मानव-जीवन एक पवित्र धरोहर

June 2000

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चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मानव-जीवन तभी मिलता है, जब कृपा निधान भगवान जीवात्मा के उद्धार के निमित्त अहैतुकी कृपा करते हैं। मानव-जीव की गरिमा अनुपमेय है। मानव-शरीर स्वयं में ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप है। बाह्यजगत से लेकर अत्यंत गहरे पाताल राज्य के गूढ़तम अंधकार तथा ऊर्ध्वतम महाव्योम का चिदालोक तक मानव-शरीर में विराजित हैं। इसमें प्रकृति के सभी तत्व निगूढ़ रूप में मौजूद है। किसी तत्व का यहाँ अभाव नहीं है। ऐसी दुर्लभ संपदा का उपयोग बहुत सोच-समझकर ही किया जाना चाहिए।

मानव-जीवन हमें इसलिए नहीं मिला कि अनंतकाल तक के लिए अपनी अवनति के साधन इकट्ठा करते रहे। मनुष्य जीवन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग करने की बजाय निरर्थक बातों में उलझकर रह जाएँ। मानव-जीवन अद्भुत एवं विलक्षण है। यहाँ से ऊर्ध्व में भी जाया जा सकता है और अधःपतन की ओर भी उन्मुख हुआ जा सकता है।जो अपने को सत्कर्मों की क्रियाशीलता में समर्पित कर देते हैं, वे स्वतः ही उस परम सत्ता की पूर्ण अभिव्यक्ति के आधार बन जाते हैं बंगाल के भक्तप्रवर रामप्रसाद ने इस भाव को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

मन रे ! तुमि कृषि काज जानन।

ए मन मानव जमिन रइल पतित

आबाद करले फलत सोना।

अर्थात् हे मन ! तुम खेती करना नहीं जानते। मानव जीवन रूपी जमीन परती रह गई। अगर सत्कर्मों की खेती की होती तो सोना फलता यानि कि भगवान मिलते।

उपनिषद्कार महर्षि कहते हैं, “उठों ! जागो !” जागने का अभिप्राय यह है कि समस्त चराचर जगत ईश्वर का अंश होने से ईश्वर का स्वरूप है। ऐसा समझकर उसकी सेवा करना और सर्वव्यापक परमात्मा को तत्व से जानकर उसकी प्रेममयी स्मृति सदैव ही बनाए रखना। ऐसे जाग्रत व्यक्ति जहाँ भी होते हैं वहां के जन-मन पर उनका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। सद्विचारों व सद्भावों के विद्युत प्रवाह का प्रभाव उनके आस-पास के लोगों पर सूक्ष्म रूप से पड़ता रहता है। फलस्वरूप वहाँ अनायास ही सौभाग्य-समृद्धि की वृष्टि होती रहती है।

मनुष्य चेतना के जिस धरातल पर खड़ा है, वहाँ दासता कम, स्वतंत्रता अधिक है। वह जिस परिस्थिति में जन्मा है वहीं समाप्त हो जाने के लिए बाध्य नहीं है। वह इतना स्वतंत्र है कि प्रत्येक क्षण नए संकल्प कर सकता है। चेतना के उच्चतर लोकों को जी सकता है। ‘चेतना’ शब्द में व्यापक-विराट अर्थ निहित है। चेतना से यह आशय है कि मनुष्य में जड़ जगत से भिन्न कुछ शक्तियाँ है। वह वस्तु और सत्य को देख-सुन सकता है। अनुभव कर सकता है, सोच-विचारकर निर्णय ले सकता है। और अनेकों प्रकार की क्रियाएँ कर सकता है। यह सब इस कारण संभव हो पाता है क्योंकि उसमें चेतना है। जड़ जगत शरीर, प्राण, इंद्रियाँ मन, बुद्धि, अहंकार यह सब एक प्रकार से चेतना की स्थूल अभिव्यक्तियाँ है। यही चेतना रूपांतरित होने पर महाचेतना, दिव्यचेतना, अतिमानसिक चेतना में उठ सकती है। श्री अरविंद के अनुसार, यदि मानव अपनी अपूर्णताओं को प्रेम करना छोड़ दे तो उसके आध्यात्मिक रूपांतरण में समय नहीं लग सकता।

विडंबना यह है कि अधिकाँश मनुष्य इंद्रियों द्वारा रची जीवन की परिभाषा के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। इंद्रियाँ जिस सत्य को उनके मन तक लाती हैं, वहीं उनके लिए परम सत्य बन जाता है। मनुष्य उसी सत्य को जीने के लिए उन्हीं अनुभूतियों को भोगने के लिए बाध्य रहता है, जो इंद्रियाँ देती है। इंद्रियाँ साँसारिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं छू पाती। जिस दिन ये साँसारिक वासनाओं से स्वयं को ऊपर उठा लेती है। उसी दिन भागवत चैतन्य को प्राप्त कर लेती हैं। तब मनुष्य किसी का दास नहीं बनता सब उसके दास बन जो हैं। जहाँ जीवन का सारा अंधकार समाप्त हो जाता है, जहाँ दुःख, आनंद बन जाता है, जहाँ दुर्बलताएं नष्ट हो जाती है, वहीं से मनुष्य जीवन का स्वर्णिम रूपांतरण प्रारंभ हो जाता है।

मानव-जीवन की गरिमा इसी में है कि मनुष्य अपने जीवन को दिव्यभूमिका में स्थापित कर तद्नुरूप आचरण करे। इसके लिए श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान कृष्ण ने योग की विधि सुझाई है। यह योग शब्द ‘युज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है जोड़ना। अतः स्पष्ट है कि हम कहीं से बिछुड़ गए हैं अथवा टूट गए हैं और इसे मिलाने अथवा जोड़ने की आवश्यकता है। इस जोड़ने की प्रक्रिया को तन, मन व बुद्धि के स्तर पर क्रमशः कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञानयोग कहा जाता है। योग के ठीक विपरीत है ‘भोग’ जहाँ मनुष्य अपनी निरंकुश माँग की पूर्ति में अहर्निश डूबा रहता है। आश्चर्य यह है कि इस भोग कला में मनुष्य दक्ष हो जाता है पर योग के शाश्वत तत्व से अनभिज्ञ बना रहता है।

सामान्यतः मनुष्य तीन प्रकार के कम करता है। पहला वह जो अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए करता है। दूसरा निस्वार्थ वृत्ति से एवं तीसरा जो बिना किसी प्रयोजन के किया जाता है। पहले श्रेणी के कार्य कर्मयोग नहीं कहे जा सकते। कर्मयोग तो सभी संभव है, जब कामना तो हो, पर निजी स्वार्थ की न हो। इसी तरह निष्प्रयोजन कर्म भी मूढ़ता का परिचायक है। स्वार्थ के दायरे से ऊपर उठकर महत् प्रयोजन के लिए कर्म करने वाले की चेतना भी महत् चेतना से तदाकार हो जाती है।

भावभरे भक्तिमय जीवन से भी यही उपलब्धि पाई जा सकती है। जन्म से मनुष्य को जीवन की अनिवार्य सुविधाएँ बिना माँगे मिलती हैं। अपने अजस्र अनुदानों से प्रतिपल सराबोर करते रहने वाले स्रष्टा के प्रति शरणागति एवं भक्तिवृत्ति को जब मनुष्य अपने हृदय में धारण कर लेता है, तब भक्तियोग का उदय होता है। इसकी चरम परिणति परम तत्व से भावमय ऐक्य के रूप में होती है।

प्रभु से जुड़ने का तीसरा तरीका ज्ञान योग का है। यह ज्ञान मात्र विद्वता से नहीं मिलता। गहन आत्मचिंतन से जब मनुष्य इस लक्ष्य को समझ लेता है कि प्रत्येक आत्मा निश्चय ही वहीं है, जो विश्व की आत्मा है। सभी आध्यात्मिक नाते से परस्पर आबद्ध है। प्रत्येक की दिव्यसत्ता हमारे भीतर ही संस्थित है तथा हम अपने भीतर दिव्य स्वरूप की अनुभूति कर सकते हैं, जो विश्वात्मा का शाश्वत अंश है, तब ज्ञानयोग की सार्थकता सिद्ध होती है।

प्रत्येक श्वास के साथ हम सब अपने जीवन की समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। जब इसके पूर्ण हो जाने का समय आता है, तब मूल्यवान संपत्ति या रत्नराशि देकर भी एक श्वास भी नहीं पाया जा सकता। बीता हुआ क्षण कभी वापस नहीं आता। इतने पर भी न जाने क्यों माया रूपी मदिरा का पान कर हम ऐसे सम्मोहन जाल में उलझे हैं कि उसका नशा उतरता ही नहीं। जीवन का संपूर्ण अमय व श्रम इसी वृथा नियोजन में चला जाता है। मानव-जीवन के रूप में जो अमूल्य संपदा हमें प्रभु की ओर से मिली थी। वह क्षय होती चली जाती है। सच तो यही है कि मानव जीवन एक पवित्र धरोहर है, जिसे विनष्ट किया जाना चाहिए और न ही इसका दुरुपयोग होना चाहिए। इसकी सार्थकता तो योग के कर्म, ज्ञान व भक्तिपथ पर आरुढ़ होकर मानवीय चेतना को परमचेतना से तदाकार करने में है। मानव जीवन की गरिमा भी इसी में निहित है।


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