इतना आसान नहीं है कुंडलिनी जागरण

June 2000

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साधकों का एक समूह बंद सभागार में बैठा है। उनकी संख्या सौ सवा सौ के आसपास होगी। मंच पर भगवा या सफेद वस्त्र पहने दाढ़ी मूँछ वाला कोई व्यक्ति विशिष्ट भंगिमा बनाए आसीन है। सभागार में सभी साधक जमीन पर ही बैठे है। ऐसे स्थान का चुनाव जानबूझकर किया गया है। गुरु जैसा दिखाई देने वाला व्यक्ति सामने बैठे लोगों को निर्देश देता है। पालथी मारकर बैठ जाएँ। कमर सीधी रखें। गहरी साँस लें। कुछ देर साँस को भीतर ही रोके रहे और अब गहरी साँस छोड़ें।

पाँच बार इस तरह का निर्देश देकर वे सज्जन कहते हैं कि अब हम कुँडलिनी जागरण के प्रयोग में उतरेंगे। दिए जा रहे निर्देशों का पालन करें । पहले चरण में शरीर को शिथिल छोड़ दें। किसी भी अंग में कोई तनाव न रहे। पहले पाँव के अँगूठे को शिथिल करें। पिंडली,जंघा, पेडू, उदर, पीठ, सीना, हाथ, आदि अंगों को शिथिल करते करते सिर तक आएँ। गरदन,ठोड़ी, छोड़ते जाएँ। पूरा शरीर शिथिल हो रहा है। अपने आपको शिथिल अनुभव करें। पूरी तरह शिथिल।

पंद्रह मिनट इन निर्देशों को दोहराने के बाद गुरु कहता है अब पंद्रह मिनट का दूसरा चरण शुरू होता है। इस चरण में अपने शरीर को गति करने दो। नाचे जैसा मन को भाए उसी तरह नाचें। अपनी ओर से कोई प्रयास नहीं करें। शरीर अपने आप जैसी गति करे करने दें। अनुभव करें कि ऊर्जा उत्पन्न हो रही है। पाँव से उठाकर वह ऊपर की ओर बढ़ रही है। अपना नियंत्रण छोड़ दें और शरीर जो भी गति करना चाहे करने दें।

तीसरे चरण में गुरु/ मास्टर कहता है कि अब आंखें बंद कर ले। थम जाएँ । निश्चल बैठे या खड़े रहे। जो भी हो उसके केवल साक्षी बने रहें। अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया न हो न ही जो हो रहा है उसमें भागीदार बनें। चौथे चरण में नीचे गिर जाने, लेटने और निश्चल पड़े रहने के लिए कहा जाता है।

यह अभ्यास कुँडलिनी जागरण का सुगम मार्ग बताते हुए कराया जाता है। योग तंत्र और गुहा शक्तियों के प्रति बढ़ते आकर्षण के कारण इन अभ्यासों से कुँडलिनी जागरण के संबंध में भ्रम और भटकाव ही ज्यादा फैले है। यदि घंटे आध घंटे के अभ्यास साधकों की कुँडलिनी जगा सकते होते तो हजारों लाखों लोग दिव्य अलौकिक क्षमताओं से संपन्न होते । क्योंकि कुँडलिनी जागरण व्यक्ति के सीमित आकाश को असीम में बदल देता है। उसकी क्षमताओं को विस्फोट की तरफ जगा देता है।

कुँडलिनी जागरण का एक और लोकप्रिय अभ्यास शक्तिपात के रूप में है। इस अभ्यास में गुरु अथवा सिद्ध व्यक्ति मंच पर बैठ जाते हैं। सामने सैकड़ों और विशिष्ठ आयोजनों में हजारों लोग सुखासन से बैठे होते हैं। सिद्ध शिक्षक शरीर मन बुद्धि चित और अहंकार के शाँत होने का निर्देश देता है। कुछ देर तक इन निर्देशों को दोहराने के बाद सीधे कहा जाता है कि अपने मूलाधार चक्र से बिजली की तरह कौंधती हुई शक्ति का अनुभव करो। अनुभव करें कि वह जाग रही है और लपलपाती हुई आज्ञाचक्र या सहस्रार की ओर दौड़ रही है। कुंडलिनी जाग रही है, जाग चुकी है। अब साधकों को विशेष कुछ करना आवश्यक नहीं है। जिन्हें ऐसा अनुभव नहीं होता उन्हें भी मानना पड़ता है कि ऐसा कुछ हुआ अवश्य है।

एक अन्य अभ्यास में दो चार साधक इतने ही सिद्ध शिक्षकों के साथ बैठते हैं। पालथी मारकर सुखपूर्वक कमर सीधी रखकर बैठे साधकों को सामने जल रहे दीपक ली लौ पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा जाता है। बहुत बार सामने प्रमुख गुरु का चित्र भी होता है। साधक के पीछे बैठे शिक्षक रीढ़ की हड्डी से चार इंच की दूरी रखते हुए सहलाते हुए से हथेली ऊपर ले जाते हैं, नीचे लाते हैं और फिर ऊपर ले जाते हैं। यह क्रिया ऊपर उठाने का निर्देश देती हुई प्रतीत होती है। बीस मिनट के इस अभ्यास के बाद शिक्षक आश्वस्त करता है, तुम्हारी कुँडलिनी की निद्रा टूट गई है। वह जाग रही है, सक्रिय हो गई है, इस अभ्यास को चालीस दिन तक जारी रखो। पूर्ण जाग्रत हो जाएगी और तुम्हें धन्य बना देगी।

तंत्रविद्या और गुह्य साधनाओं के अलावा सिद्ध संतों की खोज में पूरा जीवन बिता देने वाले महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज एवं परमपूज्य गुरुदेव ने कुँडलिनी जागरण के इन अभ्यासों को छलावा कहा है। दोनों के अनुसार सिर्फ मान लेने या कल्पना करने से ही कुँडलिनी जाग्रत नहीं हो जाती व्यक्ति में दिव्य क्षमताओं का परिचय भी मिलना चाहिए। इन क्षमताओं में सृजन की क्षमता साहित्यिक व कलात्मक प्रतिभा का उदय संकल्प सिद्धि दूसरों के मान की बात जान लेना,अतींद्रिय क्षमताएँ जाग्रत हो जाना सूक्ष्मशरीरधारी जीवों से संपर्क बना लेना और मोक्ष प्राप्त कर लेने जैसी सिद्धियां मुख्य है। सिद्धियों को साधना के मार्ग में उपलब्धि के रूप में नहीं देखा जाता । वे मात्र यह संकेत देती है कि साधना के मार्ग पर प्रगति हो रही है। सिद्धियां उस मार्ग पर मील के पत्थर की तरह है। साधक के लिए शास्त्र और गुरु का निर्देश है कि इन सिद्धियों में अपने आपको भूले नहीं। उन्हें देखकर उत्साह बढ़ता अनुभव करें और मुक्ति तक पहुँचकर ही विराम लें। परमपूज्य गुरुदेव ने साधना से सिद्धि में इस संबंध में विशेष निर्देश दिये है।

कुँडलिनी जागरण के जो लक्षण क्रमश गिनाए जाते हैं, वे अथवा उनका थोड़ा भी अंश साधक में नहीं है,तो साधना सिद्धि को अपने आप से छलावा ही कहेंगे। घंटे आधा घंटे के अभ्यास से महीने पंद्रह दिन में कुँडलिनी जगाने के आश्वासन साधक के लिए प्रवचन मात्र ही है। पंडित गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि महीने पंद्रह दिन के अभ्यास में इतना व्यतिक्रम आने से वापस सो भी सकती है। जो पात्र मामूली प्रयत्न से चमक उठता है, वह थोड़ी सी गंदगी के कारण मलीन भी हो सकता है। यह अनुभूत तथ्य है कि महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्रचंड पुरुषार्थ और निरंतर साधना से ही प्राप्त हो सकती है। प्रयत्न उसी स्तर के होने चाहिए।

कुँडलिनी की अर्थ कुँडल फेरा या लपेटा किया जाता है। तीन चार आवृत्ति में घूमे वर्तुल को कुँडलिनी कहते हैं। यह शब्द सामान्य स्थिति में शरीर को लपेटे मारकर बैठी सर्पिणी के प्रतीक का बोध कराने के लिए चुना गया है। कुँडलिनी का अर्थ फेरा तो है, लेकिन वह इतना ही नहीं है। सही अर्थ है- गहरा स्थान या गड्ढा। अगर एक गड्ढा बनाया जाए और वह कुछ गहरा बन जाए, तो उसे कुँड कहते हैं। उस कुंड से संबंधित चीज को कुँडलिनी कहेंगे।

योगशास्त्र के मर्मज्ञ कहते हैं कि मस्तिष्क में एक गहरा गड्ढा है। वहाँ दिव्यशक्ति छिपी पड़ी है। यह गड्ढा सिर को छेदकर या दिमाग का आपरेशन कर नहीं ढूंढ़ा जा सकता। इसका अस्तित्व स्थूल मस्तिष्क में नहीं सूक्ष्मशरीर में है। इस केंद्र को योगसाधनाओं से निर्मल हुए चित्त में केवल अनुभव ही किया जा सकता है। स्वामी सत्यानंद के अनुसार मस्तिष्क में विद्यमान उस गहर अथवा कुँड को जगा दिया जाए तो व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व में स्थित शक्तिकेंद्र जाग उठते हैं। सामान्य स्थिति में ये केंद्र सोए पड़े रहते हैं।

सिद्ध योगी या गुरु साधक पर जब शक्तिपात करते हैं,तो मस्तिष्क का यही केंद्र जागता है। गुरु अपने शिष्य पर अनुग्रह करते हुए उसके सिर पर हाथ रखते हैं। आशीर्वाद के उस क्रम में ही शक्ति का संचार हस्ताँतरण या जागरण होता है। शक्ति यों पूरे व्यक्तित्व में ही व्याप्त है। कुछ केंद्र इसके नियंत्रण की भूमिका में होते है। वहाँ से इसका संचालन जागरण और निष्क्रमण होता है। दैनंदिन जीवन में किसी भी यंत्र को चलाने के लिए स्विच ऑन या ऑफ करने के उदाहरण से इस तथ्य को समझा जा सकता है। बिजली सभी जगह व्याप्त है, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता है। बिजली का उपयोग करना हो तो एक प्रक्रिया से गुजरते हैं। उसके लिए बिजली के उत्पादन और वितरण तंत्र से संपर्क स्थापित करते हैं। उस संपर्क को जाग्रत और प्रसुप्त करने के लिए स्विच ऑन या ऑफ किया जा सकता है। मानवी चेतना में व्याप्त शक्ति को ऊर्जा के विराट सागर से जोड़ने अथवा उसे अपने भीतर उद्घाटित करने के लिए अवतरण या जागरण संपन्न होने के बाद संकल्प मात्र से अभीष्ट केंद्रों को सक्रिय किया और रोका जा सकता है।

मस्तिष्क में शक्तिकेंद्रों के शिखर सहस्रार में अपूर्व ऊर्जा भरी हुई है। कुछ सिद्ध योगियों का अनुभव है कि इस के इस केंद्र तक पहुँचने का मार्ग मूलाधार चक्र से आरंभ होता है। छह,सात आठ नौ,इक्कीस अथवा चौसठ चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार है। समझा जाता है कि महाशक्ति यही पर सर्पाकार कुँडली मारकर बैठी हुई है। यहाँ कुँडली से आशय मूलाधार चक्र पर पलेटे मारकर बैठना है। अनुभवी योगियों ने इस स्थान पर बैठी कुँडली को सर्पिणी भी कहा जाता है। उनके अनुसार मूलाधार केंद्र में बैठी सर्पिणी सामान्य स्थिति में सुप्त अवस्था में होती है।

कुँडलिनी को सर्पिणी के रूपक से समझाया गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह नाग या नागिन है। आशय सिर्फ इतना है कि महाशक्ति चमकती हुई लपलपाती और सधी हुई अवस्था में जीवनदायिनी अन्यथा प्राणलेवा भी है। जिस युग के योगियों ने कुँडलिनी महाशक्ति का अनुभव किया, उस युग में किसी सीमित स्थान में सीमित शक्ति के लिए सर्प ही उपयुक्त प्रतीक था। उसमें दीप्ति, स्फूर्ति, ऊर्जा और विष की जो क्षमताएँ है, वे मूलाधार चक्र में प्रसुप्त शक्ति की विशेषताओं से मेल खाती है। शक्ति का स्वयं कोई आकार या रूप नहीं सर्प या सर्पिणी का उपयोग किया गया।

आज के युग में किसी को कुँडलिनी का प्रथम अनुभव होता तो संभव है दूसरे प्रतीक चुने जाते। आज की स्थिति और काल के अनुरूप कोई प्रतीक चुनना होता, तो कुँडलिनी को विद्युत के रूपक से समझाया जाता। निराकार, दीप्तिवान, कौंधती हुई ऊर्जा और संभालकर चलें तो निहाल कर देने वाली क्षमता बिजली में विद्यमान है। बिना संभाले, असावधानी से इस्तेमाल किए जाने पर बिजली सर्प से भी ज्यादा घातक सिद्ध होती है। कुँडलिनी जागरण के अनुभव से गुजरे विभिन्न योगी इस शक्ति को आकाश में कौंधती और घरों में अकस्मात चमक उठने वाली बिजली की तरह देखते भी है। शक्तिपात के समय भी कुछ शिष्य-साधकों को इसी तरह का अनुभव हुआ है।

विज्ञान के विद्यार्थी और योग के साधकों ने कुँडलिनी की तुलना अणुशक्ति से की है। अणु का विखंडन संभाला न जाए तो विनाश कर देता है और उसका व्यवस्थित उपयोग किया जाए, तो कई शहरों को निरन्तर बिजली दे सकता है।

कुँडलिनी यदि महाशक्ति है, तो उसे जगाने के उपाय बहुत आसान नहीं हो सकते। कम से कम बाजीगरी की तरह तो उसे जगाने का चमत्कार नहीं किया जा सकता। माचिस की तीली जलाकर थोड़ी देर के लिए तो रोशनी की जा सकती है। लेकिन उससे मशीनें नहीं चलाई जा सकती। तीली से निकली हुई लौ वसन, भूषण और छप्पर में आग लगा सकती है। बड़ा अग्निकाँड भी हो सकता है। लेकिन उससे सृजन के बड़ उद्देश्य पूरे नहीं होते। बड़े उद्देश्यों के लिए व्यवस्थित तैयारी और धैर्य चाहिए। कुँडलिनी महाशक्ति के रचनात्मक उपयोग के लिए भी वैसी ही निष्ठा ओर तन्मयता भरे उद्यम की आवश्यकता है। अध्यात्म की व्यवहार-भाषा में इसे संयमपूर्वक की गई निरन्तर, अनथक और नैष्ठिक साधना नाम देंगे।

योगियों ने मिथ्या- जागरण, भ्रम या आत्मवंचना के खतरे भी बताए है। इस स्थिति में साधना अवरुद्ध हो जाती है। लक्ष्य तक पहुँचे बिना ही वहाँ पहुँचा मान लिया जाए तो प्रगति का रुक जाना स्वभाविक है। आत्मवंचना की यह स्थिति साधना शक्तिपात के ‘शार्टकट’ से उत्पन्न होती है एकाधबार के नृत्य ध्यान से ही जिस चमत्कार का आश्वासन दिया जाता है, वह प्रायः वंचनामूलक ही होता है। गुरु लोग ‘कुँडलिनी जग गई ओर जागी रहेगी। कहकर साधक का भारी अहित कर देते हैं। उसकी भारी संभावनाओं पर भी रोक लगा देते हैं।

कुँडलिनी जागरण के लिए किए जा रहे त्वरित (इंस्टाँट) आधुनिक प्रयोगों में उन्मत्त स्थिति भी दिखाई देती है। योगशास्त्रों के अनुसार जब यह महाशक्ति जागती है, तो साधक चीखने-चिल्लाने लगता है, कभी वह गुमसुम, उदास होकर बैठ जाता है। वह निरर्थक प्रलाप भी करने लगता है। इस तरह की अभिव्यक्तियों के भिन्न-भिन्न कारण है। उनकी विवेचना के लिए अलग विस्तार चाहिए। संक्षेप में इन अभिव्यक्तियों को उन्मत्त प्रलाप कह सकते हैं। आधुनिक प्रयोगों के दौरान भी साधक इस तरह की अभिव्यक्तियाँ करते दिखाई देते हैं लेकिन ये अभिव्यक्तियाँ जागरण के लक्षण नहीं है। ये लक्षण ही महाशक्ति का चिन्ह होते तो उन सभी रोगियों को सिद्धि की और बढ़ता बताना चाहिए था, जो अपनी मनश्चिकित्सा करवा रहे है।

स्वामी सत्यानंद जी ने इस अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि भ्रम, पागलपन ओर आध्यात्मिक जाग्रति की स्थितियों में प्रायः एक जैसी स्थिति होती है अंत सिर्फ यह होता है कि आत्मनिष्ठ व्यक्ति अपनी चेतना द्वारा मार्गदर्शन पाता है, विक्षिप्त व्यक्ति में ऐसा कुछ नहीं होता। वह अपने मनोवेगों से ही संचालित होता है। सामान्य या इंस्टीट साधनों से कुँडलिनी जागरण का जैसा अनुभव होता है, वह मनोवेग प्रधान ही है। अनुभव या अभिव्यक्ति बीत जाने के बाद साधक उसी लोक में पहुंच जाता है। जिस चेतना में महाशक्ति का अवतरण होता या जहाँ कुंडलिनी शक्ति जाग्रति है, वहाँ व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है। यह परिवर्तन स्वभाव, संस्कृत, प्रतिभा, मेधा, प्रभाव और वैभव आदि सभी पक्षों में दिखाई देता है। कहना न होगा कि परिवर्तन शुभ और कल्याणकारी ही होता है। अपने लिए भी और संपर्क में आने वालों के लिए भी।


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