असमर्थों को भी पार लगाती सामूहिक उपासना

June 2000

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श्री कृष्ण द्वारा कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्द्धन पर्वत उठा लेने के प्रसंग की अलग अलग व्याख्याएँ है। इंद्र का आतंक नहीं मानने श्रमदेवता की आराधना करने किसी बाह्य सता की जगह अपने कर्म पर भरोसा करने और वैदिक देवताओं को निरस्त कर लोकदेवता की प्रतिष्ठा करने जैसे कई अर्थ किए जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थ इन सबसे अलग है और साधना उपासना के क्षेत्र में वही ग्रहण किया जाना चाहिए। आध्यात्मिक अर्थ यह है कि सामान्य मनोभूमि सामान्य संकल्प और औसत अभीप्सा के लोग एक साथ संकल्प करें तो भी भगवान की शक्तियाँ सक्रिय हो उठती है। उनके अनुग्रह अनुदान बरसने लगते हैं और सामान्य लोगों के लिए वह आच्छादन मिल जाता है। जो नहीं मिलता तो संभव है कि भारी अनर्थ हो जाता।

निजी एकाकी प्रयत्नों से यत्किंचित् उपाय हो सकते हैं। उनके कुछ परिणाम भी सामने आ सकते हैं। सामान्य स्थितियों में उन परिणामों के सहारे आ सकते हैं। सामान्य स्थितियों में उन परिणामों के सहारे कुशलतापूर्वक आगे बढ़ते रहा जा सकता है। लेकिन चुनौतियों का समय हो तो सम्मिलित प्रयास करना पड़ता है। साधना के क्षेत्र में इस तरह के प्रयत्नों को सामूहिक उपासना का नाम दिया जा सकता है। इन दिनों मानव सभ्यता आस्था संकट के दौर से गुजर रही है। इस कारण तनाव कुंठा निराशा क्षोभ हिंसा विग्रह रोग शोक जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है। उन्हें आसमान फट पड़ने की तरह देख जा सकता है। विनाश चारों ओर से उमड़ रहा है। सामूहिक उपासना एक उपाय है, जिसे समाज पर संरक्षक चेतना का आच्छादन लाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए । इन प्रयत्नों को ग्वाल बालों की अलग अलग शक्ति का समुच्चय और उस रूप में किया गया एक आहान समझना चाहिए।

आहान सुनकर दिव्यचेतना अपनी कनिष्ठा अँगुली उठाती है और समस्त आपदाओं को प्रभावहीन कर आध्यात्मिक वैभव से संपन्न कर देती है। सामूहिक उपासना का अपना एक विज्ञान है। बड़े यज्ञों और धर्म अनुष्ठानों में इसका विज्ञान पक्ष स्वयं सिद्ध होता है। गहन आस्था संकट के दौर में विशिष्ट प्रयासों का भी विधान है। इन प्रयासों के सहारे पूरा समाज जाति और राष्ट्र भी तर जाते हैं। यह तरना सम्मिलित प्रयत्नों से नाव बनाकर पार उतरने जैसा है। दो सौ लोगों में हो सकता है कि कुछ लोग इतने कुशल नहीं होते हैं। कि अपने बलबूते पर उतर जाएँ लेकिन दस पाँच लोग मिलजुलकर नाव बनाएँ दो चार लोग उसे पानी में उतारने चलाने के लिए तैयार हो तो किनारे खड़े सभी यात्री उफनती हुई नदी पार कर सकते हैं। सामूहिक उपासनाओं में भी यही नियम काम करता है।

सभी की आध्यात्मिक सामर्थ्य एक समान नहीं होती। कमजोर लोग अकेले साधना समर में उतरे तो हो सकता है कि चार कदम चलने पर ही लड़खड़ा जाएँ। लेकिन सामूहिक उपासना में कमजोर लोग भी सहज ही विकास करने लगते हैं। कोई वाहन या चालक यह तो नहीं देखता कि अमुक यात्री कमजोर है, इसलिए उसे धीरे धीरे ले जाएँ और कोई ज्यादा समर्थ है, तो उसे जल्दी मंजिल तक पहुंचा दे। सामूहिक उपासना को जीवंत और गतिमान बनाया जा सके, तो वह अक्षम -कमजोर साधकों का विकास भी उसी तेजी से करने लगती है, जितना की समर्थ साधकों को आगे बढ़ाती है। वाहन में सवार होना पर्याप्त नहीं है, उसमें गति भी आनी चाहिए। साधना में गति और ऊर्जा लाने के आपने नियम -विधान है, उन्हें संपन्न किया जाये, तो सामूहिक उपासना भी प्राणवान हो उठती है।

यद्यपि दिये जा रहे उदाहरण सर्वथा उपयुक्त नहीं है लेकिन मिले-जुले प्रयत्नों के चमत्कार आधुनिक जीवन सर्वत्र अनुभव किये जा सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से वाहन रखना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। बहुतों की सामर्थ्य तो डेढ़-दो हजार की साइकिल रखने की भी नहीं होती लेकिन सामूहिक या सार्वजनिक वाहनों का उपयोग कर निताँत हैसियत का व्यक्ति भी अपने गंतव्य पर आसानी से पहुँच सकता है।

आध्यात्म क्षेत्र में सामूहिकता का प्रयोग वैदिक काल से ही जा रहा है। आंतरिक शक्तियों के विकास और आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रचंड साधनाएँ निजी स्तर पर की जाती रही है। निजी स्तर पर संध्यावंदन, ध्यान,जप,पूजन,अग्निहोत्र जैसे कर्म भी किया जाते रहे है। साथ ही राष्ट्र या समाज में चेतना जगाने के लिए सामूहिक अनुष्ठान आरम्भ से ही किये जा रहे है। वेद मंत्रों का सामूहिक सस्वर पाठ, स्वाध्याय,आध्यात्मिक व्यायाम और प्रार्थना आदि कृत्य सभी कालों में चले रहे है। प्राकृतिक विपदाओं के निवारण के लिए विभिन्न आध्यात्मिक प्रयोगों का स्वरूप भी सामूहिक ही रहा है।

भावात्मक मानसिक और दिव्य शक्तियों का सहयोग तो अपनी जगह है ही, सामूहिक उपासना में निजी स्तर पर चलने वाली साधना-प्रक्रिया को विलक्षण ढंग से सरल बना दिया है। साधकों के लिए एकाँत में रहने वही भजन पूजन करने और आहार में सात्विकता के समावेश के लिए अपना भोजन स्वयं तैयार करने जैसे अनुशासन अपनाये जाते हैं। इन अनुशासन नियमों का एक ही उद्देश्य है कि साधक दुनियादारी अथवा बाहरी प्रभावों से यथासंभव बच्चा रहे। बाहरी प्रभाव ध्यान में विक्षेप लाते हैं। एकाँत में रहने की बात इसलिए कही जाती है। कि आसपास का वातावरण और उसका कोलाहल भ्रम भटकाव न लाए। सामूहिक उपासनाओं ने इन आवश्यकताओं को अनायास ही पूरा कर दिया। एकाँतसेवन विजातीय प्रभावों से मुक्त रहने के लिए किया जाता है। सामूहिक उपासना में शामिल सभी साधक एक ही उद्देश्य के लिए एकत्र होते हैं। सबकी मनः स्थिति प्रायः एक ही दिशाधारा लिए होती है। आँतरिक स्तर में भले ही अंतर हो,लेकिन संकल्प चिंतन और चर्या का निर्धारण समान ही रहता है। सब मिलकर उपासनास्थली में जैसा वातावरण बनाते हैं। वह एकाँत सेवन की तुलना में कई गुना लाभकारी है। सूक्ति की तरह कहना हो तो एक घंटा की गई सामूहिक उपासना महीने भर तक किए गए एकाँत सेवन के बराबर परिणाम उत्पन्न करती है।

एक ही स्थान पर ज्यादा साधकों का एकत्र होना और आत्मिक व्यायाम करना सामूहिक उपासना का एक प्रकार है। एक अन्य स्वरूप एक ही समय में असंख्य लोगों द्वारा उपासना के लिए बैठने का भी है। सूर्य के उदय और अस्त होते समय किया जाने वाला संध्यावंदन गायत्री जप इसी स्तर का है। संध्या उपासना के सूक्ष्म रहस्य अलग है, लेकिन सामूहिकता की दृष्टि भी यह क्रम अपनी तरह का है। बाद में दूसरे धर्म संप्रदायों ने भी सामूहिकता का यह स्वरूप अपनाया । गिरजों में रविवार के दिन अलग अलग स्थानों पर की जाने वाली प्रार्थनाएँ इसी आवश्यकता की पूर्ति करती थी। बौद्ध धर्म मानने वाले एशियाई देशों में वहाँ के भिक्षुओं स्थविरों लामाओं और योगियों ने प्रातः सायं ध्यान पर जोर दिया। इस्लाम के अनुयायी शुक्रवार के दिन मस्जिद में इकट्ठे होकर नमाज पढ़ते हैं। सामूहिक उपासना का वह पहला स्वरूप में पाँच वक्त या तीन वक्त या दो वक्त की नमाज के लिए समय निश्चित है। पाँचों वक्त की नमाज सभी जगह निश्चित समय पर ही पढ़ी जाती है।इस तरह की सामूहिक उपासनाओं में स्थान का लोप होने पर भी काल और क्रिया का लोप नहीं होता। तीन में से दो आधार पूरे होने पर विधान का पूरा पालन हुआ मान लिया जाता है।

कुछ अध्यात्मविज्ञानियों ने सामूहिक उपासना के क्षेत्र में नए प्रयोग भी किए है। भावातीत ध्यान आँदोलन के प्रवर्तक महर्षि महेश योगी के अनुसार एक निश्चित समय पर निश्चित लोग निश्चित पद्धति से ध्यान करने लगें तो सूक्ष्मजगत में अनुकूल परिवर्तन किए जा सकते हैं। उनके अनुसार कुल संख्या के दो प्रतिशत लोग भी इस प्रयोग के लिए तैयार हो तो नई सभ्यता के विकास की आशा की जा सकती है। पूर्ण योग के आविष्कर्त्ता श्री अरविंद ने कई बार लिखा है कि अतिमानस (दिव्यचेतना का विशिष्ट स्तर) के अवतरण कि लिए सभी लोग प्रयास करें यह जरूरी नहीं है। थोड़ी से लोग पूरी संकल्पशक्ति आकांक्षा करें और थोड़ी देर के लिए ध्यान के प्रयोग में उतरे तो अपनी सभ्यता को उच्चशिखरों पर पहुंचाया जा सकता है। उनके अनुसार ज्यादा नहीं सिर्फ कुछ हजार लोग इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त है। इन स्थापनाओं में उत्साहवर्द्धक स्थिति यह है कि गिने चुने लोग निष्ठा और विधान के अनुसार सुनिश्चित साधनाक्रम शर्त किसी न किसी रूप में जरूर पूरी करें। इसी तरह का एक विशिष्ठ विधान बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण रहा है। लाखों करोड़ों की उसमें भागीदारी रही है। परमपूज्य गुरुदेव ने उसे ब्रह्मामण अनुष्ठान नाम दिया है। उसी की महापूर्णाहुति इस वर्ष संपन्न हो रही है। इसके सूक्ष्म प्रकृति पर मानव प्रकृति पर होने वाले सत्परिणामों की मात्र कल्पना ही की जा सकती है। निश्चित ही समूह साधना युगपरिवर्तन जैसा कार्य कर दिखाती है। बिना किसी संदेश के हर साधक को इसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए।


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