गंगा जब गोमुख से निकली तो संकीर्ण धारा के रूप में धीरे-धीरे वे अपने अंदर सबको समाहित करती हुई,सतत् आगे बढ़ती चली गई भू संपदा को अभिसिंचित करने की आकुलता उन्हें रोक न पाई व हिम पर्वत शृंखलाओं का बंधन तोड़कर वे मैदान में उतरी और अपनी विशालता में सबको घुलती मिलाती अंततः समुद्र से जा मिली। जिस गंगा ने हमेशा देना ही सीखा लेना नहीं, वह अपनी पारमार्थिक आकुलतावश ही जनसम्मान पा सकी। ऐसे परमार्थी निश्छल व निर्मल हैं, इसीलिए गंदा नाला भी गंगा में मिलकर तद्रूप बन जाता है।