एक व्यक्ति बहुत-बहुत दिनों तक बाहर रहता और लौटता। कई बार तो पड़ोसियों को भी पता नहीं लगता कि वह कब चला गया। उसके पड़ोसी ने एक बार पूछा, “आजकल आप क्या कर रहे हैं ? यहाँ बहुत कम दिखाई देते हैं।” उसने उत्तर दिया, “भाई अब शरीर की तीसरी अवस्था चल रही है। भगवान की सेवा और पूजा-परमार्थ भी करना चाहिए, वही कर रहा हूँ।”
पड़ोसी को संदेह हुआ कि कहीं वह अनुचित काम तो नहीं कर रहा है। वह तो घर में रहकर भी की जा सकती है। उसने छिपकर तलाश किया, तो पता चला कि वह गाँव-गाँव जाकर व्यायामशालाएँ खुलवाता है। लौटने पर पूछा, “आप तो कहते हैं कि पूजा-पाठ करते हैं, जबकि तथ्य यह है कि आज लोगों को व्यायाम की शिक्षा देते हैं।” जब यह चर्चा चल रही थी, उधर से समर्थ गुरु रामदास गुजर रहे थे। उन्होंने कहा, “भाइयों ! जो अपनी सामर्थ्य को सत्प्रयोजनों में लगा देता है, राष्ट्र को समर्थ-सशक्त बनाने की पीड़ा अंतः में लिए परमार्थरत रहता है, वह भगवान का सबसे बड़ा भक्त है। नाम जपने से भी बड़ा पुण्य इस पवित्र कार्य का माना गया है।”