बुद्धिमान मनुष्य की मूर्खता का परिणाम भोग रहे हैं हम

August 1999

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प्रकृति संतुलन का एक सुसम्बद्ध चक्र है। मनुष्य और पशु-पक्षी वनस्पतियाँ खाकर जीते हैं। वनस्पतियों में कीड़े भी लगते हैं और अपना गुजारा करते हैं। कीड़े-मकोड़ों को पक्षी खाते हैं। पक्षियों की संख्या बढ़ती है तो उन्हें बाज़ आदि शिकारी पक्षी अपना शिकार बना लेते हैं। पशु बढ़ते हैं तो उन्हें सिंह, व्याघ्र आदि ठिकाने लगा देते हैं। इस प्रकार एक संतुलित क्रम की सुसम्बद्ध श्रृंखला चलती रहती है।

एक मनुष्य ही है जो इस श्रृंखला को तोड़ने पर उतारू है और यही कारण है कि उसकी समस्या भी उलझती जाती है। पशु-पक्षियों को मारकर खान और वनस्पतियों में लगने वाले कीड़ों से परेशान होकर उन्हें मारने के लिए विषैली औषधियों का छिड़काव करना यह बुद्धिमान मनुष्य की मूर्खता है। इससे गुत्थियाँ सुलझने के स्थान पर उलटी उलझ ही जाती है।

सर्वेक्षण कर्ता वैज्ञानिकों के अनुसार समूचे विश्व में अब तक जीव-जन्तुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों की 1,6000000 जातियाँ ज्ञात की जा चुकी है। इनकी कुल संख्या पाँच करोड़ से दस करोड़ तक आँकी गई है। प्रकृति संतुलन के लिए छोटे जीवाणु से लेकर मनुष्य तक तथा एल्गी-कवक से लेकर वृक्ष वनस्पतियों तक का अपना महत्व है। वनों के कटते रहने, जंगल की जमीन को कृषि योग्य बनाने, आग लगाकर जंगलों की सफाई करने तथा खेतों में विविध प्रकार की कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करने से प्रतिवर्ष असंख्य जीवधारी एवं वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं।

मानवी स्वाद लोलुपता एवं स्वार्थपरता के कारण समुद्री मछलियाँ, सील, व्हेल, सी-एलीफैंट वालरस, सी-लायंस हाथी, गेंडे़, कस्तूरी मृग, शुतुरमुर्ग आदि प्राणियों की संख्या अंगुलियों पर गिनने योग्य शेष बची है। मनुष्य अपनी उदरपूर्ति एवं स्वार्थपूर्ति के लिए अनादिकाल से निरीह प्राणियों का शिकार करता और प्रकृति संतुलन को बिगाड़ने का प्रयत्न करता आया है।

पिछले दिनों सन् 1938 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में बहुतायत से पाए जाने वाले सारस पक्षी की संख्या घटकर मात्र चौदह रह गई थी। इसी तरह कैलीफोर्निया के कोस्टल माउंटेन क्षेत्र में पाए जाने वाले गीध अब नाममात्र के बचे हैं, जिनकी संख्या साठ है। किर्टलैंड की बार्वेलर नामक छोटी चिड़िया जंगल में लगाई गई आग के कारण उसकी भेंट चढ़ गई और लगभग इनकी पूरी जाति हीह विनष्ट हो गई। इसके बाद यह क्रम रुका नहीं वरन् बढ़ता ही गया।

कीट-पतंगों पर जीवन-निर्वाह करने वाले 90 प्रतिशत योरोपीय पक्षी डी.डी.टी. जैसी कीटनाशक दवाओं के प्रभाव से विलुप्त हो चुके है। इसी तरह पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे बड़े स्तनधारी जलचर व्हेल की प्रजाति को निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए मानव ने लगभग विलुप्त होने की स्थिति तक पहुँच दिया है वालरस, सी-एलीफैट सील और सी-लायंस जैसे अधिसंख्य प्राणी मनुष्य की क्रूरता के शिकार हुए हैं। वर्तमान समय में प्रशांत महासागर में इनकी संख्या लगभग तीस हजार है। प्रतिवर्ष इनमें से सात हजार वालरस मात्र मनुष्य की शान शौकत बढ़ाने के लिए- ‘आइवरी टक्स’ के लिये मारे जाते हैं। वालरस की कुल प्रजनन क्षमता पाँच हजार प्रतिवर्ष से अधिक नहीं है। जबकि इनकी संख्या में प्रतिवर्ष दो हजार की कमी होती है।

इसी तरह गेंडों की संख्या तेजी से घटती जा रही है। इस समय संसार भर में लगभग बीस हजार की संख्या में गेंडे हैं। सुमात्रा में पाए जाने वाले छोटी प्रजाति के गेंडों की संख्या मात्रा सौ रह गई है। इसी तरह जावा में पाये जाने वाले एक सींग वाले गेंडों की संख्या लगभग साठ, उत्तरी क्षेत्र में पाँच सौ से एक हजार के बीच तथा दक्षिणी क्षेत्रों में सुरक्षित गेंडों की संख्या तीन हजार है। दक्षिण अफ्रीका में पाये जाने वाले काले गेंडे प्रायः 90 प्रतिशत मारे जा चुके हैं। अपने देश में भी अब इनकी संख्या एक हजार से अधिक नहीं है।

विभिन्न सर्वेक्षणों के आधार पर यह तथ्य सामने आया है कि प्रतिवर्ष जीवों की एक से लेकर सौ जातियाँ विलुप्त होती हैं। यदि यहीं क्रम रहा तो अगली चौथाई शताब्दी तक विलुप्त होने वाले जीवों की संख्या सौ प्रजातियाँ प्रतिदिन हो जायेंगी।

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि वनों के कटते जाने से संपूर्ण विश्व को प्रकृति-प्रकोप का भाजन बनना पड़ रहा है। जिस तीव्र गति से जंगलों का सफाया होता जा रहा है, लगभग उसी गति से तथाकथित सभ्यता के उत्कर्ष पर पहुँचने का दंभ भरने वाले मानव समुदाय को दम भी घुटने लगा है। अकेले अमेरिका में सन 1970 में वनों का घने जंगलों का क्षेत्रफल 7,54,000,000 एकड़ था, वहाँ आठ वर्ष के भीतर सन् 1978 में यह क्षेत्रफल सिमट कर 7,40,00000 एकड़ रह गया। तब से यह निरंतर सिकुड़ता ही जा रहा है। इस तरह प्रत्येक माह मेसाचुसेट्स के क्षेत्रफल के बराबर संपूर्ण धरती पर जंगलों का सफाया होता रहता है। इमारती लकड़ी की खपत के कारण दक्षिण पूरब एशिया के देशों में प्रतिवर्ष 15,000 वर्ग किलोमीटर ट्राँपिकल जंगल उजाड़ दिये जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से 200,000 वर्ग किलोमीटर जंगल प्रतिवर्ष वनस्पति विहीन कर दिये जाने हैं। भारत भी इस संकट से अछूता नहीं बचा है। बढ़ती आबादी के कारण अधिकाँश जंगल उजाड़ दिये गये है। हरे-भरे वनों की जगह गगनचुम्बी इमारतें और उगलती औद्योगिक इकाइयाँ खड़ी होती जा रही है।

जीवन-धारण करने वाले प्रत्येक प्राणी का जीवनकाल एक निश्चित आयु तक सीमित है, जिसे उस जीव का लाक्षणिक जीवनकाल कहते हैं। बहुत से कीट पतंगे कुछ घंटों से लेकर कुछ सप्ताह तक जीवित रहते हैं। कछुए जैसे सरीसृप कई सौ वर्षों तक अपने जीवन-संकट खींचते रहते हैं। स्तनधारी जीवों समें हाथी की उम्र 70 से 100 वर्ष, कुत्ते की 10-30 वर्ष, गाय की 20-25 वर्ष, घोड़े की 20-30 वर्ष और चूहे की 3 वर्ष तक होती है। बहुत से पक्षी अधिक दिनों तक जीवित रहते हैं। बाज़, उल्लू और तोते 50 वर्ष से लेकर 100 वर्ष तक जीवित रहते है। रानी चींटी 12 से 15 वर्ष तक जीवित रहती है। खंडित शरीर वाले जीवधारियों का जीवनकाल बहुत काम होता है।

जीव-जगत और वनस्पति जगत का आपस में अन्योऽन्याश्रित संबंध है। ये एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी हैं। वनस्पति जगत प्राणियों के निवास, भोजन, आक्सीजन, आच्छादन, आदि से लेकर सभी तरह की जीवन संबंधी आवश्यकताएँ उपलब्ध कराता है। जीवाणु-बैक्टीरिया एवं फन्जाई-फफूँद जैसी छोटी जैव इकाइयाँ सूखे-गिरे पत्तों, लकड़ियों इत्यादि तथा मृतक जीवधारियों के शारीरिक पदार्थों को तोड़कर नई संरचना में भाग लेने योग्य सरलतम यौगिकों में बदल देते हैं। एक अच्छी वनस्थली की जमीन के प्रतिघन डेसीमीटर क्षेत्र में लगभग एक अरब एल्गी और प्रोटोजोआ, 30,000, थ्रेडवम्स, 500 रोटीफर, 1000 स्प्रिंगटेल्स, 1500 माइट्स या भुनगे, 100 कीट-पतंगे विशेषकर लार्वा, छोटी मकड़ियाँ और मिलीपीड्स, 50 ब्रिस्टलवर्म्स तथा 2 केंचुए पाए जाते है। औद्योगीकरण के अनुदानों के पीछे आज हम इतना पागल हो गए हैं कि भूलकर भी वातावरण की विषाक्तता पर ध्यान नहीं देते हैं। इसी तरह कीटनाशक रसायनों का अविवेकपूर्ण अंधाधुन्ध छिड़काव न केवल मिट्टी एवं जल को प्रदूषित करता है वरन् कृषि एवं पैदावार बढ़ाने वाले उपर्युक्त प्रकार के अधिसंख्य जीवों का अस्तित्व मिटा देता है।

अपने देश में साठ हजार मैट्रिक टन से अधिक कीटनाशक दवाओं का प्रयोग प्रतिवर्ष किया जाता है। ये रासायनिक पदार्थ तो मलेरा तथा फाइलेरियरा जैसे रोगों की रोकथाम में सफलता प्राप्त कर चुके हैं, किन्तु ये स्वयं विषाक्त हैं। इनमें से कुछ तो प्रकृति में जैविक कारणों से आसानी से विघटित नहीं होते है। फलतः वे सब मिलकर वातावरण को प्रदूषित करते हैं। यह प्रदूषण कार्य तो नियमित रूप से चलता रहता है जिससे भोजन, वायु और पानी पर इसका प्रभाव पड़ता है। जीव-जगत पर भूत और वर्तमान, दोनों कालों में होने वाले प्रदूषण के प्रभाव को सुनिश्चित पैमाने द्वारा आसानी से निर्धारित किया जाता है। डी0डी0टी0 एवं एच0सी0एच॰ जैसे विनाशक पदार्थों की उपस्थिति भारत, चीन और मैक्सिको आदि देशों की महिलाओं के दूध तक में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाने लगा है। अहमदाबाद के वैज्ञानिकों ने माताओं के दूध में इसका स्तर 1.1 मिलीग्राम प्रति किलों मापा है, जो नवजात शिशुओं के लिए बहुत ही हानिकारक है।

वस्तुतः रासायनिक छिड़काव के द्वारा विषैले तत्वों से हम अन्न-फल एवं शाकों को तर कर देते हैं, जिसे वे अपने अंदर जब्त कर लेते हैं। आहार के साथ ही यह विष मनुष्य के पेट में पहुँचाता है और पचकर हड्डी, रक्त, मज्जा, माँस, वसा आदि को दूषित करके अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति करता है। इन रोगों में कैंसर प्रमुख है तथा यह बच्चों में भी प्रचुर मात्रा में दिखाई पड़ता है। यह रासायनिक विष गर्भवती महिलाओं के गर्भ को प्रभावित करता है, परिणाम-स्वरूप अपंग, विकलांग व मंदबुद्धि बच्चे पैदा होते हैं। सुप्रसिद्ध जीव विज्ञानी एलिस जेरार्ड ने अपने अध्ययन अनुसंधान में बताया है कि रसायनों के अत्यधिक एवं अंधाधुन्ध प्रयोग की आज प्राकृतिक साधनों को नष्ट कर रहे हैं। बच्चों ने इससे पूर्व कभी दूषित पानी नहीं पिया तथा कभी उनके फेफड़ों में दूषित हवा नहीं भरी, जैसा कि अब हो रहा है। मानव शिशु गर्भ के अन्दर तथा बाहर माँ के दूध के साथ-साथ इन जहरीले रसायनों को पीने को विवश है।

कृषि पैदावार बढ़ाना उचित भी है और आवश्यक भी, परन्तु यह विषय से सींचकर नहीं की जानी चाहिए। अधिक उपज बढ़ाकर हम सबका पेट तो भर सकते हैं, परन्तु स्वास्थ्य को चौपट कर लेना भी बुद्धिमानी नहीं है। पक्षियों से अन्न बचाने और फसल नष्ट करने वाले कृमि-कीटकों को विषैले रसायन छिड़ककर नष्ट करने का दुहरा लाभ उठाने के फेर में मनुष्य ने समाधान तो एक भी गुत्थी का नहीं किया, उलटे ऐसे संकट खड़े कर लिए, जो उसके सामने कितनी ही नहीं समस्याएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

आशा का संबल

भविष्य की आशंकाओं से चिंतित और आतंकित कभी नहीं होना चाहिए। आज की अपेक्षा कल और भी अच्छी परिस्थितियों की आशा करना, यही वह संबल है जिसके आधार पर प्रगति के पथ पर मनुष्य सीधा चलता रह सकता है। जो निराश हो गया, जिसकी हिम्मत टूट गई, जिसकी आशा का दीपक बुझ गया, जिसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखता रहता है, वह तो मृतक के समान है। जिंदगी उसके लिए भार बन जाएँगी और वह काटे नहीं कटेगी। यह दुनिया कायरों और डरपोकों के लिए नहीं, साहसी और शूरवीरों के लिए बनी है। हमें साहसी और निर्भीक होकर ही जीना चाहिए।

-अखण्ड ज्योति, दिसम्बर, 1962


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