आत्मबल सर्वोपरि

May 1989

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दायें बाएँ अलग-अलग चारों और पुस्तकें रखी हुई थीं। विश्व कवि रविंद्रनाथ टैगोर अपने अध्ययन कक्ष में बैठे तन्मयता से साहित्य सृजन कर रहे थे। वे अपने काम में इतने तल्लीन थे कि कमरे के बाहर और कमरे के भीतर क्या हो रहा है? इसका तनिक भी ध्यान नहीं था। चुपके से एक व्यक्ति ने उनके कक्ष में प्रवेश किया, रविंद्रबाबू को इसका भी पता नहीं चला।

उस व्यक्ति के चेहरे से भयावह हिंस्र भाव टपक रहा था। डराबने नैगे, चेहरे पर तनाव, हाथ में लपलपाता सा लम्बा छुरा। वह चुपके से रविंद्रबाबू के सामने आ कर खड़ा हो गय और एक एक शब्द को चबा-चबा कर बोलने के से ढंग से कहा, “आने प्रभु का स्मरण कर लो। मैं तुम्हारी हत्या करने आया हूँ।”

विश्व कवि की साम्यता ये शब्द सुन कर टूटी ओर उन्होंने उस व्यक्ति की और दृष्टि उठा कर देखा, “तुम मेरी हत्या करने आये हो? रविंद्र बाबू ने पूछा।

देखते नहीं मेरे हाथ में यह छुरा है। आज मैं तुम्हारी इहलीला समाप्त करने आया हूँ, उस व्यक्ति ने अपने हाथ में छुरा नचाते हुए कहा।

वह व्यक्ति रविंद्रबाबू के किसी विरोधी द्वारा उकसाने और लालच देने पर विश्व की इस महान विभूति का अन्त करने के लिए आया था ताकि सूरज अस्त हो जाए और जुगनुओं को चमकने का अवसर मिले।

रविंद्रबाबू ने उस की ओर देखा, जैसे पुस्तक का कोई पन्ना देख रहें हों। न मन में भय न मृत्यु का डर। बहुत ही मधुर स्वर में उन्होंने कहा, तो ठीक है। परन्तु तुम जरा जल्दी अ गये। मुझे यह कविता पूरी कर लेने दो। तब तक आराम से बैठों।

‘मूर्ख-नहीं मैं’, यह गुर्राया, तब तक तुम्हारे सेवक इस बीच यहाँ एकाम चक्कर लगायेंगे ही और तुम अपनी रक्षा के लिए कोई उपाय कर लोगे।

हँसे रविंद्रबाबू! उनकी हँसी भी शाँत और निश्चल थी। फिर रुक कर उन्होंने कहा, ‘गलत समझे हो मित्र। इस समय सभी लोग सो चुके, आधी रात्रि बीतने जा रही है। जरा अनुमान तो लगाओ इस आधी रत में कौन मेरे पास आएगा।

फिर उन्होंने कहा, तुम्हें मेरी हत्या के लिए भेजा गया है। मैं नहीं चाहता कि तुम असुल होकर लौटो और मुझे मृत्यु का भी कोई भय नहीं है। परन्तु कठिनाई यह है कि इस समय मेरी यह रचना अधूरी पड़ी हुई है। इस समय तुम साक्षातकाल बने हुए हो। तु से इतना ही निवेदन करता हूँ कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करों और रचना पूरी हो जाने दो।

विश्व कवि उसी प्रकार आकर्षित और वाणी में कहते जा रहे थे परंतु वह व्यक्ति समझ रहा था कि शायद रविंद्रबाबू मृत्यु से डर रहें है। इसलिए वह कड़क कर बोला, ‘मेरे पास समय नहीं है अपनी और इसी क्षण मुझे अपना काम करना है। अतः अपनी कलम नीचे रख दो और मरने के लिए तैयार हो जाओ,।

रवीन्द्र बाबू अब भी शाँत और संयत थे। हत्या के उद्देश्य से आये आगन्तुक को इस प्रकार समझा रहे थे, जैसे कोई हठी बच्चे को समझा रहा हो और कोई जब बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता है तो उसे जिस तरह डपट दिया जाता है। उसी प्रकार रविंद्रबाबू ने उसे डप्टा, “चुप चाप बैठ जाओ। मुझे अपना काम करने दो’’।

धक्क रह गया हत्या के उद्देश्य से आया गुण्डा रविंद्रबाबू इतना कह कर चुप चाप अपने काम में लग गए। उनके इन शब्दों और मृत्यु की ओर से भी लापरवाही बेखबर रहते हुए अपने काम को प्राथमिकता देने वाले मनोबल ने हत्यारे को परास्त कर दिया।

यह कुछ ही क्षणों तक वहाँ ठहर सका था। बोला, ‘क्षमा कीजिए गुरुदेव! मैं आज एक जघन्य अपराध से बच गया। कहीं हाथ उठ जाता तो एक देव पुरुष से भारत ही नहीं समूचा विश्व शून्य हो जाता’ और वह जिस तरह आया था, उसी तरह चला गया।


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