सिद्धि का मर्म-निष्काम कर्म

June 2000

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“महात्मा जाजलि! निश्चित ही तुमने कठोर तपस्या की है। तुम्हारी साधना भी उत्कृष्ट हैं, फिर भी तुम धर्म के गूढ रहस्य से अनभिज्ञ हों। वाराणसी नगरी के तुलाधार वश्य तत्त्वज्ञानी हैं। वे कभी भी गर्वभरी वाणी नहीं बोलते, जबकि तुम अहंकार के वशीभूत होकर स्वयं की महिमा का झूठा बखान करते फिर रहे हो”। इन वचनों से तपस्वी जाजलि उद्विग्न हो उठे।

उन्होंने अपने शरीर को मिट्टी की तरह मानकर अखंड तपस्या प्रारम्भ की थी। तपस्या करते-करते वर्षा से गीली केश राशि उलझकर वृक्ष की जटाओं जैसी बन गई थी। सालों-साल तक अपनी जगह से जरा-सी भी न हिलने के कारण शरीर पर मोटी धूल की परतें जम गई थी। निर्जल-निराहार तप करते हुए उनकी सुगठित सुडौल देह यश्टि सूखे काष्ठ की भाँति हो गई थी। किंतु तप के तेज से उनका चित सुस्थिर और व्यग्रता से रहित था।

काष्ठ की भाँति वे एक सूखे ठूँठ बन गए थे। उनके सिर की उलझी जटाएँ भी कुछ ऐसा ही आभास कराती थी। तभी तो अवसर पाते ही एक गौरैया ने उसमें घोंसला बना लिया। वहीं गौरैया ने अंडे दिए और फिर उसके नन्हें पक्षी भी वहीं बसेरा करने लगे। यह सब अनुभव करके महात्मा जाजलि अपनी सहिष्णुता पर फूले न समाए। उन्हें अच्छा लग रहा था कि उनके प्रश्रय में वे जीव निर्भय, निश्चित हो निवास कर रहे हैं मुनि जाजलि अपनी जगह से हिले-डुले बगैर उन पक्षियों के सुख में सहयोग देकर अपनी तप-साधना को सफल मानने लगे।

एक समय ऐसा भी आया की बच्चों सहित सभी पक्षी दूर कहीं उड़ गए और लौटे भी नहीं। महामुनि जाजलि के लिए यह उनकी तप-साधना की सफलता थी कि इन पक्षियों का परिवार उनकी जटाओं में इतनी लंबी अवधि तक बना रहा और वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनकी साधना सर्वथा अविचल एवं अडिग बनी रही। इसी भावना ने उन्हें गर्व के उन्माद से भर दिया और वे आत्मप्रशंसा करते हुए अपने अंतर्मन की बातें कहने लगे, “अकेला मैं ही हूँ,जिसने इस धरती पर धर्म का रहस्य जान लिया है। सहस्रों किरणों वाले सूर्य की तेजस्विता से बढ़कर भी मेरी तप-साधना का तेज है। मेरी इस धर्म साधना की महिमा और महात्म्य को समूचे संसार में प्रसिद्ध होना चाहिए। आखिर मैंने विपरीत क्षणों में कठोर तपस्या करके विजय पाई है। कोई भी कठिनाई, किसी तरह की बाधा मेरे तप में विघ्न-व्यवधान नहीं डाल सकी। अतः अब अपनी इस तपस्थली से मैं सीधे मनुष्य-समाज में पहुँचूँगा और उन सभी को धर्म के रहस्य और अपनी महिमा से परिचित करवाऊँगा, साथ ही यह भी पता लगाऊँगा कि समूचे विश्व में क्या कोई मेरे जैसा दूसरा भी हैं ? “इस आत्मप्रशंसा एवं अहंभाव से उनका समूचा अंतःकरण ओत-प्रोत था। तभी उन्हें आकाशवाणी से ये वचन सुनने को मिले-

“महात्मा जाजलि! तुलाधार तुमसे कहीं अधिक श्रेष्ठ है। तुम वाराणसी जाकर उनसे धर्म के सच्चे स्वरूप की शिक्षा प्राप्त करो।”

इस देववाणी को सुनकर महात्मा जाजलि क्षुब्ध हो उठे। ईर्ष्या, क्रोध और क्षोभ से उनकी मुखाकृति विकृत हो उठी। इतनी घोर-कठोर साधना! रात-दिन, वर्षा-धूप शीत-ग्रीष्म किसी की भी चिंता किए बगैर अविचल भाव से महारण्य में उन्होंने निराहार तपोमयी जीवन बिताया और वाराणसी के साधारण से एक दुकानदार तुलाधार वैश्य की तुलना में उनकी समूची तप-साधना निष्फल है। वह साधारण सा वैश्य तुलाधार उनसे कहीं श्रेष्ठ है। अंतर्द्वंद्व से उनके मन-अंतःकरण में कुहराम मच गया। उनकी तप साधना की समूची स्थिरता-एकाग्रता जल के फेन की भाँति न जाने कहाँ विलीन हो गई।

वे सोचने लगे, जैसे भी हो शीघ्र ही मुझे वाराणसी पहुँचकर उस तुलाधार से भेंट करनी चाहिए। आखिरकार क्या है उस साधारण से विक्रेता के पास, जिसकी वजह से आकाश के स्वर्गस्थ देवगण भी उसका इतना कीर्तिमान कर रहे है।

बीहड़ वनपथ को पार करते हुए वे शिवनगरी वाराणसी की ओर चल पड़े। अपने स्वभाव के अनुसार वे एक बार फिर से दृढ़ निश्चयी बने। बिना रुके, बिना थके उस पथ पर भूखे-प्यासे तब तक चलते रहे जब तक देवनदी गंगा किनारे बसी वाराणसल न पहुँच गए। वाराणसी में तुलाधार का नाम अपरिचित न था। यशस्वी तुलाधार के जीवन से सभी परिचित थे। जिससे भी उन्होंने पूछा, उसी ने उनको तुलाधार का निवास बता दिया। महात्मा जाजलि भी बिना कोई देर लगाए उनके निवास पर पहुँच गए।

अपने निवास पर ग्राहकों से घिरे तुलाधार अपने सामान की बिक्री कर रहे थे। महामुनि जाजलि मौनभाव से वहीं पास में जा खड़े हुए। दुकान और व्यापारी देखकर उनका मन क्षोभ से भर गया। वह खड़े-खड़े सोचने लगे, कहाँ निविड़ वन में एकाँत कठोर तप-साधना से धर्म के तत्त्व को प्राप्त करने वाला महासाधक मैं और कहाँ साँसारिक वस्तुओं को खरीदने -बेचने में जुटा यह महासंसारी वणिक तुलाधार! यह तो लाभ-हानि से भरे लोभ-लिप्सा से मग्न क्षणों का ही जीवन बिता रहा है।द्वंद्व से विचलित उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वे चुपचाप उसी स्थान पर खड़े रहे और तुलाधार से एकाँत में वार्ता की प्रतीक्षा करने लगे।

“महामुनि! मुझे मालूम है कि आप दुर्गम-बीहड़ पथ को पार करके मेरे पास आए हैं। रास्ते में आपको अनेक कष्ट उठाने पड़े है, भूख-प्यास की व्यथा झेलनी पड़ी है यह भी मुझे पता है कि स्वयं को अकेला तत्त्वज्ञानी समझने के कारण आप आकाशवाणी सुनकर मेरे समीप आए हैं।” तुलाधार के इस कथन के प्रत्येक शब्द में उनकी विनम्रता का प्रकाश था। बातें करते हुए वे उतरकर उनके समीप आ गए थे। उन्होंने महात्मा जाजलि से कहा, “आप मेरे समीप ही कुछ समय विश्राम करें, फिर मैं आपकी जिज्ञासा का समाधान करूंगा।”

तुलाधार की शाँत और प्रेम से सनी वाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन तुलाधार एक बार फिर अपने कार्य में व्यस्त हो चले थे।

साँझ का सुरमई रंग धरती पर उतर आया था। दैनिक संध्योपासना से निवृत्त होकर तुलाधार अब निश्चिंत भाव से आसन ग्रहण कर चुके थे। तपस्वी जाजलि भी वहीं उनके पास बैठे थे।

तुलाधार ने शाँत-संयमित वाणी से अपनी बातचीत का क्रम प्रारंभ किया, “हे महामुने! मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि निरंतर कठोर तप से आपने महती सिद्धी प्राप्त की है। मुझे यह भी पता है कि स्थाणु बनी आपकी देह में पक्षियों ने भी घोंसले बना लिए थे। यह पक्षी-परिवार बहुत समय तक आपकी जटाओं में पलता रहा, किंतु आप रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। यहाँ तक तो सारी बातें सच हैं, लेकिन आपकी यह मान्यता कि अकेले आप ही इस धरती पर धर्म के मर्मज्ञ है, यह मिथ्या गर्व आपके लिए अनिष्टकर बन गया। साधना रूपी कल्पवृक्ष को छिन्न-भिन्न करने वाला अहंकार कुठार दीर्घ साधना के बाद भी आप में छिपा रहा। इसी घोर शत्रु से छुटकारा दिलाने के लिए देववाणी सुनाई दी और आप यहाँ आए। अब आप ही बताएँ कि मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूं, जिससे आपका कल्याण हो ?”

तुलाधार के इस कथन से जाजलि स्तब्ध हो गए। वे हतप्रभ थे कि निर्जन अरण्य में उनके साथ जो भी हुआ, उसका रहस्य इतनी दूर बैठे इन महानुभाव को किस तरह ज्ञात हुआ। इसी आश्चर्य और विस्मय से अभिभूत हो उन्होंने तुलाधार से प्रश्न किया, “हे तपोनिष्ठ महानुभाव आप वैश्य-पुत्र हैं और गृहस्थ भी, किंतु आपने ऐसी अलौकिक सिद्धी कहाँ से प्राप्त की ? निरंतर साँसारिक कर्म में लगे रहकर, तरह-तरह के पदार्थों, वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हुए आपको यह धर्म-बुद्धि किस तरह और कहाँ प्राप्त हुई ? मुझे धर्म के इस मर्म को स्पष्ट करने की कृपा करें।

महात्मा जाजलि की वाणी में अब पर्याप्त विनम्रता थी। उनका गर्व अब तक छँट चुका था “

गायत्री परिवार द्वारा संचालित संस्कार शालाओं प्राथमिक माध्यमिक उच्च माध्यमिक उच्च माध्यमिक (हाईस्कूल) उच्चतर माध्यमिक +2 विद्यालयों तथा डिग्री कॉलेजों की जानकारी शांतिकुंज हरिद्वार में संकलित की जा रही है। यहाँ का शिक्षा संकाय (एजुकेशन फैकल्टी) शैक्षिक उन्नयन और मानव-मूल्यों की शिक्षा के विकास के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। सभी स्तर के विद्यालयों और कॉलेजों की जानकारी निम्नलिखित प्रारूप पर शांतिकुंज हरिद्वार यथाशीघ्र भेजने का कष्ट करें।

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कमरों की संख्या

खेल का मैदान

स्वावलंबन की कोई योजना हो तो उसका विवरण

आवास है अथवा नहीं। कोई और जानकारी जिसे आप देना चाहें।

तुलाधार ने पहले कि तरह शाँत स्वर में धर्म का रहस्य महात्मा जाजलि के सामने रखा, “जो समस्त प्राणियों से मित्र भाव रखता है और सबका हित-चिंतन करता है, वही सच्चा धर्मज्ञ है। किसी भी प्राणी से द्रोह भाव विहीन जीवनवृत्ति ही श्रेष्ठ धर्म है। मैं जीवन के लिए उपयोगी वस्तुएँ दूसरों से क्रय करके बेचता हूँ। जीवन को हानि पहुँचाने वाली वस्तुओं को नहीं बेचता। छल-कपट से दूरी सभी को अपना मित्र मानता हूँ और सभी के हित-चिंतन में लगा रहता हूँ। मेरी यह तुला सभी के लिए समान है। किसी के साथ मेरा कोई भेदभाव नहीं है। मैं सदा ही सबके साथ समान व्यवहार करता हूँ।

महात्मा जाजलि विस्मय-विभोर हो तुलाधार वैश्य के उपदेशों में डूबे थे। किसी परम योगी महर्षि की भाँति ज्ञान का संदेश देती तुलाधार की वाणी देवनदी गंगा की भाँति अविराम प्रवाहित थी।

“मैं सदा ही निष्काम कर्म करता हूँ, औरों की निंदा-प्रशंसा से परे निश्चिंत भाव से मेरा मन इंद्रिय-विषयों से भी परे रहता है। यह भी जानो कि जो सबको अभयदान देता है, वही निर्भय रहता है। परब्रह्म की प्राप्ति संपूर्ण और निष्काम अभयदान से ही संभव है।”

महामुनि जाजलि का हृदय इन अलौकिक उपदेशों से अभिभूत हो उठा। वैश्य तुलाधार ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “सच्ची आस्तिकता और धार्मिकता निष्काम भाव से भगवान् को अर्पित करके कर्म करने में है। सत्कर्म रूपी हविष्य से ही देवगण संतुष्ट होते हैं। श्रद्धापूर्वक एवं निष्काम बुद्धि से किया गया यह धर्म-यज्ञ ही मनुष्य को जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाता है। सद् चिंतन एवं सद्कर्म ही जीवन का राजपथ है।”

धर्म के इस अनूठे तत्त्वज्ञान से जाजलि का अहं खंड-खंड होने लगा। उनकी जिज्ञासा और बढ़ चली। उन्होंने फिर पूछा, “अज्ञानी व्यक्ति यदि आत्मपरिष्कार के शुभ संकल्पों से आत्मयज्ञ का संपादन नहीं कर पाते, तो उन्हें किस तरह आत्मसुख प्राप्त हो सकता है ?”

“मन में अश्रद्धा-शंका होने से यज्ञ और कर्म अपना महत्त्व खो बैठते हैं। श्रद्धावान् मनुष्य ही धर्म का तत्त्व जान सकता है। हे तपस्वी श्रेष्ठ! प्रधान तीर्थ, प्रधान धर्म हमारी अपनी ही अंतरात्मा हैं। जब अंतर ही तीर्थ बन सकता है, तो फिर उसके लिए भटकन कैसी! सद्कर्म करते हुए आत्मज्ञान की प्राप्ति ही धर्म का सबसे बड़ा रहस्य है। इसे कठोर तप से नहीं पाया जा सकता। यह तो आत्मपरिष्कार और आत्मसाधना से ही संभव है। यही मेरा उत्तम व्रत है और मेरी जीवन-साधना का मूलमंत्र है अपने गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए मैं नित्य-निरंतर आत्मपरिष्कार में लीन रहता हूँ। यही मेरी सिद्धी और यही मेरा धर्मतत्त्व हैं।”

तुलाधार के इन वचनों से जाजलि की आत्मा प्रकाशित हो उठी। उनका अहं लोप हो चुका था। अब वह जान चुके थे कि आत्मपरिष्कार में ही धर्म का रहस्य निहित है।


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