एक दरिद्र मनुष्य एक सुँदर राजकन्या पर मुग्ध हो गया और उसे पाने के लिए पुरुषार्थ करने लगा। असंभव लक्ष्य, पर संकल्प दृढ़। अंत में सोचा, साधु होकर, तपस्या करूंगा व जो आत्मबल अर्जित करूंगा, उससे राजकन्या प्राप्त हो जाएगी। इस प्रकार संसार त्याग कर वह उग्र तपस्या करने लगा। सारे राज्य में उसकी ख्याति बढ़ी। धनी-दरिद्र सभी उसके दर्शनों के लिए आने लगे। एक दिन वह स्वयं राजकन्या तपस्वी के दर्शनार्थ आई। उसे अपने सामने देखकर तपस्वी के अंतर्चक्षु खुल गए। उसने सोचा,जिस प्रभु के प्रति श्रद्धावश यह मेरे दर्शनार्थ आई है, उसे मैं छोड़ दूँ, तो मेरी क्या गति होगी? तपस्वी के अंतर्चक्षु खुले, उसने वास्तविकता को जाना और अपनी सामर्थ्य को शाश्वत सौंदर्य परमात्मशक्ति को पाने हेतु नियोजित कर दिया ।