दमन दान और दया

June 2000

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देवों और असुरों की आपस की आपस में कभी नहीं पटती थी। हर रोज वे एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कुछ न कुछ उपद्रव करते रहते थे। उनकी प्रतिदिन की इस कलह से सृष्टि की व्यवस्था असंतुलित हो उठी। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भी अपनी उस संतानों से परेशान हो गए। इसी बीच एक विलक्षण घटना हुई, सृष्टि में मनुष्य का आविर्भाव हुआ। मानव में उज्ज्वल भविष्य की अपार संभावनाएँ देखकर देव ओर असुर दोनों ही घबराए। उन्होंने कुछ दिन शाँति से रहने का निश्चय किया। फिर तो सृष्टिकर्ता की तीनों संतानों में परस्पर सौहार्द्र स्थापित हो गया। ये सभी आनंदपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

एक दिन तीनों परिवारों के कुल वृद्धों ने यह विचार किया कि इस पारस्परिक सौहार्द्र को स्थायी रूप मिलना चाहिए। अतः हम सबको प्रजापति ब्रह्मा के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यह विचार सभी को बेहद पसंद आया। वे सभी सृष्टिकर्ता के पास पहुंचे। प्रजापति भगवान ब्रह्मा ने आश्चर्यमिश्रित विस्मय के साथ पूछा, “ हे भद्रजनों! आप लोगों का यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? कृपया मुझे सब कुछ साफ-साफ बताने का कष्ट करें।”

देवों असुरों और मनुष्यों ने विनम्र भाव से हाथ जोड़कर अपने मंतव्य प्रकट किए। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उनके प्रति प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, “ आप लोगों के मन में यह शुभ संकल्प उत्पन्न हुआ, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, परन्तु मुझसे शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व आप लोग एक वर्ष तक संयम से इंद्रियों को वर्ष में करके तप- साधना करें। एक वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर मैं तुम सबको अमृत तत्व की शिक्षा दूँगा।”

उन सभी ने विनम्रभाव से प्रणाम करते हुए प्रजापति से कहा, “ हे भगवान! आपकी आज्ञा हमें शिरोधार्य है। आपकी कृपा से हमें सच्ची शाँति मिल सकेगी” इतना कहकर वे सभी साधना में लीन हो गये। तप-साधना के प्रभाव से देवों, असुरों और मनुष्यों की स्वभावानुसार भोगेच्छा, हिंसा और साँसारिक आसक्ति की भावनाएँ समाप्त होने लगी। विरक्तभाव से वे सभी अध्यात्म-चिंतन में लग गए।

एक वर्ष व्यतीत होने पर सृष्टिकर्ता ने देखा कि अब वे सभी अपनी पुरानी प्रवृत्ति भूलकर सन्मार्गपथ के अनुगामी बन गए है। अतः उन्होंने उन पर दया करने की भावना से शिक्षा देने का निश्चय किया। देव, असुर ओर मनुष्य भी समूचा साल बीत जाने पर इस प्रतीक्षा में थे कि प्रजापति से निवेदन करें कि वे उन्हें शिक्षा दें। यही चिंतन करते हुए वे उनके पास पहुंचे और निवेदन किया, हे भगवान! आपसे शिक्षा ग्रहण करने का उपयुक्त समय अब आ पहुंचा है। कृपया हमें उपदेश दीजिए।

प्रजापति ब्रह्मा कुछ देर गंभीर मुद्रा में मौन रहकर उन सबकी ओर निहारते रहे, एक क्षण बाद केवल एक अक्षर ‘द’ बोलकर चुप हो गए। घंटे की अनुरणन ध्वनि की तरह वह देव-असुरों और मनुष्यों के मन-मस्तिष्क में गूँजता रहा और वे सभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के चरणों में बैठकर एकाग्रचित्त से ‘द’ का अर्थ लगाने लगे।

सबसे पहले देवों की बारी आई। उन्होंने ब्रह्मदेव से कहा, “ भगवन् हम ‘द’ का अर्थ समझ गए है। आपने हमें ‘दाम्पत्य‘ अर्थात् इंद्रियों का दमन करो, यह उपदेश दिया है। दरअसल हम अजर-अमर होकर इंद्रियों के पाश में बंधे हैं। इंद्रिय-सुख को ही हमने सब कुछ मान लिया है। अतः आपका इंद्रिय-


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