जपयोग की साधना एवं उसका महात्म्य

May 1989

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जपयोग अचेतन मन को जागृत करने की एक वैज्ञानिक विधि हैं सद्गुणों के समुच्चय ईश्वर से अपनी अन्तरात्मा को जोड़ने का यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है। इसमें परमात्मा के इष्ट के नाम-रूप स्मरण के साथ ही उसके गुण कर्मों की भावभरी स्मृति उपासक के मानस पटल पर अंतःकरण पर सत् छाई रहती है। इससे न केवल साधक का नोबेल दृढ़ होता है, आस्था परिपक्व होती है, वरन् विचारों में विवेकशीलता आती है। बुद्धि निर्मल व पवित्र बनती है तथा आत्मा में ईश्वर का प्रकाश अवतरित होता है। उससे मनुष्य अनेक प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। शास्त्रकारों ने इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि समस्त मानव जाति के लिए जपयोग एक ऐसा विधान है कि जिसमें मनुष्य प्रेरणा ग्रहण कर बन्धन मुक्त हो व्यक्तिगत जीवन में शान्ति एवं सामाजिक जीवन में श्रेय सम्मान का अधिकारी बनने का सौभाग्य पा सकता हैं।

विश्व के समस्त धर्मो में जप को समुचित स्थान दिया गया है और इसे मनुष्य को उसका चरम उद्देश्य प्राप्त कराने वाला अमोघ अस्त्र कहा गया है। सम्प्रदाय विशेष के मन जो भी हों, जप की आवश्यकता सर्वत्र बताई गई है। हिन्दू धम्र के आध्यात्मिक कर्मकाण्ड का तो यह मेरुदण्ड है। बौद्ध एवं जैन मतावलम्बियों ने भी इसे अपनाया है। उनके साधना विधान में इस पर बल दिया गया है। सूफी मत एवं कैथोलिक मत वाले इसे प्राचीन काल से अपनाये हुए हैं। योगियों ने क्रियायोग में इसे स्वाध्याय का एक अंग माना है।

जप यौगिक अभ्यास के अंतर्गत आता है। जिसका अर्थ होता है-”किसी पवित्र मंत्र की पुनरावृत्ति करते रहना।” जप धातु का दूसरा अर्थ है- “जप व्यक्तायाँ वाचि” अर्थात् स्पष्ट बोलना। अतः मंत्र के बार बार उच्चारण को ही जप कहते है। यह अभ्यास कर्ता को उसके अंतिम उद्देश्य पर पहुँचने के योग्य बनाता है। इसकी व्याख्या करते हुए रामकृष्ण परमहंस ने कहा है “एकान्त में बैठकर मन ही मन भगवान का नाम लेना ही जप है”। इस प्रकार नाम स्मरण से अंतःकरण की शुद्धि होती हैं और उससे कषाय कल्मषों के बन्धन शिथिल पड़ते हैं। पापवृत्तियाँ छिन्न-भिन्न होती हैं।

भगवान कृष्ण ने इसे सब यज्ञों में श्रेष्ठ कहा है और अपनी विभूति बताया है। गीता के दसवें अध्याय में 25 वें श्लोक में कहा गया है- “यज्ञानाँ जपयज्ञोऽस्मि” अर्थात् यज्ञों में में जप यज्ञ हूँ। इसका नियत संख्या में नियमित रूप से गायत्री अथवा अन्य किसी इष्ट मंत्र का भाव प्रवण जप अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति करता है। संत तुलसीदास के शब्दों में विश्वासपूर्वक भगवद् नाम स्मरण से कठिन से कठिन संकटों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इसका आश्रय लेने पर दसों दिशाओं में साधक या उपासक पर कल्याण की मंगलमयी अमृत वर्षा होती हैं वे कहते है। “नाम जपत मंगल दिशि दस हूँ।” प्रमाण प्रस्तुत करते हुए उनने कहा है कि उलटा -सीधा जैसे भी बन पड़े भगवान के नाम का स्मरण करते रहना चाहिए। वाल्मीकि को राम नाम का सीधा उच्चारण कहाँ आता था। फिर भी- “उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।” समस्त ऋषि मुनियों, संत-महात्माओं ने मंत्र जप के माध्यम से ही महानता को वरण किया है, आत्म साक्षात्कार किया है।

भगवत् स्मरण उपासना का प्रधान अंग है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण हमें होता है। ईश्वर को स्मृति पटल पर बिठाने के लिए प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। शरीर पर नित्य मैल चढ़ता है और उसे साफ करने के लिए रोज नहाना पड़ता है। इसी तरह मन पर भी नित्य वातावरण में उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है। उस मलीनता को धोने के लिए नित्य ही उपासना करनी पड़ती हैं यह कार्य जप से आसानी से पूर्ण हो जाता है। स्मरण से आह्वान, आह्वान से स्थापन और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ता शास्त्र समस्त ही नहीं विज्ञान सम्मत भी हैं।

चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है- ‘लर्निंग’। इस भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रम लिया जाता है। शिक्षण की दूसरी परत हैं- ‘रिटेन्शन’ अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है- ‘रीतकाल’ अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीन कर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है- रीकाम्बीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। निष्ठा -आस्था एवं विश्वास में परिणत कर देना। जप साधना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता हैं व्यष्टि सत्ता को समष्टि सत्ता से जोड़ने के लिए मन को बार-बार स्मरण दिलाया जाता है क्योंकि वही आत्मा और परमात्मा की मध्यवर्ती कड़ी है। जप द्वारा अनभ्यस्त मन को सही रास्ते पर लाया जाता है और उसे प्रशिक्षित करके ईश्वरीय चेतना को मानस पटल पर जमाया जाता है ताकि उपयोगी प्रकाश की अंतःकरण में स्थापना हो सके। कुएँ की जगत पर लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक करते हरने से उसमें निशान बन जाते है। फिर कोई कारण नहीं कि भगवत् नाम को बहुत समय तक दुहराते रहने का गहराई तक जप सकना संभव न हों।

जप के लिए भारतीय धम्र में सर्वविदित और सर्वोपरि मंत्र गायत्री मंत्र का प्रतिपादन है। उसे गुरु मंत्र कहा गया है। अन्तःचेतना को प्रभावित और परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता उसे इसीलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान-विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।

जप का भौतिक महत्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेकानेक दिव्य क्षमताएँ चक्रों, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं, उनमें ऐसी सामर्थ्य सन्निहित हैं, जिन्हें जगाया जा सकें तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषतायें प्राप्त हो सकती हैं साधना का परिणाम सिद्धि है। वह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती है, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है। योग, दर्शन में स्पष्ट कहा है- कि मंत्र जप से सिद्धियाँ मिलती हैं। ईश्वर साक्षात्कार का मार्ग खुलता है। वह अभ्यास बहुत काल तक लगातार विधि व्यवस्था से ठीक ठीक किया जाने पर दृढ़ अवस्था वाला होता है। जप साधना का आश्रय लेने वाला साधक धीरे धीरे इतना ऊँचा उठ जाता है कि वह इसी साधना से समाधि तक पहुँच जाता है। सुप्रसिद्ध मनीषी सर जान वुडरफ ने भी अपने ग्रन्थ “गारलैण्ड आफ लेटर्स” में लिखा है कि मंत्र या शब्दों की विशेष रचना में गुप्त दिव्य शक्तियों का पुँज बना देती है।

जप साधना यदि भावना और श्रद्धापूर्वक की जाय तो उससे उत्पन्न होने वाली तरंगें अनय को निरस्त कर मनुष्य को श्रेय पथ पर अग्रसर करती हैं। श्रद्धा-विश्वास एवं इच्छाशक्ति के साथ जप द्वार मंत्रों में सन्निहित दिव्य शक्तियों को जगाया एवं आत्मसत्ता का स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है।


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