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August 1999

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चमत्कार दुनिया देखेगी

जब आवेश की ऋतु आती है, तो जटायु जैसी जीर्ण-शीर्ण भी रावण जैसे महायोद्धा के साथ निर्भय होकर लड़ पड़ता है। गिलहरी श्रद्धामय श्रमदान देने लगती है और सर्वथा निर्धन शबरी अपने संचित बेरों के देने के लिए भावविभोर होती है। सुदामा को भी तो अपनी चावल की पोटली समर्पित करने में संकोच बाधक नहीं हुआ था। यह अदृश्य में लहराता दैवी प्रवाह है, जो नवसृजन के देवता की झोली में समयदान, अंशदान ही नहीं, अधिक साहस जुटाकर हरिश्चंद्र की तरह अपना राजपाट और निज का, स्त्री बच्चों का शरीर तक बेचने में आगा पीछा नहीं सोचता। दैवी-आवेश जिस पर भी आता है, उसे बढ़ चढ़कर आदर्शों के लिए समर्पण कर गुजरे बिना चैन नहीं पड़ता। यही है महाकाल की वह अदृश्य अग्निशिखा, जो चर्मचक्षुओं से तो नहीं देखी जा सकती है, पर हर जीवंत व्यक्ति से समय की पुकार कुछ महत्वपूर्ण पुरुषार्थ कराए बिना छोड़ने वाली नहीं हैं।

-राष्ट्र समर्थ सशक्त कैसे बने (वांग्मय क्र. 64 पृ. 1.40)


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