महाशक्ति गायत्री का साकार विग्रह थे वे

June 2000

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वर्ष 1976 ई॰ के वसंत पंचमी पर्व पर अपने ऐतिहासिक उद्बोधन में परमपूज्य गुरुदेव ने कहा था, “जिसने मुझे जान लिया, समझो उसने गायत्री को जान लिया।” निस्संदेह पूज्यवर का समूचा जीवन गायत्रीमय था। अनवरत गायत्री साधना की निष्ठा ने उन्हें तपोनिष्ठ बनाया और वे वेदमाता के वरद पुत्र होकर वेदमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। वेदमाता गायत्री सृष्टि की आदि शक्ति है। सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने घोर तप करके इसके तत्त्वज्ञान को जाना था। इसी से वे सृष्टि रचना के लिए आवश्यक ज्ञान-विज्ञान एवं शक्ति-सामर्थ्य प्राप्त करने में सक्षम हुए थे।

ज्ञान और विज्ञान का मूल स्त्रोत होने के कारण ही तो गायत्री वेदमाता कहलाती है। वेदों में जो ज्ञान-विज्ञान भरा पड़ा है, वह सबका सब बीज रूप में गायत्री मंत्री में विद्यमान् है। तमाम देवशक्तियाँ इस महाशक्ति की धाराएँ हैं। उनका प्रादुर्भाव इसी से हुआ है और वे इसी से पोषण पाती है। इस रूप में गायत्री देवमाता है। इतना ही नहीं समूचे विश्व की उत्पत्ति इसी के गर्भ से हुई है, यही कारण है कि गायत्री विश्वमाता भी है।

इस तरह वेदमाता, देवमाता एवं विश्वमाता के रूप में गायत्री सृष्टि की मूल शक्ति है। इसे त्रिपदा भी कहते हैं। सत, रज एवं तम इन तीन गुणों के आधार पर यह सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली कहलाती है, जो क्रमशः सद्बुद्धि, समृद्धि एवं शक्ति की अधिष्ठात्री शक्तियाँ हैं उत्पत्ति, पोषण एवं परिवर्तन की पुरुषवाचक शक्तियों के रूप में यही ब्रह्मा-विष्णु और महेश कहलाती है। अपनी प्राणरक्षक क्षमता के कारण इसका नाम गायत्री पड़ा हैं व्यक्ति में सद्बुद्धि एवं सद्भाव जगाने वाली यह महाशक्ति वस्तुतः धरती की कामधेनु है, जो उनका पयपान करने वालों के दुःख संताप एवं अभाव का हरण करती है। उन्हें सुख-शाँति एवं समर्थता का अनुदान देती है।

अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे भारतीय संस्कृति की जननी होने का गौरव प्राप्त है। जो महत्त्व गंगा नदी का भारतीय जीवन में रहा है, वही महत्त्व गायत्री रूपी ज्ञानगंगा का है। पुण्यसलिला गंगा जहाँ शरीर की मलीनता को धोकर इसे स्वच्छ-निर्मल बनाती है, वहीं गायत्री रूपी ज्ञान-गंगा आत्मा को पवित्र करती है। आदिकाल से लेकर आज तक सभी ऋषियों ने एक स्वर से इसकी महिमा का गान किया है। सभी अवतार पुरुषों की यह उपास्य रही है। भारतीय जीवन से जब भी गायत्री के तत्त्वज्ञान का विलोप हुआ, यहाँ की संस्कृति पतन-पराभव के गर्त में जा गिरी। इसके तत्त्वज्ञान उन्नयन में ही भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का उन्नयन समाया रहा है।

इस युग में परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी कठोर तप-साधना से गायत्री की विलुप्त शक्तियों को फिर से उजागर किया। गायत्री महाविद्या एवं इसके तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए संकल्पित हुए। चौबीस लाख के चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णता की वेला में अगस्त 1951 की अखण्ड ज्योति में उन्होंने अपने अनुभवों को बताते हुए लिखा, “हमारे जीवन का अधिकाँश भाग गायत्री माता की गोदी में व्यतीत हुआ है। इस महामंत्र के संबंध में हजारों आर्षग्रंथों का अनुसंधान करके हमने यह पाया है कि आध्यात्मिक साधनाओं में गायत्री साधना से बड़ी दूसरी कोई साधना नहीं है।”

गायत्री महामंत्र को तमाम प्रतिबंधों से मुक्त करने और इसे सर्वसुलभ बनाने का काम इस महाशक्ति से एक रूप हो चुकी कोई समर्थ सत्ता ही कर सकती है। इस धरती पर गायत्री महाशक्ति की ज्ञानगंगा को अपनी भगीरथ तप-साधना द्वारा लाने वाले पूज्य गुरुदेव को इस युग का विश्वामित्र कहना अतिशयोक्ति न होगी। गायत्री महामंत्र के साथ आदि ऋषि के रूप में विश्वामित्र का नाम जुड़ा हुआ है। वे ही इसे प्रथम द्रष्टा ऋषि हुए हैं। गायत्री जयंती के महापर्व के दिन ही उन्होंने इसका साक्षात्कार किया था। इसके अवलंबन से वे ब्रह्मर्षि पद पर प्रतिष्ठित हुए थे और सृष्टि के निर्माण व संचालन की शक्ति से संपन्न बने थे। इसी शक्ति के बल पर उन्होंने नई सृष्टि रचने का साहस किया था।

इस युग में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा किया गया नवनिर्माण का युगाँतरीय पुरुषार्थ इसी तरह का एक सत्साहस है। अपना देश 15 अगस्त 1947 के दिन राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हुआ था। यह स्वतंत्रता लंबे संघर्ष एवं भारी त्याग-बलिदान के बाद मिली थी, किंतु पूर्ण स्वतंत्रता गणतंत्र राज्य की घोषणा सन् 1950 में ही हुईं। यही वह वर्ष था जब 1926 की वसंत पंचमी से प्रारंभ हुई गुरुदेव की चौबीस वर्षीय तप−साधना भी पूरी हुई और इसी के साथ सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ के रूप में युगपरिवर्तन का महासंकल्प भी उभरा।

सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ के युगपरिवर्तनकारी प्रभाव को स्पष्ट करते हुए उन्होंने नवंबर 1951 की अखण्ड ज्योति के पृष्ठ 23 में लिखा, “यह बार भली प्रकार समझ लेने की है कि यह महायज्ञ अत्यंत गंभीर सत्परिणाम उत्पन्न कराने वाला है। इसमें युगपरिवर्तन के बीज छिपे हुए हैं। जैसे नवप्रभात की पुण्य संध्या में ब्राह्मी साधना आवश्यक होती है, इसी प्रकार नानाविधि पापों−तापों से त्रास देने वाली इस घनघोर अंधकारमयी नियति का परिवर्तन करके शाँतिदायी सतोगुणी ऊषा के स्वागत में यह महायज्ञ किया जा रहा है।”

अखण्ड ज्योति जून 1953 के पृष्ठ 29 में अपने भावी लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री तत्वज्ञान की आवश्यकता को बताते हुए लिखा, “संतप्त मनुष्यता का परित्राण, आध्यात्मिक निष्ठा एवं धर्मधारणा की प्रतिष्ठा, मातृजाति की महानता का प्रकाश-भारतीय संस्कृति का, पुनरुद्धार हमारा लक्ष है। सदाचार, प्रेम, कर्त्तव्य-परायणता, सद्भाव, पवित्रता, संयम, सद्बुद्धि, आस्तिकता एवं मानवोचित जीवन की विधिव्यवस्था हमारा कार्यक्रम है। गायत्री उपासना इन्हीं देव संपत्तियों का केंद्र बिंदु है।”

इसी सत्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने अगस्त 1953 की अखण्ड ज्योति के पृष्ठ 19 में लिखा, “राष्ट्रनिर्माण की सच्ची आधारशिला यह है कि नैतिक एवं धार्मिक वातावरण उत्पन्न किया जाए। यह कार्य सरकारें नहीं कर सकती। यह तो संतों और तपस्वियों द्वारा होता है। गायत्री महाशक्ति द्वारा भारत पुनः अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करेगा। इस महाविद्या के आधार पर हम अपने खोए हुए रत्न-भंडारों को खोज सकेंगे। तप की राष्ट्रव्यापी समस्याओं को आसानी से हल कर सकेंगे।”

सत्य भी यही है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति, धर्म और आत्मविज्ञान की आधार भूमि गायत्री रही है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने इसी महाशक्ति की उपासना करके संसार को ज्ञान-विज्ञान की आभा से आलोकित किया था। प्राचीन भारत में जो महानता थी, उसके मूल में साधना से उत्पन्न आत्म-शक्ति ही प्रधान थी। तब यह देश अपने आचरण और आँतरिक बल के कारण संसार का प्रकाश-स्तंभ ध्रुवतारा बना हुआ था और जगद्गुरु कहलाता था। इस रूप में इसकी भावी प्रतिष्ठा का आधार भी यही होगा।

परमपूज्य गुरुदेव का समूचा जीवन इसी महालक्ष्य के लिए समर्पित रहा है। वह स्वयं वेदमाता गायत्री की महिमामय तेजोमूर्ति बने रहे। उन्हें महाशक्ति गायत्री का साकार विग्रह कहना अतिशयोक्ति न होगा। गायत्री का साकार विग्रह कहना गायत्री जयंती, 2 जून 1990 को निराकार के विराट विस्तार में विलीन हो गई। इसी के साथ उनकी तपचेतना और भी अधिक व्यापक-विस्तृत होने लगी। अपने वरद पुत्र को अपने में समाहित कर स्वयं वेदमाता गायत्री भी महिमान्वित हो गई। गायत्री महामंत्र की साधना करके कोई भी इस के माहात्म्य से परिचित हो सकता है। इस साधना में जीवन का अभ्युदय एवं पूज्यवर का आशीष दोनों समाए हैं।


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