अपनों से अपनी बात-1 - प्रतिभाओं की सिद्धि से महायज्ञ की महापूर्णाहुति

June 2000

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प्रस्तुत महापूर्णाहुति वर्ष में विभूतियों की महासिद्धि का महायज्ञ संपन्न होना है। विभूतियां उस वर्ग में आती हैं जिसे प्रतिभाशाली कहा जाता है। प्रतिभावान-विभूतिवान अपनी नाव अपने बलबूते खेते हैं और उसमें बिठाकर अनेकों को पर करते हैं। युगनेतृत्व ये ही प्रतिभावान करते हैं। ये सूझबूझ के धनी होते हैं, इसलिए जिस क्षेत्र में हाथ डालते हैं, श्रेय पाते हैं। सफलता और प्रशंसा इनके आगे-पीछे फिरती है। किसी भी राष्ट्र-संस्कृति की सच्ची संपदा इन्हीं को समझा जाता है। विश्व इतिहास में ऐ ही महामानवों की यशोगाथा स्वर्णिम अक्षरों में लिखी जाती है।

इन दिनों विशेष समय चल रहा है। एक और जहाँ विनाश की विभीषिका की संभावना नजर आती है, तो दूसरी और इक्कीसवीं सदी सुखद आशावाद से भरी परिस्थितियाँ लेकर आती दिखाई पड़ रही है। महाविनाश की विभीषिका से जूझना व अनुकूल परिस्थितियों को लाने का कार्य हर युग में प्रतिभाओं ने किया है। इस महापूर्णाहुति वर्ष में उन्हीं की खोजबीन हो रही है। एक विराट मंथन प्रक्रिया द्वारा समाज रूपी दूध को उबालकर उस मलाई के तैरने की संभावना साकार की जा रही है, जिसे प्रतिभा कहा गया है। ................................. .................. ....................................... .................. ....................................... .................. ....................................... .................. ....................................... .................. ....................................... .................. .................. .......... ............ ................ यहां से आगे का टाइप किया गया मेटर 2000-07 में भी दिया हुआ है। कृपया चैक करें।........... .............. ............... ............... .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... .............................. .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... .............................. .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... .............................. .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... .............................. .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... .............................. .................. ..................... .................. .................. ........................ ................... ...............

परमपूज्य गुरुदेव ने सर्वप्रथम विशिष्ट चेतना-संपन्न व्यक्तियों के रूप में विभूतियों का आह्वान 1966-67 में किया था, जब उन्होंने, ‘महाकाल और उसकी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया’ शीर्षक से एक अप्रतिम ग्रंथ रचा। आज भी लगभग 160 पृष्ठों की यह पुस्तक हर अग्रदूत के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है। इस पुस्तक में पौराणिक उपाख्यानों के साथ समय की विषमता, दशावतार के रूप में निष्कलंक की भूमिका से लेकर विभूतियों की नवसृजन हेतु भागीदारी के विषय में पूज्यवर ने बड़ी भावोत्तेजक शैली में अपनी वेदना लिखी थी। उस समय का उनका विभूतियों आह्वान जिन-जिनसे था, वह वर्गीकरण आज की परिस्थितियों में भी उतना ही व्यावहारिक है, जितना कि तब था। जब दूरगामी परिस्थितियों की संभावनाओं का वर्णन था। आज तो हम साक्षात् प्रलयंकर उस घड़ी से गुजर रहे हैं, जिनमें चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है। ऐसी परिस्थिति में उनका वही आह्वान युगानुकूल मानते हुए पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि परिजन तृतीय चरण के समापन व चतुर्थ चरण के जुलाई से नवंबर तक की संपन्न होने वाली वेला में अपना मूल्याँकन कर सकें, सभी प्रतिभाशीलों की पहचान उन्हें ‘सृजन संकल्प विभूति कहा यज्ञ’ एवं ‘विभूति ज्ञानयज्ञ’ में अपने संकल्पों के साथ सम्मिलित कर सके।

जिन सात विभूतियों को झकझोरने का, सन्मार्गगामी बनाने कार्य गुरुसत्ता ने हमें सौंपा, उनको इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है।

भावना क्षेत्र (धर्म-अध्यात्म) 2. शिक्षा एवं साहित्य 3. कलामंच के भा स्पंदन 4. भौतिकी एवं विज्ञान का तंत्र 5. शासनतंत्र (सत्ताधारी) 6. सम्पादावान् 7. विशिष्ट प्रतिभासंपन्न (बहुमुखी)।

तब परमपूज्य गुरुदेव ने लिखा था कि युगनिर्माण आँदोलन का प्रथम प्रयास था जनजागरण। अब अगला कदम है विभूतियों को झकझोरना, उन्हें उलझी हुई स्थिति से निकालकर जीवन अथवा मरण में से किसी एक को चुने के लिए विवश करना। आगे वे यह भी लिखते हैं कि अब तक यह अभियान भारत तक विशेषतया हिंदू वर्ग के प्रगतिशील लोगों तक सीमित रहा है। अब इसकी परिधि विश्वव्यापी बनाई जा रही है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इसके प्रायः चार वर्ष बाद परमपूज्य गुरुदेव अपने विदेश प्रवास पर गए थे, अगणित प्रवासी भारतीयों को समत्व भरा स्पर्श देकर आए थे। वही समय था, जब हमारे यहाँ से गए पढ़े-लिखे परिजन अपने-अपने देशों में जड़ें जमाने लगे थे। मूल को संस्कारित पूज्यवर कर गए। हम सभी तो सतह से ऊपर का सारा बना-बनाया काम अब श्रेय रूप में संपन्न कर रहे है।

प्रथम विभूति भावना क्षेत्र (धर्म एवं अध्यात्म)-

धर्म-धारणा एवं अध्यात्मिक-साधना का सारा कलेवर खड़ा ही इसलिए किया गया है कि व्यक्तित्व को उत्कृष्ट एवं गतिविधियों को आदर्श बनाया जाए। धर्म, चरित्र गठन का नाम है, तो अपनी क्षमताएँ लोकमंगल के लिए समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाएं श्रेष्ठतम हों व लोकमंगल के लिए अर्पित हो तो ही उनकी सार्थकता है।

प्रयास होना चाहिए कि सभी धर्म-संप्रदायों में परस्पर सहिष्णुता और समन्वय की प्रवृत्ति पैदा हो। वे अपने स्वरूप में रहें, पर विश्वधर्म के घटक बनकर रहें। प्रथा-परंपराओं वाले कलेवर को गौण समझें। अपनी परंपराओं में से सभी उत्कृष्ट मानवता, आदर्श सगाज की रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े। धर्म अध्यात्म क्षेत्र में लगी प्रचुर पूँजी जनशक्ति, भावप्रवणता व प्रभावशीलता का उपयोग सृजनात्मक हो। भावनाशील धर्मधारणा प्रधान लोग अपनी भौतिक व आत्मिक क्षमताओं का उपयोग मानव हितार्थ करें।

द्वितीय विभूति शिक्षा एवं साहित्य का क्षेत्र -

विचारप्रक्रिया पर मानव की गरिमा टिकी है। इस जीवन-प्राण के मर्मस्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के नवनिर्माण में शिक्षा और साहित्य की सृजनात्मकता का नियोजन होना चाहिए। भावपरिष्कार की पूरक धर्मशिक्षा, नैतिक शिक्षा, नवनिर्माण की शिक्षापद्धति का संचालन जनता के स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षापद्धति का संचालन जनता के स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़शिक्षा का कार्य साक्षरता विस्तार भी जनता अपने हाथ में ले। ये सरकारी स्तर पर नहीं, जनस्तर पर ही हल हो सकती है। जनस्तर के विद्यालय-अनौपचारिक विश्वविद्यालय बनें, जिनमें दृष्टिकोण परिष्कार आज की परिस्थितियों में चरित्र-निर्माण का व्यवस्थित पथ, समाज-संरचना की अगणित समस्याओं का हल, विश्व-परिवार के लिए बाध्य करने ले प्रचंड वातावरण का निर्माण करने वाले कार्य संपन्न हों। सरकार से अनुदान न माँगकर भावनात्मक स्तर पर जनता से इसकी पूर्ति की जाए। लाखों जाग्रत आत्माएं लिए शिक्षक इसके लिए खड़े किए जा सकते हैं। हर गाँव-मुहल्ले-बस्ती में लोकशिक्षण की आवश्यकता पूरी करने वाले विद्यालय खड़े हों।

साहित्यकार रचनाधर्मी लेखन करें। कवि मूर्च्छित जनता को जाग्रति में परिणत करने वाले अग्निगीत लिखें। पत्रकार अपने पत्रों में-पत्रिकाओं में रचनात्मक क्राँतिधर्मी लेखों को स्थान दें। भारत की मान्यता प्राप्त 14 एवं विश्वभर की 600 भाषाओं में यह साहित्य प्रकाशित हो। इसके लिए प्रकाशक भी इस क्षेत्र में उतरें।

तृतीय विभूति कलामंच (लोकरंजन से लोकमंगल)-

चित्र, मूर्तियाँ, नाटक, अभिनय, संगीत, धारावाहिक, फिल्में, लोकगीत सभी इस तंत्र में आते हैं। सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम बनें, जो वर्षों में नहीं, मात्र कुछ माह में सीखे जा सकें। संगीत विद्यालय जगह-जगह खुले। प्रचंड प्रेरणा भरे गीतों का हर नुक्कड़, हर मंच, टेलीविजन, केबल आदि पर प्रसारण हो। प्रत्येक हर्षोत्सव पर प्रेक गायनों-प्रेरणादायी नुक्कड़ नाटकों की ही प्रधानता हो। संगीत सम्मेलन, गोष्ठियाँ, सहगान कीर्तन, एक्शन साँग, लोकनृत्य व गायन जैसे अगणित सहगान कीर्तन बनें, लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें। प्रेरक प्रसंगों बनें, लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें। प्रेरक प्रसंगों वाले चित्र छपें, चित्र प्रदर्शनी स्थान-स्थान पर लगें। गीतों के ऑडियो कैसेट्स, सी.डी. जन-जन तक पहुँचे। प्रेरक धर्मप्रेरणा प्रधान धारावाहिक एवं फिल्में बनें।

चतुर्थ विभूति विज्ञान तंत्र (भौतिकी)-

नूतन शोधें सृजनात्मक प्रयोजनों तक सीमित रहें। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाए जा रहें है उन्हें अभाव, शोक-संताप की निवृत्ति हेतु लगा दिया जाए। समुद्री खारा पानी मीठा बनाया जा सकता है। भूगर्भ का मीठा विशाल परिमाण में जल धरती पर लाया जा सकता है। प्रकृति के प्रकोपों से मोरचा लेने हेतु विज्ञान के साधन लगें। वाहनों को सरल व सस्ता बनाया जाए, संचार साधनों का विस्तार हो। विज्ञान अध्यात्म के साथ संगति बिठाकर सिद्ध करें कि शक्तिस्रोत चेतना संकल्पों व आत्मबल में सन्निहित है।

पंचम विभूति शासन तंत्र (सत्ता)-

संकीर्ण राष्ट्रीयता के अपने प्रिय क्षेत्र तथा वर्ग के लोगों को लाभान्वित करने की बात छोड़कर राजतंत्र समस्त विश्व की समान रूप से सुख-शाँति की बात सोचे। वर्गभेद-वर्णभेद की जड़ें उखाड़े तथा युद्धों की भाषा में सोचना बंद कर न्याय का आधार स्वीकार करें। सरकारें अनीति, शोषण, अपराध, रिश्वत, भ्रष्टाचार के वास्तविक शत्रु से जूझे। अपने सरकारी कर्मचारियों में, सत्ता-संचालकों में घुसी अनैतिकता व स्वार्थपरता को जड़-मूल से उखाड़ फेंके व बेकारी, बीमारी, गरीबी दूर करने की दिशा में योजनाएँ बनाएँ। मतदाता अपने दायित्व समझें कि सुयोग्य प्रतिनिधि चुने जा सकें।

षष्ठ विभूति संपदावान-

सर्वोपरि मान्यता इन दिनों पूँजी को मिली है। संग्रहित पूँजी को लोकमंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता धनपति दिखाएँ। संग्रहवाद-अमीरी के दिन लद गए, अब जमाना एकता व समता का है, यह समझाया जाए। जनसाधारण की बचत पूँजी (अंशदान) तथा पूँजीपतियों की धन-संपदा युगपरिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने हेतु नियोजित हो। पूँजी की सुरक्षा के साथ-साथ लाभाँश की सुनिश्चितता समझाई जा सके, तो व्यवसायबुद्धि से संपन्न अगणित व्यक्ति विचारक्राँति अभियान में उल्लेखनीय सहयोग दे सकते हैं।

सप्तम विभूति परिष्कृत प्रतिभा-

स्फूर्तिवान्, सूक्ष्मदर्शी, क्रियाकौशल संपन्न प्रभावशाली व्यक्ति समाज में अगणित हैं। सूझबूझ, आत्मविश्वास, कर्मठता उनमें कूट-कूटकर भरी हैं। ऐसे ही व्यक्ति सफल संत, राजनेता, समाजसेवी, चिकित्सक, व्यवस्थापक होते देखे गए है। सेनानायक, दुस्साहसपूर्ण कार्य करने वाले, क्राँतिकारी स्तर के व्यक्ति इसी तबके से निकलते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने ईश्वरीय अनुदान निरर्थक विडंबनाओं में न खरच कर, नवनिर्माण के प्रयोजन में लगा दें।

निश्चित ही युगपरिवर्तन एक सचाई है एवं उपर्युक्त सातों विभूतियों के आगे आकर सक्रिय होने व उत्तरदायित्व संभालने पर वह साकार होकर रहेगी। महाकाल की सूक्ष्मप्रेरणा भी इन दिनों ऐसी है कि इन सभी विकृतियों को वह झकझोर रहा है। हम-आप उनका एकत्रीकरण कर उन्हें सृजन प्रयोजन में लगा भर दें।


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