एक सूखा वृक्ष खड़ा था। ठूँठ रह गया था। उसे भी लोग काटने की तैयारी करने लगे। ठूँठ ने लोगों पर कृतघ्नता का आरोप लगाते हुए कहा। यही है वे लोग जो मेरी छाया में फल सम्पदा का भरपूर लाभ उठाया करते थे। अब जब कि मैं सूख गया हूँ तो इन्हें मेरा अस्तित्व बना रहना भी सहन नहीं होता
पास में खड़ा दूसरा वृक्ष मुस्कराया। उसने कहा-मित्र! अपने सोचने का ढँग बदलों। यह कहो कि जब हरा था तब भी लोगों की सेवा करता रहा और जब सूख गया हूँ तो भी उनके जलाने के काम आता हूँ। सेवा समर्पण का व्रत अन्त तक निभता रहा। यह क्या कम सौभाग्य की बात है?