करुणा और विवेक से जनकल्याण

June 2000

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यह प्रतिपादन निराधार है कि बुद्ध ने यज्ञ तथा आस्तिकता की विचारधारा का विरोध किया। प्रसिद्ध विद्वान रामधारी सिंह दिनकर ने ‘भारतीय संस्कृति के चार अध्याय’ में बौद्ध धर्म का स्थान नियत करते हुए लिखा है, “वे वैदिक धर्म से दूर नहीं गए, न ही उन्होंने वैदिक धर्म की कुरीतियाँ और कमजोरियाँ थीं। यह मानना ज्यादा युक्तियुक्त है कि बौद्ध धर्म हिंदुत्व का ही परिमार्जित रूप था, जो उसने अपनी बुराइयों से लड़ने के लिए धारण किया था।”

वैदिक सिद्धाँतों को जब जड़ता के साथ जोड़ दिया गया, तो बुद्ध ने विवेक का आश्रय लेने पर जोर दिया। साधना, संस्कार और शुचिता के मार्ग का आग्रह रखते हुए साधकों के लिए एक स्थिति में वेद और शास्त्र को ही प्रमाण मानना ठीक था, लेकिन आग्रह ने जब अंधानुकरण का रूप ले लिया, तो उसका विरोध आवश्यक था। यह विरोध वेद-शास्त्रों का नहीं मन-मस्तिष्क में आ बैठी जड़ता का था।

यज्ञ-यागों के निषेध में भी यही तथ्य लागू होता है। भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों में यज्ञ, सुयज्ञ और अयज्ञ शब्दों का प्रचुर उपयोग किया है। उनके अनुसार, वे यज्ञ निरर्थक है, जिनमें वैभव का प्रदर्शन किया जाता है, धन का अपव्यय होता है और पशुओं की हिंसा होती है। श्रावस्ती में प्रवास करते हुए बुद्ध द्वारा यज्ञ के संबंध में दी गई देशना उल्लेखनीय है। यह देशना ‘कोसल संयुक्त’ में संकलित है। प्रसंग का अनुवाद इस प्रकार है, बुद्ध भगवान् श्रावस्ती में रहते थे। उस समय कौशल राजा का यज्ञ आरंभ हुआ। उसमें पाँच सौ बकरे और पाँच सौ बैल, पाँच सौ बछड़े, पाँच सौ बछिया, पाँच सौ बकरे और पाँच सौ मेढे बलिदान के लिए यूपों में बाँधे हुए थे। राजा के दास, दूत और कर्मचारी दंड से भयभीत होकर आँसू बहाते हुए रोते-रोते यज्ञ के सभी कार्य कर रहे थे।

वह सब देखकर भिक्षुओं ने भगवान् को बताया। तब भगवान् बुद्ध बोले, बकरे, मेढे और गायों जैसे विविध प्राणी जिन यज्ञों में मारे जाते हैं, वे फलदायक नहीं होते। उस यज्ञ के लिए सदाचारी महर्षि नहीं जाते। जिन महायज्ञों में प्राणियों की हिंसा नहीं होती, वे लोग को प्रिय लगते हैं। जिनमें बकरे, मेढे, गायें आदि प्राणी नहीं मारे जाते उनमें सदाचारी महर्षि सदैव उपस्थित रहते हैं। अतः विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह ऐसा यज्ञ करे, जिससे सभी प्राणियों का कल्याण होता हो। बहुत से लोग एकत्र होकर सर्द्धम के विस्तार की चर्चा करते हैं। ऐसा यज्ञ महा फलदायक होता है। यह यज्ञ वृद्धि पाता है और इससे देवता प्रसन्न होते हैं। इससे यजमान का कल्याण होता है।

यज्ञ के तत्वदर्शन का उपदेश करते हुए भगवान् बुद्ध ने विभिन्न अवसरों पर कहा कि आचार में ‘सत्’ तत्व का समन्वय ही यज्ञ है। काम द्वेष और मोह से प्रेरित होकर किया गया यज्ञ अशील एवं तामसी है। उनका परित्याग किया जाना चाहिए। ‘ अ्रगुतर निकाय’ के ‘सुतक निपात’ में उल्लेखित प्रसंग का सार इस प्रकार है, जैतवन में प्रवास करते हुए भगवान् बुद्ध के पास एक आचार्य आया। उद्गत नामक यह ब्राह्मण महायज्ञ की तैयारी कर रहा था। वह भगवान् के पास आकर बैठ गया और कुशल प्रश्न पूछने के बाद बोला, “हे गौतम ! यज्ञ के लिए अग्नि सुलगाना और यूप खड़ा करना अति फलदायक होता है।”

भगवान् बुद्ध ने कहा, “मैंने भी यह सुना है।” उद्गत ने अपना कथन दो बार और दोहराया। भगवान् ने दोनों बार अपनी वही बात कह दी। इसके बाद उद्गत ने अपने लिए जो कल्याणकर है, उसका उपदेश देने के लिए कहा। भगवान् बुद्ध ने कहा, “जो प्राणियों का वध करने वाले यज्ञ का संकल्प करता है, उसकी योजना बनाता है और उस पर आचरण करता है, वह दुःख उत्पन्न करने वाले तीन अकुशल कर्म करता है। जो इस तरह के यज्ञ के लिए अग्नि सुलगाता और यूप खड़े करता है, वह दुःख उत्पन्न करने वाले तीन शास्त्र उठाता है। वे शस्त्र कौन से है ? कायशस्त्र, वाचाशस्त्र और चितशस्त्र। जो यज्ञ का प्रारंभ करता है, उसके मन में यह अकुशल (तामसी) विचार आता है कि इतने बैल, इतने बछड़े, इतने बकरे और इतने मेढे मारे जाएँ। इस प्रकार वह सर्वप्रथम चितशस्त्र उठाता है। फिर वह अपने मुँह से इन प्राणियों की हत्या के लिए आज्ञा देता है और उससे दुःख उत्पादक अकुशल वाचाशस्त्र उठवाता है। अनंतर उन प्राणियों को मारने के लिए स्वयं ही उन प्राणियों को मारना शुरू कर देता है। इस प्रकार वह दुःख उत्पन्न करने वाला कायशस्त्र उठाता है।”

“कुशल यज्ञ वह है जिसमें अग्निहोत्र के साथ प्रतिदिन तीन अग्नियों का सत्कार किया जाए। उनका सम्मान किया जाए और उनकी पूजा अर्चा भली भाँति की जाए। ये तीन अग्नियाँ कौन सी हैं ? इन अग्नियों के नाम है, आह्वनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि। माता-पिता के लिए आह्वनीय अग्नि को संधान करना चाहिए। उसका सम्मान करना चाहिए, सत्कार से माता-पिता की पूजा करनी चाहिए। पत्नी और बच्चे, सेवक आदि के लिए गार्हपत्य अग्नि का विधान है। उनका आदरपूर्वक लालन-पालन करना चाहिए। श्रमण (संन्यासी, भिक्षु) और ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिए। इनका भी सत्कार किया जाना चाहिए।”

दीर्घनिकाय के ही कूटदंत सुत में एक अवसर पर भगवान् बुद्ध ने सुयज्ञ का उपदेश दिया है। महाविजित नामक एक राजा एक महायज्ञ की योजना बना रहा था। उसके राज्य में भारी उपद्रव हो रहे थे, बटमारियाँ होती एवं चोरी-चकारी होती थी। महाविजित ने अपने अमात्य को बुद्ध की सम्मति जानने के लिए भेजा। भगवान् बुद्ध ने महाविजित को परामर्श दिया, “राज्य में सुख-शाँति के लिए प्रयत्न करना प्रथम आवश्यक है। राज्य में उपद्रवों के छाए रहते किए गए यज्ञ याग के फल निश्चित मिलेंगे। उसके लिए प्रजा पर न तो कर लगाना चाहिए और न ही उपहार ग्रहण करना चाहिए।”

महाविजित ने राज्य में न्याय और सुरक्षा के लिए सुनिश्चित उपाय किए। उसके बाद एक विराट् यज्ञ किया। भगवान् बुद्ध की बताई विधि के अनुसार राजा ने किसी से उपहार आदि नहीं लिए। जो लोग उपहार लेकर आए उनसे कहा कि इस धन को लोकहित में खरच करना चाहिए। धनिकों ने अपने उपहारों का उपयोग यज्ञशाला के चारों ओर धर्मशालाएँ खुलवाने, गरीबों को दान देने, रोगियों के लिए चिकित्सालय खोलने और अनाथों के लिए शरण की व्यवस्था में किया। इस आयोजन की सूचना भगवान बुद्ध को मिली तो उन्होंने “बहुत अच्छा यज्ञ-बहुत अच्छा यज्ञं” कहकर महाविजित को आशीर्वाद भिजवाया।

भगवान बुद्ध ने वर्ण या जाति का आधार कर्म माना है। संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार वे किसी को ब्राह्मण या क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदि ठहराते हैं। ‘सुत्त निपात’ और ‘मज्झिम निकाय’ में वे दो शिष्यों को समझाते हैं, “यदि कोई ब्राह्मण गाये पालकर निर्वाह करता हो उसे ब्राह्मण नहीं ग्वाला कहना चाहिए। जो शिल्पकला से जीविका चलाए वह ‘कारीगर’ है। जो व्यापार करे वह बनिया, दूत का काम करने वाला दूत, चोरी से निर्वाह करने वाला चोर, यज्ञ-यागों से निर्वाह करने वाला याजक और राष्ट्र के आधार पर जीवनचर्या करने वाला राजा है। इनमें कोई भी जन्म के कारण ब्राह्मण, शिल्पी या राजा नहीं है।”

ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए वे इन्हीं शिष्यों को समझाते हैं, “जो सारे संसार के बंधनों को काट डालता है, किसी भी साँसारिक दुःख से नहीं डरता, जिसे किसी भी बात की आसक्ति नहीं होती, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। औरों द्वारा दी गई गाली-गलौज, वध, बंध आदि को जो सहन करता है, क्षमा ही जिसका बल है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। कमलपत्र पर विद्यमान जलबिंदु की तरह जो इहलोक के विषय सुखों से अलिप्त रहता है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।” कितनी सुँदर परिभाषा है ब्राह्मण की।

‘अस्सलायन सुत्त’ में बुद्ध की एक चर्चा आती है। उसमें आश्वलायन नामक स्नातक को भगवान बुद्ध समझाते हैं, “क्या तुमको ऐसा नहीं लगता कि यदि क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र प्राणघात, चोरी, व्यभिचार, असत्य भाषण, परनारी का अपहरण और दूसरे कुकर्म करें, तो वे नर्क में जाएँगे। ब्राह्मण यदि इस तरह के कुकर्म करे, तो वह नरक नहीं जाएगा ? आश्वलायन इस युक्ति को स्वीकार करते हुए कहता है, “किसी भी वर्ण का मनुष्य इन पापों को करे, तो वह निश्चित ही नरक जाएगा। ब्राह्मण हो या अब्राह्मण सभी को अपने पापों का प्रायश्चित करना ही होगा।”

इसी उपदेश में भगवान बुद्ध आगे पूछते हैं, “हे आश्वलायन ! दो ब्राह्मण भाइयों में एक ने वेदों का अध्ययन किया। अच्छा शिक्षित है और दूसरा अशिक्षित है। उन दोनों में किस भाई को यज्ञ आदि कार्यों में आमन्त्रित किया जाएगा ?” आश्वलायन कहता है, “जो शिक्षित होगा उसे ही प्रथम आमंत्रण दिया जाएगा।”

भगवान बुद्ध पूछते हैं, “अब मान लो कि उन दोनों भाइयों में एक बहुत विद्वान किन्तु दुराचारी है दूसरा विद्वान नहीं है, लेकिन अत्यंत सुशील है। इस स्थिति में उन दोनों में किसे आमंत्रित किया जाना चाहिए ?” आश्वलायन का उत्तर था, “जो शीलवान होगा उसी को प्रथम आमंत्रण दिया जाएगा। दुराचारी मनुष्य को दिया गया दान कैसे फलदायक होगा।”

बुद्ध के इस संवाद को ‘चातुर्वर्ण्यं शुद्धि’ का प्रतिपादन बताया गया है। ‘चातुर्वर्ण्यं शुद्धि’ अर्थात् प्रथम बुद्धि महत्वपूर्ण है। कुल के बाद विद्या और शील का स्थान आता है। इनमें शील सर्वोपरि है। मनुष्य न किसी कुल वंश या वर्ण में जन्म लेने के कारण श्रेष्ठ है, न ही विद्या आदि के कारण, उसके शील-संस्कार ही उसे उच्च अर्थात् निम्न बनाते हैं।

बौद्ध-परंपरा के प्रसिद्ध विद्वान और स्थविर ............ पोछे ने सामाजिक संदर्भों के अलावा दार्शनिक संदर्भों के माध्यम से निरूपित किया है कि भगवान बुद्ध एक परंपरा की कड़ी थे। वे किसी परंपरा का आरंभ, अंत या उच्च नहीं थे। भारतीय धर्म-परंपरा में इस तरह के संशोधन आए दिन उठते हैं। उन्हें शुद्धिकरण के रूप में देख सकते हैं। अलगाव की तरह नहीं आगे चलकर भारतीय धर्म में उन्हें विष्णु के नवें अवतार के रूप में स्वीकृत किया गया। फ्रेंच विद्वान देल पूसिन ने लिखा है, “हिंदुओं के यहाँ ईश्वर की जो कल्पना त्राता या रक्षक के रूप में चल रही थी, उसने बौद्ध मत की महायान शाखा को ज्यों का त्यों अपना लिया। भारत में बुद्ध विष्णु के अवतार मान लिए गये। वे वेद-शास्त्रों में ही रमे जा रहे लोगों को मोहनिद्रा से जगाते हुए आए और हजार वर्ष से ज्यादा समय तक छाया रहने वाला प्रभाव छोड़ गए। उनका स्थापनाओं और शिक्षाओं में ऐसा कुछ नहीं था जिसे सीधा बौद्ध मत का आविष्कार कहा जा सके। विद्या और साधना के क्षेत्र में वह पहले से स्थित था। भगवान बुद्ध ने उन्हें ऊर्जा प्रदान की।”


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