आत्मावलम्बी (Kahani)

August 1999

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एक लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी प्रकार दुख और कष्ट सहते हुए, अपने दिन व्यतीत करता था। एक दिन वह जंगल में पतली-पतली लकड़ी सिर पर ला रहा था कि अकस्मात् कोई मनुष्य उसी रास्ते में जाते-जाते उसे पुकार कर बोला-बच्चा आगे बढ़ जा। दूसरे दिन वह लकड़हारा उस मनुष्य की बात याद कर कुछ दूर आगे बढ़ा तो मोटी-मोटी लकड़ियों का जंगल उसको दीख पड़ा। उस दिन उससे जहाँ तक बना, लकड़ी काट लाया और बाज़ार में बेचकर उसके पहले दिन से अधिक पैसा कमाया। तीसरे दिन फिर मन में विचार करने लगा-उस महात्मा ने तो मुझे आगे बढ़ जाने को कहा था। भला आज और थोड़ा आगे बढ़कर देखूँ।’ यह सोचकर वह आगे बढ़ गया और उसे एक चंदन का वन दिखाई पड़ा। उस दिन उसने चंदन की लकड़ी बेचकर बहुत रुपये कमाये। दूसरे दिन उसने फिर मन में विचार किया कि मुझे तो उन्होंने आगे ही जाने को कहा है, यह विचार कर और आगे जाकर उस दिन उसने ताँबे की खान पाई। वह यही पर न रुककर प्रतिदिन आगे ही बढ़ता गया और क्रमशः चाँदी, सोने और हीरे की खान पाकर बड़ा धनवान् हो गया। धर्म मार्ग में भी इसी प्रकार होता है।

आत्मिक क्षेत्र से आदमी को कभी भी रुकना नहीं चाहिए। उस साधु ने जो आगे बढ़ने की शिक्षा दो थी, उसका मर्म था-रुक मत, चलता जा, जब तक गंतव्य तक न पहुँच जाए। अपने अंदर झाँक व तब तक आत्मावलोकन -विश्लेषण -मनन कर, जब तक प्रगति की राह न दिखाई पड़े। थोड़ी-बहुत ज्योति आदि का दर्शन कर यह मत समझो कि तुम्हें सिद्धि मिल गई, मोक्ष प्राप्त हो गया।”

इस संबंध में संत का कथन सही है-

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े वन माँहि। ऐसे घट -घट राम है, दुनिया नाहि॥

तेरा साई तुझी में, पुहुपन में है वास। कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर फिर ढूँढ़त घास

आत्मावलम्बी, किसी अनुग्रह -वरदान की प्रतीक्षा नहीं करते -न ही याचना, वरन् प्रगति का पथ स्वयं बनाते हैं, अपनी सहायता आप करते हैं।


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