्वक जमे रहते हैं। नशेबाजी की लत एक बार लग जाने पर फिर उससे पीछा नहीं छूटता। तलब उठती है तो बेचैन कर देती है। मस्तिष्क उसी प्रिय पदार्थ को पाने के लिए ताने बाने बुनता रहता है। चैन तब लेता है जब अभीष्ट को हस्तगत कर लिया जाता है।

किन्तु उत्कृष्ट स्तर के निर्धारणों में यह प्रक्रिया कम ही चलती है। पानी ढलान की ओर सहज ही बहता है। वस्तुएँ ऊपर से नीचे की ओर गिरती हैं। यह कार्य तो धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही कर लेती है। पर किसी वस्तु को ऊँचा उछालना हो तो उसके लिए अतिरिक्त शक्ति लगानी पड़ती है। आदर्शों का परिपालन ऐसा ही उच्चस्तरीय प्रयास है। जिसके लिए विशेष रूप से प्रेरणाप्रद प्रयत्न करने पड़ते हैं।

ऐसे प्रयत्नों में ‘ध्यान’ का बहुत महत्व है। वह विस्मरण - जन्म कठिनाइयों की रोकथाम करता है। विस्मरण यों उपयोगी भी है। उसके कारण विछोह जैसे आघात क्रमशः हलके होते जाते हैं। लोग पिछली बातों को भूलकर नई जानकारियों को स्मृति पटल पर अंकित करते जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो स्लेट पर एक ही हिसाब सदा लिखा रहता। पुराने को मिटाकर ही उस स्थान पर नया अंकन किया जाता है। यही लोकाचार है।

आदर्शों के क्षेत्र में प्रवेश करने पर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मन संसार के मेले में भ्रमित होकर मूल अवलम्बन को विस्मृत कर देता है। नए नए आकर्षक जाल जंजालों फँस जाता है। ऐसी दशा में यही उपयुक्त है कि आदर्शों के परिपालन में कर्तव्यों के निर्वाह की बात को प्रमुखता दी जाय और उनका बार-बार स्मरण करते रहकर विस्मृति जैसा कुयोग न बनने दिया जाय।

द्वेष-दुर्गुणों को भुला दिया जाय। इसका ताक कुछ तुक है। किन्तु जिन आधारों पर जीवन का उत्कर्ष-अभ्युदय अवलम्बित है। उन्हें ते प्रयत्नपूर्वक स्मृति पटल पर अंकित किया जाता रहना चाहिए। इसका सरल उपाय यह है कि उसे दिन चर्या का अविच्छिन्न अंग बना लिया जाय। जो काम नित्य किए जाते हैं, उनकी आदत पड़ जाती है और फिर समय पर उन्हें पूरा करने की एक बेचैनी उठती है। शौच, स्नान, भोजन-शयन आदि की स्मृति नियत समय पर अनायास ही उठती है और जब तक वह कार्य पूरा न हो जाय तब तक शान्ति नहीं मिलती। ठीक इसी आधार पर आत्म-चिन्तन को भी दिनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाना चाहिए। इसी को ईश्वर स्मरण पूजा पाठ, दैनिक उपासना, संध्यावन्दन आदि नामों से जाना जाता है।

वस्तुतः ईश्वर को किसी खुशामद या रिश्वत की रत्ती भर भी आवश्यकता नहीं है। उस पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अनुशासन में रहना, मर्यादाओं का अपनाना, वर्जनाओं से बचना यही ईश्वर-साधना है। सादगी, सज्जनता, संयम, सेवा, के प्रयासों को जीवन व्यवहार के साथ जोड़कर ईश्वर उपासना का प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो जाता है। सृष्टि में इतने जीवधारी हैं पर कोई पूजा पाठ नहीं करता। इन दिनों आधी आबादी नास्तिक वर्ग की है। उन्हें न ईश्वर की मान्यता के प्रति विश्वास है और न पूजा पाठ से सम्बन्ध। फिर भी ईश्वर उन सब का भरण पोषण और अनुदान सहयोग करता रहता है। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए नहीं वरन् अपने आत्मशोध की प्रक्रिया पूरी करने के लिए उपासना करनी होती है। उसकी यथार्थता इसी में है कि आदर्शों के परिपालन तथा कर्तव्यों के निर्वाह में कहीं चूक न होने पाए। इसका ध्यान उपयुक्त समय पर किया जाय। उसमें चूक न होने दी जाय। जब हर दिन कमरे में बुहारी लगती है। नहाने, कपड़े धोने, रसोई बनाने आदि का क्रम बिना नागा किया जाता है तो फिर आत्म परिशोधन की बात को क्यों भूला जाय? ईश्वर को हमारी पूजा की आवश्यकता भले ही न हो, पर हमारे लिए उस का प्रयास नित्य-नियमित रूप से करना चाहिए। यह हमारी व्यक्तिगत आवश्यकता है, जिसके बिना आत्मोत्कर्ष के मार्ग में भारी व्यवधान आ खड़ा होता है।

उपासनात्मक अनेकों क्रिया-कलापों में ध्यान--धारणा ऐसी है, जिसे उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए। ध्यान भी कई प्रकार के हैं। उनमें से अधिकाँश में ईश्वर की छवि की कल्पना की जाती है, साथ ही उसके सान्निध्य भी अपेक्षा भी। इस सही प्रक्रिया के साथ इतना और जोड़ना चाहिए कि परमात्मा और आत्मा के विच्छिन्न सम्बन्ध को स्मरण रखा जाय। उसे सर्वव्यापी व न्यायकारी माना जाय। मानव जीवन प्रदान करने की अनुकम्पा और उसके साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारी को एक क्षण के लिए भुलाया न जाय। स्मरण के लिए यह तारतम्य भी जुड़ा रखा जाय कि जो आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है, उसका निर्वाह बिना प्रयास के किया जाता रहे। यह सब ठीक तरह हो रहा है या नहीं? इसके लिए चिन्तन-मनन किया जाता रहे। वस्तुतः आत्म सुधार और आत्म परिष्कार की प्रक्रिया जिस आधार पर पूरी होती है, वही सच्चा “भजन” एवं सच्चा “ध्यान” है।

जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं सदुपयोग का ताल मेल अपनी विधारणाओं एवं गतिविधियों के साथ ठीक प्रकार बैठ रहा है या नहीं, इसका ध्यान हर घड़ी रखना चाहिए। जहाँ चूक हो रही हो उसे सँभालने, सुधारने की चेष्टा सतर्कतापूर्वक की जानी चाहिए। ऐसा न हो कि इस संदर्भ में उपेक्षा चलती रहे और चिन्तन में भ्रष्टता का, चरित्र में दुष्टता का अनुपात बढ़ता जा रहा हो। जो सब करते हैं, उसी का अनुकरण किया जा रहा है। अधिकाँश व्यक्ति प्रमाद में समय गुजारते हैं और अकरणीय कृत्य करने के अभ्यस्त होते हैं। उनमें अपनी पहचान अलग रहनी चाहिए। नर पशुओं के झुण्ड में उन्हीं का एक सदस्य बनकर रहा गया तो यह मानवी गरिमा का संरक्षण कहाँ हुआ? अपना स्तर घटिया तो नहीं बनता जा रहा है, इसी जाँच पड़ताल हर घड़ी ध्यान पूर्वक होती रहनी चाहिए।

ध्यान की एक प्रक्रिया एकाग्रता साधना के लिए की जाने वाली कसरत की तरह भी है। चंचल मन को वानर जैसी उछल कूद करते रहने, अपनी शक्ति गँवाने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। असंयम के जीवन के किसी भी पक्ष पर हावी नहीं होने देना चाहिए। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम की घेरा बन्दी करते रहने से शक्तियों का अपव्यय रुकता है, एकाग्रता सधती है और मन को ज्ञान-साधना, कर्म-साधना एवं भाव साधनाओं की उच्चस्तरीय क्रिया-पद्धति में नियोजित किया जा सकता है। किसी देव प्रतिमा या महामानव के चित्त जमाकर उसके साथ तन्मय होने की भाव साधना भी ध्यान कहलाती है। ऐसा आए दिन कई-कई बार करते रहने से मनोनिग्रह की सिद्धि मिलती है। निग्रहित मन वाला लक्ष्य के साथ तन्मयता अपना कर बड़ी-बड़ी सफलताएँ प्राप्त करता है।

एक ध्यान, शक्ति संयम का है। इसके लिए उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को ध्यान का माध्यम बनाया जाना चाहिए। आँखें बन्द करके भावना करनी चाहिए कि प्रभातकालीन उदीयमान सूर्य की किरणें अपने शरीर पर पड़ रही हैं। शरीर को बल मस्तिष्क को ज्ञान और हृदय को भाव संवेदनाओं से भर रही है। नाभि चक्र को स्थूल शरीर का, हृदय को सूक्ष्म का, मस्तिष्क मध्य-ब्रह्मरंध्र के कारण शरीर का केन्द्र बिन्दु माना गया है। इन तीनों में सूक्ष्म स्तर की तीन ग्रंथियाँ हैं, जिन्हें कमल भी कहते हैं। सूर्य के उदय होने पर कमल खिलते हैं और सुगंध तथा शोभा से समूचे क्षेत्र की भर देते हैं। यह ध्यान प्रातःकाल ही किया जाना चाहिए। तीनों कमल चक्रों को विविध विधि शरीर के केन्द्र बिन्दुओं को विकसित होने की भावना करनी चाहिए। यह साधना प्रक्रिया तीनों शरीरों के विकसित करती है, उन्हें ओजस् तेजस् एवं वर्चस से सराबोर करती हैं।

ध्यान की अनेकानेक विधियाँ हैं और उनके विभिन्न स्तर के प्रयोजन भी हैं। उनमें से उपरोक्त कुछ ऐसे हैं, जिन्हें सर्व सुलभ और सर्वोपयोगी कह जा सकता है।


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