आज भी देखे जा सकते हैं अष्टावक्र

June 2000

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स्वास्थ्य की महिमा बताने के लिए जो भी कहा जाए, कम है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन या आत्मा का निवास होता है- यह उत्साहवर्धक कथन है, पर ऐसा नहीं समझाना चाहिए कि यह आत्यंतिक सत्य है शरीर के बिना तो मन काम नहीं कर सकता पर वह टूटा-फूटा, रुग्ण, अपंग, असमर्थ शरीर होने पर भी अपनी विलक्षणता न सिर्फ यथावत बनाए रहता है, वरन् उसे अधिक सजग सक्षम सक्रिय बना सकता है- इस प्रतिपादन के उदाहरण भौतिक जगत में भी विद्यमान है।

पुरातनकाल में च्यवन, बाल्मीकि ओर दधीचि जैसों के ऐसे कथानक मिलते हैं, जिन्होंने तप करते हुए शरीर को निष्क्रिय बना लिया था और उसके ढाँचे में मात्र आत्मा ही काम करती है। समाधि अवस्था में ऐसा ही होता है उसका प्रयोगात्मक प्रदर्शन करने वाले हृदय ओर मस्तिष्क की गति बंद होने पर भी जीवित बने रहते हैं ओर निर्धारित समय पर उस निष्क्रियता को समाप्त करके पूर्ववत सक्रिय हो उठते हैं।

यह अध्यात्म-प्रसंगों की चर्चा हुई। एक भौतिक उदाहरण अभी भी हमारे सामने है, जिसमें शरीर जीवित रहने भर के लिए सक्रिय है, अन्यथा उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं बन पड़ता है। यह ब्रिटेन के एक मूर्द्धन्य खगोलविद् स्टीफन हाँकिन्स है, जिनके बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है इन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति के पुरातन सिद्धान्तों की इस प्रकार व्याख्या की है, जिसके आधार पर अब तक की मान्यताओं में भारी उलट पुलट करनी पड़ सकती है। इसके अतिरिक्त ब्लैक होल के संबंध में भी नवीन व्याख्याएँ दी है। इन्होंने ही पहली बार यह बतलाया कि छोटे से छोटा श्याम विवर मटर के दाने बराबर हो सकता है और इस प्रकार के कितने ही ब्लैक होल्स ब्रह्मांड में अस्तित्व में है भी।

अष्टावक्र की तरह काया वाले पचास वर्षीय इस वैज्ञानिक को लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व ऐसे विचित्र पक्षाघात घेरा, जिसके संबंध में योग्य और उच्च शिक्षित चिकित्सकों को भी विशेष जानकारी न थी और वे ऐसे ही अनुमान के आधार पर चिकित्सा करते रहे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के यह गणितज्ञ अपनी नियुक्ति के उपराँत ही संसार के मूर्द्धन्य खगोलविदों में गिने जाने लगे थे, विशेषकर ब्रह्मांड संरचना के रहस्यों के नूतन संदर्भों के संबंध में।

पक्षाघात का असर तब भी बहुत हद तक हो चुका था, किन्तु उनकी प्रतिभा से प्रभावित विज्ञान की एक छात्रा ने उनसे विवाह कर लिया था, जिसके उदर से एक बालिका भी जन्मी, पर वे अब पत्नी की सेवा-सहायता पर भी निर्भर नहीं है। एक विशेष प्रकार की पहियेदार कुर्सी उनके लिए बना दी गई है। उस पर वे सदा सवार रहते हैं। अब उनके हाथों ने ही साथ नहीं छोड़ा है, अपितु वाणी भी दगा दे गयी है। उन्हें कुछ कहने में बहुत जोर लगाना पड़ता है। फिर भी उच्चारण अस्पष्ट ही रहता है। मेज पर लगे कम्प्यूटर की सहायता से ही वे अपने चिंतन का प्रकट कर पाते हैं। उनके अभ्यस्त सहायक उनका मंतव्य समझ लेते हैं और जिन वैज्ञानिकों के साथ वे काम कर रहे है, उन्हीं के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं।

कहा जाता है कि वे इस अर्द्धशताब्दी के दूसरे आइंस्टीन है। उन्होंने ब्रह्माँड की गुत्थियों को इस नए ढंग से सुलझाया है, जिसके बारे में पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों को कल्पना तक न थी। यदि उनका प्रयास पूरी तरह सफल हो गया, तो प्रकृति की अनेकों अनबूझ पहेलियों पर नया प्रकाश पड़ेगा। उक्त वैज्ञानिक अभी अधेड़ आयु के है। करीब डेढ़ दशक से शरीर -आहार निद्रा जैसी कामचलाऊ हरकतें ही कर पाता है। मशीन की कुरसी और कंप्यूटर ही उन्हें जीवित कहे जाने योग्य ही नहीं, संसार की अद्भुत मानसिक क्षमता की स्थिति में बनाए हुए है। ऐसी दशा में शरीर को महत्व देने वालों से पूछने का मन करता है कि मन अधिक प्रबल है या शरीर ? भारतीय अध्यात्म सदा से ही मन की सामर्थ्य को ही सब कुछ मानता रहा है। स्टीफन हाँकिन्स इसके जीते जागते प्रमाण है।


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