जिनने ब्रह्मकमल को पूरी तरह खिलाया

June 2000

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(गायत्री जयंती पर विशेष)

“आज तो ब्राह्मण बीज ही इस धरती से समाप्त हो गया है। मेरे बेटो! तुम्हें फिर से ब्राह्मण को जगाना और उसकी गरिमा का बखान कर स्वयं जीवन में उसे उतारकर जन-जन को अपनाने को प्रेरित करना होगा। यदि ब्राह्मण जाग गया, तो सतयुग सुनिश्चित रूप से आकर रहेगा।” ये वाक्य परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी उस अंतरंग गोष्ठी में कहे थे, जो उनके महाप्रयाण के मात्र दो माह पूर्व उन्होंने अपने कक्ष में ली थी। ब्रह्मकमल खिलने व अपने जीवन के प्रथम अध्याय के पटाक्षेप की बात भी कही।

ब्राह्मणत्व की परिभाषा करते हुए पूज्यवर ने कहा कि “ब्राह्मण सूर्य की तरह तेजस्वी होता है, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चलता रहता है। कभी रुकता नहीं। कभी आवेशग्रस्त नहीं होता तथा लोभ, मोह, अहंता पर सतत् नियंत्रण रखता है। ब्राह्मण समाज का शीर्ष है। कभी यह शिखर पर था तो वैभव गौण व गुण प्रधान माने जाते थे। जलकुँभी की तरह छा जाने वाला यही ब्राह्मण सतयुग लाता था। आज की परिस्थितियाँ इसलिए बिगड़ी कि ब्राह्मणत्व लुप्त हो गया। इसे पुनः जिंदा करना होगा। ये ब्राह्मण, वंश से नहीं, कर्म से लोकसेवी समुदाय में से ही उभरकर आएँगे।”

गायत्री जयंती (11 जून) की वेला में परमपूज्य गुरुदेव के इन कथनों को उद्धृत इसलिए करने का मन हो रहा है कि आज इक्कीसवीं सदी के शुभारंभ की वेला में सर्वाधिक आवश्यकता ब्राह्मबीज की नर्सरी को खाद-पानी देने की है। अधिक-से-अधिक प्रतिभावान्-विभूतिवान् ब्राह्मण स्तर के लोकसेवी कार्यकर्त्ताओं की इस समय आवश्यकता है, जो अपने कर्मों की सुरभि से समाज रूपी उद्यान को महका सकें, पुण्य की खेती द्वारा सत्कर्मों का विस्तार कर सकें। यह तभी संभव है, जब हम उस आदर्श को स्वीकार कर सकें, जो स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने एक ब्राह्मण के रूप में स्थापित किया।

मात्र दो जोड़ी खादी के धोती-कुरते एवं हाथ में लिखने की दो रुपये लागत की एक कलम, जिससे उन्होंने आग उगलने वाली रचनाएँ लिखीं, यही मात्र हमारी गुरुसत्ता की एकमेव पूँजी थी। ढेरों व्यक्ति आते, भेंट दे जाते जिनमें कीमती पेन से लेकर अगणित उपहार होते थे, किंतु उनके लिए सभी मिट्टी समान था। सारा पास रखी प्लास्टिक की टोकरी में डाल दिया, किसी को बाँट दिया, माताजी के पास भिजवा दिया व उन्होंने भी वितरण कर दिया। निस्पृहता व अपरिग्रह की पराकाष्ठा उनके जीवन में देखी जा सकती है। कई बार भावुक शिष्य ममत्व पाकर उनसे उनकी लेखनी माँग बैठते थे। यह भी भाव रहता था कि पूज्यवर के हाथ से स्पर्श की हुई लेखनी से लिखेंगे, तो हिसाब-किताब में बरकत रहेगी, पैसा आएगा। जो भी लिखेंगे उससे परीक्षा में बच्चे पास होंगे अथवा जो लिखेंगे, वह छपेगा। आशीर्वाद के रूप में सहज ही परिजन माँग बैठते थे। भोला भंडारी-महाशिव की सत्ता अपने हाथ से लिखने वाले कलम बाँट भी देती थी। हम उनके पास रहते थे, तो उनके उस दो रुपये के पेनों के एक दर्जन अतिरिक्त भंडार को सँभालकर रखना पड़ता था। खत्म होते ही तुरंत माँग बैठते। कभी उन्हें महँगा पेन दिया, तो वापस कर दिया। कहा इससे तुम ही लिखो। मुझे तो मेरा वही सस्ता वाला पेन कँगा दो। साधारण-सी रिफील वाला राजकोट का बना एक पेन उन्हें रास आता था, जिसकी कीमत थोक भाव में लगभग पौने दो रुपये प्रति पेन तब पड़ती थी। उसी का एक भंडार हमने अपने पास रखा था, उसी से उन्होंने जीवन भर लिखा। लिखा भी तो इतना जिसकी कोई तुलना आज के युग में किसी से नहीं की जा सकती ।

उपर्युक्त घटनाक्रम लिखा इसलिए कि परिजन परमपूज्य गुरुदेव के विचारशरीर के साथ भावशरीर को समझ सकें। उनकी भाव काया परिपूर्ण ब्राह्मणत्व से ओतप्रोत थी। अपने लिए कठोरता, औरों के लिए उदारता यही ब्राह्मणत्व का चिन्ह है। इसे उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ जीवन में उतारा। ब्राह्मण के चार प्रमुख गुण पूज्यवर ने बताए-रसना पर नियंत्रण, कामुकता पर अंकुश, अपरिग्रह तथा अधिक-से-अधिक का औरों के लिए वितरण। सारी समस्याएँ-शारीरिक, मनोशारीरिक व्याधियाँ, लोकसेवा के क्षेत्र में व्यावहारिक कठिनाइयाँ यहीं से आरंभ होती हैं। कौन कितना कर पाता है, उसी कसौटी पर सच्चे ब्राह्मण को कसा जाता है। यदि हर व्यक्ति के अंदर सोए ब्राह्मणत्व को जगा दिया जाए, तो आज की अगणित समस्याओं का समाधान निकल सकता है।

जीवनभर पूज्यवर लुटाते ही रहे। प्यार लुटाया, साधन लुटाए, अपने विचार लुटाए। किसी का भी परिग्रह करने की कभी भी कोशिश नहीं की। 1926 में अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलन के साथ अपना महापुरश्चरण आरंभ करने से लेकर आँवलखेड़ा गाँव में पारमार्थिक गतिविधियाँ चलाने तथा फिर स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी तक वे अपने पास का सब कुछ न्यौछावर ही करते रहे। घर में सब कुछ होते हुए भी कौन चाहेगा कि वह मात्र एक लोहे का तसला लेकर निकल जाए व अपने परिवारजनों की यह व्यंग्योक्ति सुनकर कि अब जब राज्य तुम्हारा तुम्हें वापस मिल जाए (अर्थात् आजादी मिल जाए) तो हाथी पर बैठकर आना, तुम्हारा तिलक करेंगे, वह फिर कभी लौटकर भी न जाए। जेल में चक्की पीसे, कैदियों को पढ़ाए-स्वयं अंग्रेजी सीखे एवं फिर काँग्रेस (तत्कालीन) का एक विनम्र स्वयंसेवक बनकर श्री कृष्ण दत्त जी पालीवाल के एक सहयोगी तथा श्री केसकर (तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री) के निजी सहायक के रूप में कार्य किए। श्री केसकर भी उन्हें तब नहीं पहचान पाए थे कि ये हैं कौन? पता चलने पर उन्होंने बार-बार इसी निजी सहायक केच रण स्पर्श किए थे। मथुरा आकर सारी गतिविधियाँ व योजना विस्तार से समझी थीं। अखण्ड ज्योति पत्रिका जिस स्थिति में प्रकाशित की गई थी, पूँजी के अभाव में लगता नहीं था कि यह चल पाएगी। जो भी कुछ था अपना वह सारा आँवलखेड़ा ग्राम के स्कूल के निर्माण हेतु दे दिया था और कोई पूँजी थी नहीं। थे मात्र जमींदारी के बाँड एवं माताजी के जेवर आदि। वे भी गायत्री तपोभूमि हेतु भूमि क्रय करने के लिए काम आने थे। फिर भी पत्रिका हाथ से बने कागज पर पैरों से चलने वाली छोटी मशीनों द्वारा छपने लगी। पहली प्रति जनवरी 1939 में ढाई सौ छपी। कुछ दिन प्रवाह अवरुद्ध रहा, किंतु फिर फ्रीगंज आगरा से जनवरी 1940 में अखण्ड ज्योति पत्रिका छपनी आरंभ हुई एवं देखते-देखते मत्स्यावतार की तरह गति पकड़ती चली गई।

1947-48 की बात है। आरोग्य पत्रिका को तब गोरखपुर से प्रकाशित होते मात्र एक वर्ष हुआ था। श्री हनुमान प्रसाद पोदार जी से मिलने परमपूज्य गुरुदेव गोरखुपर पहुँचे, तो सहज ही विट्ठलदास जी मोदी (जिनका महाप्रयाण अभी विगत मार्च 2000 की 23 तारीख को हुआ है) से मुलाकात हुई दो संत- ब्राह्मण मिले, सहज अपनत्व बढ़ता चला गया। दो-तीन मुलाकातों के बाद मोदी जी अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामंडी आए। परमपूज्य गुरुदेव ने कहा, ब्राह्मणत्व कहता है कि मैं बिना विज्ञापन के पत्रिका निकालूँ, इसलिए आपसे राय ले रहा हूं। वैसे इस अंक से मैं विज्ञापन बंद कर रहा हूँ। “मोदी जी बोले,” आप इस आधार पर तो पत्रकारिता जगत् में जी ही नहीं सकते। आपकी पत्रिका आपको घाटे में ले जाएगी। आपको इसे अंततः बंद करना पड़ेगा। “ पूज्यवर बोले, “ तो हम प्रयोग करके देख लेते हैं। यदि हम सफल होते हैं, तो आपको हमारा लोहा मानना पड़ेगा, हमारे ब्राह्मणत्व की मूल धुरी पर चले जीवन की सफलता को स्वीकारना होगा और यदि आप जीते तो हम मान लेंगे कि इस युग में मात्र विज्ञापनवाद ही चल सकता है। “वर्षों बीत गए। पुनः मुलाकात हुई। अखण्ड ज्योति की प्रगति यात्रा से ब्रह्मलीन श्री विट्ठलदास जी मोदी अति प्रसन्न थे व अंदर से अभिभूत थी।

अखण्ड ज्योति पत्रिका 250 से आरंभ होकर आज लगभग छह लाख की संख्या में छपती है। पाँच गुने पाठक उसे हिंदी में पढ़ते हैं इसी के अनुवाद प्रायः इतनी ही बड़ी संख्या में छपते हैं। बिना विज्ञापन के, बिना किसी लाभ के कोई प्रयोग इतने दिन चल सकता है? 63 वें वर्ष में चल रही पत्रिका अखण्ड ज्योति प्रत्येक के लिए अचरज का विषय नहीं, अपितु ब्राह्मणत्व के चमत्कार एक नमूना है।

जो लोग अखण्ड ज्योति संस्थान के घीयामंडी या गायत्री तपोभूमि वृंदावन रोड मथुरा गए हैं, उन्होंने एक जीते-जागते तपस्वी ब्राह्मण के, आचार्य श्री के अंतर्दर्शन किए हैं इसी एक सिद्धि ने उन्हें सब कुछ दे दिया। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि हमारे देश की संस्कृति त्याग करने वालों की पूजा करती है। यह बुद्ध व महावीर का, पटेल व गाँधी का देश है हमने उसे ही आधार माना है एवं हमारी यही पूँजी है आज पाँचों संस्थान सहित प्रायः साढ़े पाँच हजार प्रज्ञासंस्थानों के अधिपति परमपूज्य गुरुदेव-परमवंदनीया माताजी के रूप में अरबों की संपत्ति के प्रमुख के रूप में हम उन्हें पाते हैं, तो उसके मूल में उनका ब्राह्मणत्व ही है, जो उन्होंने अंत तक निभाया। अभी पिछले दिनों पावन कुँभक्षेत्र नासिक में हुए महाराष्ट्र के पंचम सम्मेलन में जब पंचवटी क्षेत्र में बनी एक विशाल धर्मशाला श्रीमती रमागुप्ता के द्वारा हमें गायत्री शक्तिपीठ नासिक के निर्माण के लिए सौंपी गई, उसका दानपत्र हमें दिया गया, तो लगा कि प्रायः एक करोड़ से अधिक की यह संपत्ति परमपूज्य गुरुदेव के ब्राह्मणत्व को समर्पित की जा रही है। गोयनका धर्मशाला नाम से प्रख्यात यह भवन गंगा गोदावरी के तट पर है। जब गुप्ता परिवार ने गायत्री परिवार की जानकारी ली तो सर्वप्रथम उन्होंने गुरुदेव के बारे में जाना। कुछ सेकेंड भी नहीं लगे निर्णय लेने में एवं भवन स्थानान्तरित हो गया। आज गायत्री परिवार में परमपूज्य गुरुदेव-माताजी के उत्तराधिकारी लाखों-करोड़ों भाई-बहनों के पास यदि अपार ज्ञानसंपदा है, क्राँतिकारी विचारों वाले पूज्यवर द्वारा लिखे साहित्य के रूप में तो उनके द्वारा स्थापित जन-जाग्रति के केंद्र भी हैं, जो अगले दिनों रचनात्मक क्राँति की धुरी बनेंगे, देव-संस्कृति विश्वविद्यालय के अंग-उपाँग बनेंगे। यह सब हुआ उस महासत्ता के ब्राह्मणत्व के कारण जिस पर जीवन पर चला गया, पूरा निर्वाह किया गया। ऐसी सत्ता को बारंबार नमन है, आज उनके महाप्रयाण के दस वर्ष बाद गायत्री जयंती पर। जिस सत्ता ने अपनी आराध्य माँ गायत्री के अवतरण वाली वेला में अपने स्थूलशरीर से चेतना को समेटा, आज भी अपने परोक्ष शिक्षण-संरक्षण के रूप में हमारे बीच मौजूद है। हमें आश्वासन दे रही है कि यह ब्रह्मकमल इसी तरह सुवास फैलाता रहेगा, सतयुग निश्चित ही लाकर रहेगा।


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