आत्मिकी का स्वरूप और प्रयोजन

May 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इस विश्व ब्रह्माण्ड में दो शक्ति सत्ताएँ आच्छादित हैं एक जड़ दूसरी चेतन। इन्हीं को प्रकृति और पुरुष भी कहते है, स्थूल और सूक्ष्म भी। इन दोनों का पृथक पृथक अस्तित्व और महत्व है पर सुयोग तभी बनता है जब वे एक दूसरे की सहायक बनकर संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित होतीं और अपने चमत्कार दिखाती हैं।

उदाहरण के लिए शरीर को ही लिया जाय। काया पंचतत्वों द्वारा विनिर्मित है। अंग अवयवों में रक्त-माँस, तन्तु-झिल्ली, अस्थि- मज्जा इत्यादि का मिलन एकीकरण हैं इसलिए उनसे इच्छानुरूप काम कराया जा सकता है शरीर तंत्र की प्रकृति का करामात ही इसे कह कसते है। इतने पर भी वह अपूर्ण है उसके भीतर एक चेतन काम करती है उसी का अचेतन भाग श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, आकुँचन-प्रकुँचन, सुषुप्ति-जागृत आदि की व्यवस्था बनाती रहती हैं उसकी का दूसरा पक्ष है- सचेतन। जो सोचता, निर्णय करता और इच्छानुसार कार्य करने का आदेश देकर अनेकानेक क्रिया कृत्य सम्पन्न कराता है।

जब तक जड़ चेतन का संयोग है तभी तक प्राणी जीवति रहता है। दोनों के विलग हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। भरा हुआ शरीर देखने में यथावत रखने पर भी सर्वथा निर्जीव हो जाता हैं। तेजी से सड़ने-गलने लगता है ताकि उसके घटक पृथक-पृथक होकर अपनी मूल स्थिति में जा पहुँचें निर्जीव शरीर बेकार है। शरीर रहित आत्मा अपना अस्तित्व भले ही बनाये रहती हो पर उसका प्रकट परिचय देने तक की स्थिति में नहीं रहता। मरणोपरान्त अदृश्य प्राण चेतना किस रूप में रहती है? पुनर्जन्म से पूर्व उसे किस स्थिति में कहाँ रहना पड़ता है। इसका केवल अनुमान ही लगाया जाता रहता हैं।

अभिप्राय इतना भर है कि जड़ और चेतन का समन्वय ही कोई सार्थक स्थिति का निर्माण करता हैं। अन्यथा इस विशाल में बिखरा पड़ा पदार्थ तत्व भी अपनी अस्तव्यस्तता और कुरूपता का ही परिचय देता हैं धरती पर ठोस रूप में-जलाशयों में द्रव रूप में और आकाश में वाष्पीभूत स्थिति में पदार्थ सत्ता बेतुके रूप में बिखरी पड़ी रहती है। थल प्रदेश जिसके साथ मनुष्य का संपर्क नहीं सधा है, वहीं खड्डे टीले जैसा ही कुछ अनगढ़ देखा पाया जाता है। वृक्ष वनस्पति वहाँ हैं तो उनकी क्रमबद्धता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है, पर वह इतना गहरा और खारी है कि उसका प्रयोग सर्वसाधारण के लिए किसी निमित्त कर सकना सींव नहीं आकाश में यों हवा का ही परिचय मिलता है, पर उन गैसों में भी विद्युत, विद्युतचुंबकीय, लेसर, एक्सरे जैसी सूर्य द्वारा उत्पादित किरणों की भरमार है। इनका स्वतंत्र कोई विशेष उपयोग नहीं। कभी कभी उस क्षेत्र में भी आँधी तूफान जैसे उद्दण्ड प्रकरण भी उभरते रहते हैं। मेघ-मालाएँ घुमड़ने और बिजली चमकने जैसे दृश्य कौतूहलवर्धक दृश्य तो सामने आते हैं पर उनकी शक्ति सामर्थ्य का ऐसा उपयोग नहीं बनता जिसे सराहा और उपयोगी कहा जा सकें। कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि। यहाँ तक कि समुद्रों से उठे बादल समुद्र पर ही बरस कर अपने बेतुकेपन का परिचय देते हैं। थल, जल और नभ के क्षेत्र में यदि चेतना का हस्तक्षेप न हुआ होता तो यहाँ अभी भी लगभग वैसा ही दीख पड़ता, जैसा अनादि काल में किसी प्रकार विनिर्मित हुआ था।

कहने का तात्पर्य यह है कि जड़ और चेतन का संयोग ही सब प्रकार अभीष्ट है। जीवन यात्रा के सुसंचालन तक में चेतना को पर्दा की और पदार्थ को चेतना की आवश्यकता पड़ती है तभी वे सुन्दर, सुव्यवस्थित और उपयोगी होने का प्रमाण-परिचय दे पाते हैं। भूमि को समतल बनाकर घास किस्म की वनस्पतियों को अन्न के रूप में खाद्य का प्रमुख आधार बना देता मनुष्य का ही कौशल है, यहाँ तक कि तापमान को चिनगारी से ले कर ज्वाला में बदल लेने का श्रेय भी मनुष्य को है। यद्यपि अग्नि एवं बिजली का अस्तित्व अनादि काल से सृष्टि परिकर में विद्यमान था पर उसका उद्घाटन तो मनुष्य ने ही किया है और उन सबका विविध प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने का कौशल उसी के पुरुषार्थ ने संभव कर दिखाया है।

ऊपर कुछ प्रारंभिक प्रत्यक्षीकरणों और उत्पादनों की चर्चा है जिनमें यह बताया उद्देश्य है कि प्रकृति के ठोस द्रव्य और व्याप्त कलेवरों में शक्ति सामर्थ्य कितनी ही क्यों न हो पर उनका लाभ लेना मानवी चेतना के कौशल पर ही निर्भर रहा है। आरंभिक काल से लेकर अब तक प्रकृति की शक्तियों का रहस्योद्घाटन, सुनियोजन और महत्वपूर्ण उपयोग बन पड़ना संभव बनाने वाली कुशलता का मना ही विज्ञान है। इस चमत्कारी उपलब्धि को जड़ -चेतन का समन्वय ही कह सकते हैं। इसी के बल पर वह प्रगति संभव हुई है जिसके आधार पर इस धरातल पर सर्वत्र सुख साधनों के अम्बार खड़े हो गये हैं। उनके सहारे मनुष्य अपने को सर्वश्रेष्ठ, शक्ति सम्पन्न एवं धरातल का अधिष्ठाता बनने का दावा करते देखा जाता है। वह दावा किसी सीमा तक सही भी है। वन्य पशुओं और मनुष्य की तुलनात्मक समीक्षा करने पर सहज ही जाना जा सकता है कि पदार्थ को सुनियोजित करने की क्षमता-जिसे विज्ञान कहते हैं, कितना सशक्त-समर्थ और कितने सुविधाओं से भरा पूरा है। पदार्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्त्रोत - उद्गम और कार्य क्षेत्र पृथक हैं। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुन्दर और इतना श्रेय उस विज्ञान रूपी विधा को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता भी कहा जा सकता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य सुखी समृद्धि है, यह तभी बन पड़ा जब विज्ञान के रहस्यों को उद्घाटित कर उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न करना संभव हुआ।

इस मोटी जानकारी के उपरान्त एक और भी बड़ी विचारणीय रह जाती है कि पदार्थ का उपयोग जानना ही पर्याप्त नहीं, उसका सदुपयोग भी समझा जाना चाहिए। वह विभाजन रेखा मात्र पदार्थ तक ही सीमित नहीं है वरन् स्वयं चेतना के अपने आपे पर भी लागू होती हैं। इन दोनों महाशक्तियों का यदि सदुपयोग न बन पड़े तो फिर दूसरा पक्ष दुरुपयोग ही रह जाता है। विज्ञान को, शक्ति और साधन उत्पन्न करने का श्रेय तो है पर वह स्वयं इस स्थिति में नहीं है कि सदुपयोग और दुरुपयोग का अन्तर कर सकें। देखा गया है कि तात्कालिक लाभ की संकीर्णता प्रायः नहीं के बराबर होती है। इसलिए प्रलोभनों, आकर्षण, लिप्साओं की प्रबलता उपलब्ध शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए ही घसीट ले जाती है। जाल में फँसने वाली चिड़िया, मछली का उदाहरण इस संदर्भ में प्रायः दिया जाता रहता हैं। इसे विज्ञान वैभव को अनर्थ के लिए नियोजित करना भी कह सकते हैं। पतन तात्कालिन लाभ की आतुरता के साथ जुड़ हुआ है। आमतौर से यही किया और अपनाया जाता हैं। फलस्वरूप व्यक्ति अपने सुदूर भविष्य को अन्धकारमय बनाता है। त्रास सहता है और आत्म प्रताड़ना के साथ साथ लोक भर्त्सना का भाजन बनता है। इसकी रोकथाम समाज, शासन द्वारा तो यत्किंचित ही बन पड़ती है। उसे सहज भ्रम में डाला या लुभाया जा सकता है। मात्र एक ही रोकथाम का उपाय है दूरदर्शिता पर आधारित विवेकशीलता, मानव गरिमा के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता। इसी को तत्वदर्शन की भाषा में अध्यात्म कहा गया है।

पर्दा से भी अधिक शक्तिवान है चेतना। उसी का कौशल और चमत्कार है कि पदार्थ को अनगढ़ से सुगढ़ स्थिति तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त हुई है। फिर भी एक आश्चर्य और भी शेष रह जाता है कि विज्ञान की जन्मदात्री होने पर भी यह चेतना अपने आपके सम्बन्ध में भी कम दिग्भ्रांत नहीं रहती। अपने को भी अपना मकड़जाल बुनकर फँसाने और असाधारण सन्त्रास सहते रहने के लिए बाधित होती रहती है। यह और भी जटिल स्थिति है। दूसरों के संबंध में समीक्षा करना सरल पड़ता है। दूसरों के रूप का भला बुरा वर्णन किया जा सकता है, पर आत्म समीक्षा कैसे बन पड़? अपने प्रति पक्षपात भी रहता है और सर्वोत्तम होने का आग्रह भी। ऐसी दशा में दृष्टिकोण गड़बड़ाता है एवं कुकल्पनायें उठती हैं। अपने को सही सिद्ध करने वाले अनेकानेक तर्क साथ देते हैं। बुद्धि का निर्णय कभी तद्नुरूप ही होता है। जैसा कि सामान्यतया मानस बन गया है।

ऐसी दशा में यह कठिनाई भी सामने आती है कि अपना दृष्टिकोण उत्कृष्ट आदर्शवादिता के ढाँचे में कैसे ढले? व्यवहार में ऐसी शालीनता का समावेश कैसे हो? जिस मानवी गरिमा के उपयुक्त कहा जा सके? जिसके आधार पर चरित्र और व्यवहार ऐसा बन सकें, जिससे उपलब्ध साधनों का सदुपयोग बन पड़े? दूसरों के साथ सज्जनता स्तर का शिष्टाचार निभ सके?

यह ध्यान में रखने योग्य बात एक है कि लोग आदर्शों की बात का मौखिक समर्थन तो अपने बड़प्पन बघारने के लिए करते रहते हैं। वैसे धर्मोपदेश सुनकर उनके प्रति समर्थन भी व्यक्त कर देते हैं पर मानते और करते वही रहते हैं जो पहले से ही मजबूती के साथ अपनी मान्यताओं में समाविष्ट कर रखा है। आत्म सुधार के क्षेत्र में यही भारी संकट है। उपदेश, परामर्श शास्त्र उल्लेख आप्त वचन जब कान, मस्तिष्क तक टकरा कर ही बाहर निकल जायँ और उसका प्रीव अन्तराल की गहराइयों तक न पहुँचे तो चेतना का परिष्कार किस आधार पर बन पड़?

इस संदर्भ में एक ही आधार कारगर हो सका है और वह है आत्म समीक्षा निष्पक्ष भाव से कर सकने की क्षमता। आत्म सुधार और आत्म आपे का सुधार परिष्कार उस आत्मबल के पक्षधर तत्वदर्शन के माध्यम से ही हो सकता है, जिसे पुरातन भाषा में अध्यात्म’ कहते हैं। विज्ञान वैभव का सदुपयोग और आत्म चेतना का परिष्कार ये दोनों ही प्रयोजन जिस आधार पर सिद्ध हो सकें, उसे एक शब्द में अध्यात्म कहा जा सकता है, उच्चस्तरीय तत्वदर्शन भी।

लोक व्यवहार में अध्यात्म और विज्ञान की दो पृथक धारायें बन गई हैं। दोनों ने अपने-अपने दुर्ग अलग-अलग खड़े कर लिए हैं। भ्रान्तियाँ दोनों पर ही अपने अपने ढंग की सवार है। वे जिस भी स्थिति में है अपने को पूर्ण मान कर चल रहे हैं। जिस प्रकार बँटे हुए आदिम स्तर के कबीले एक दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति रखने की आवश्यकता नहीं समझते, उसी प्रकार दोनों वर्ग के सत्ताधारी यह सोच बनाकर चले हैं कि वे अपने आप में पूर्ण हैं।

वैज्ञानिक क्षेत्रों में आध्यात्म को अन्धविश्वास, कल्पनाओं की उड़ान और प्रतिगामियों का बौद्धिक षड़यन्त्र कहना शुरू कर दिया गया है। धर्म को अफीम की गोली और तत्वदर्शन को भ्रांतियों की पिटारी ठहराना शुरू कर दिया गया है। इस द्वन्द्व में मनुष्य जाति को असीम क्षति उठानी पड़ रही हैं गाड़ी को खींचने वाले दो बैल यदि परस्पर सींग मारने पर उतर आयें तो यात्रा हो नहीं सकेगी। वे बैल भी आहत होकर उस उद्देश्य को चोट पहुँचायेंगे जिसके लिए दोनों गाड़ी में जुते और एक दिशा में चल कर एक लक्ष्य पूरा करने के लिए नियोजित हुए थे। अब समय आ गया है कि दोनों पक्ष एक दूसरे की उपयोगिता व समन्वय की आवश्यकता समझते हुए चिन्तन के अवरुद्ध द्वार खोले। मानव जाति का भविष्य इसी समन्वय पर टिका हुआ है।

वैज्ञानिक क्षेत्रों में आध्यात्म को अन्धविश्वास, कल्पनाओं की उड़ान और प्रतिगामियों का बौद्धिक षड़यन्त्र कहना शुरू कर दिया गया है। धर्म को अफीम की गोली और तत्वदर्शन को भ्रांतियों की पिटारी ठहराना शुरू कर दिया गया है। इस द्वन्द्व में मनुष्य जाति को असीम क्षति उठानी पड़ रही हैं गाड़ी को खींचने वाले दो बैल यदि परस्पर सींग मारने पर उतर आयें तो यात्रा हो नहीं सकेगी। वे बैल भी आहत होकर उस उद्देश्य को चोट पहुंचायेंगे जिसके लिए दोनों गाड़ी में जुते और एक दिशा में चल कर एक लक्ष्य पूरा करने के लिए नियोजित हुए थे। अब समय आ गया है कि दोनों पक्ष एक दूसरे की उपयोगिता व समन्वय की आवश्यकता समझते हुए चिन्तन के अवरुद्ध द्वार खोले। मानव जाति का भविष्य इसी समन्वय पर टिका हुआ है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118