ब्रह्मचर्य की सही परिभाषा

May 1989

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काम शक्ति का परिष्कार एवं ऊर्ध्वारोहण न केवल शारीरिक बलिष्ठता की दृष्टि से जरूरी, वरन् मानसिक प्रखरता के लिए भी अनिवार्य है। सृजनात्मकता एवं समस्त सफलताओं का मूलाधार भी यही हैं इसका आरीं इन्द्रिय संयम से होता है। किन्तु समापन ब्रह्म में एकाकार होकर होने के रूप में होता है। ब्रह्मचर्य की संयम-साधना दमन का नहीं, परिष्कार एवं ऊर्ध्वीकरण का मार्ग है। इसका सुंदरतम स्वरूप आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के रूप में दिखाई पड़ता है। इस तथ्य से अवगत होने पर जीवनी शक्ति का क्षरण रुकता है।

ब्रह्मचर्य का महत्व न समझने वाले व्यक्ति काम शक्ति का दुरुपयोग भोग लिप्सा-यौन लिप्सा में करते हैं। फलतः इसके दिव्य अनुदानों का लाभ, जो श्रेष्ठ विचारों- उदात्तभाव-संवेदनाओं के रूप में मिलता हैं, उसे नहीं उठा पाते। अद्भुत सृजनशक्ति आधार क्षणिक इन्द्रिय सुखों के आवेश में नष्ट होकर मनुष्य की प्रगति को रोक देता है। इससे वह अपने पूर्व संचित तथा अब की उपार्जित क्षमताओं को भी गँवा बैठता है, साथ ही दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भुगतता है। कामुक लोगों यौन स्वेच्छाचारियों को एड्स क्षय जैसे प्राणघातक बीमारियों से ग्रसित होकर बेमौत मरते देखा जाता है शारीरिक काम सेवन से धातु क्षय की हानि तो होती है, उससे भी बड़ी हानि मानसिक व्यभिचार से होती है, उससे भी बड़ी हानि मानसिक व्यभिचार में होती है। उसमें ओजस् ही नहीं मनस् भी क्षीण होता है और व्यक्ति संकल्प, साहस और मनोबल भी गँवा बैठता है। ऐसे व्यक्ति हर दृष्टि से खोखले हो जाते हैं।

अध्यात्मवेत्ता ऋषि-मनीषियों का युगों- युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि इस अदूरदर्शी क्षरण को रोक सके तो उस बचत से इतना बड़ा भंडार जमा हो सकता है जिसके बलबूते विपुल विभूतियों का अधिपति बन सकें। अथर्ववेद की ऋचा 1/5/19 में कहा है-कि ब्रह्मचर्य द्वारा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इस प्रतिपादन में तथ्य यह है कि उसे बहुत समय के लिए टाला जा सकता हैं हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, विवेकानंद आदि इसी के उदाहरण है।

यह एक तथ्य है कि ऋषियों और मनीषियों में से अधिकाँश संयमी ब्रह्मचारी रहें है, परिणाम स्वरूप उनकी क्षमता, प्रतिभा, प्रखरता एवं भाव संवेदनाएं भी बढ़ी चढ़ी रही हैं। रामकृष्ण परमहंस एवं जापान के गाँधी का गावा के ऐसे उदाहरण है। दो सांडों के टकराव को रोकने के लिए दयानन्द सरस्वती ने उन दोनों के सींग पकड़ कर मरोड़ और धकेल कर दूर पटक दिये थे। अपनी संयम शक्ति के बल पर ही उन्होंने एक राजा की बग्घी रोक कर दिखाई थी। शिवाजी को उनकी संयम साधना एवं पात्रता क आधार पर ही भवानी तलवार हस्तगत हुई थी। आद्य शंकराचार्य, विवेकानन्द, समर्थ गुरुरामदास, विनोबा आदि महापुरुषों की प्रतिभाओं का मूल स्त्रोत उनकी संयम शक्ति थी। निश्चय ही ब्रह्मचर्य की शक्ति महान है। घेरण्ड संहिता में शिव का वचन है- “बिन्दु को सिद्ध कर लेने पर इस धरती काी कोई सिद्धि ऐसी नहीं जो प्राप्त न हो सकें।”

ब्रह्मचर्य का पूर्ण परिपालन कैसे निभे? क्या अविवाहित रहना ही ब्रह्मचर्य है? आदि प्रश्नों की गहराई में उतरने पर स्पष्ट होता है कि इसकी गहराई में उतरने पर स्पष्ट होता है कि इसकी प्रधान भूमिका मानसिक है। अन्यथा कितने ही विवाहित लोग पूर्ण संयमी रहते और दीर्घ जीवन क आनंद उठाते है। इसके विपरीत तथा कथित अविवाहित ब्रह्मचारी, साधु-संन्यासी खोखले, निस्तेज दीखते और नाना प्रकार की आधि व्याधियों से घिरे असंयम दम तोड़ते देखे जाते हैं। वस्तुतः वीर्य रक्षा का लाभ उन्हें ही मिल पाता है जो अश्लील -चिन्तक-कामुक-आचरण से अपने मन-मस्तिष्क का बचाये रखते हैं। मन, वचन, कर्म से इन्द्रिय-निग्रह ही “ब्रह्मचर्य” है।


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