कैसा हो हमारा आहार?

August 1999

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आपका स्वास्थ्य आयुर्वेद के मतानुसार

आयुर्वेद के आहार पक्ष से जुड़ा एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रसंग है। चरक संहिता के लेखक पुनर्वसु से कुछ वैद्यों ने पूछा-कोऽरुक अर्थात् रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने उत्तर दिया-जो च्यवनप्राश खता है। एक ने कहा-जो लवण भास्कर व त्रिफला नियमित लेता है, एक ने कहा-जो चंद्रप्रभावटी खाता है। तब स्वस्थ रहने का आधारभूत सिद्धांत वाग्भट्ट ने समझाया। उत्तम स्वास्थ का रहस्य है- हितभुक, मितभुक, ऋतभुक। हितभुक अर्थात् ऐसी वस्तुएँ ग्रहण की जाए जो हितकारी हों, केवल स्वाद के लिए न हों। मितभुक अर्थात् अच्छी पुष्टिदायक वस्तुएँ ग्रहण की जाए पर थोड़ी खाए। ऋतभुक अर्थात् अच्छी वस्तुएँ खाए थोड़ी खाए, पर ध्यान यह रखा जाए कि वे उत्तम कमाई से पैदा की गयी हों- अनीतिपूर्वक उपार्जित की गयी न हों।

उपर्युक्त आहार संबंधी दृष्टांत यद्यपि सर्वविदित है फिर भी कितने हैं जो इन पक्षों पर ध्यान न दे पाते हैं। यही कारण है कि अधिकाँश आज की जीवनशैली में आए परिवर्तन से हुए रोगों के मूल कारण में आहार ही प्रधान है। विगत अंक में चरक संहिता में बताए गए आहार वर्गों की चर्चा संक्षेप में की गयी थी। अब यहाँ थोड़ा विस्तार में चलते हैं-

(1) अन्न वर्ग (शूक्र धान्य या सिरियल्स)

चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, जौ, मक्का, आदि प्रमुख रूप में अन्न, अनाज या शूकधान्य माने गए हैं, जिनका हमारे देश में आहार के रूप में प्रयोग होता है। ये हमारे आहार में ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं। इन अन्न वर्ग के द्रव्यों में मुख्य घटक कार्बोहाइड्रेट ही होता है। प्रोटीन्स प्रायः छह से बारह प्रतिशत तक पाए जाते हैं। अति आवश्यक अमीनो अम्ल ही प्रोटीन्स का निर्माण करते हैं एवं इनकी शुक्र धान्य में अल्पता ही होगी है। अन्न वर्ग में खनिज लवण (मिनरल्स) भी कम मात्रा में ही होते हैं। इनकी ऊपर सतह पर विटामिन बी समूह पाया जाता है। एक वर्ष पुराने तक अन्न का सेवन किया जाता है।

(2) शमीधान्य वर्ग (शिम्बी वर्ग या लेग्यूम एवं पल्सेज)

इन द्रव्यों से दालें बनती हैं। सभी प्रकार की दालें प्रोटीन्स की दृष्टि से संपन्न होती है। चना, मूँग, अरहर, उड़द, राजमा, सोयाबीन आदि इसी वर्ग में आते हैं। शाकाहारियों के लिए प्रमुखतः प्रोटीन का स्रोत यही आहार वर्ग है एवं किसी भी माँसाहारी पदार्थ की तुलना में यह प्रोटीन श्रेयस्कर व अधिक गुणवत्ता वाला है।

(3)कन्दमूल वर्ग (टयूबंर्स एवं रुट्स)

आलू, शकरकंद, जिमीकंद, अरबी, शलजम, गाजर तथा मूली आदि प्रमुख खाद्य पदार्थ कंद मूल वर्ग में ही आते हैं। ये कार्बोज (कार्बोहाइड्रेट) बहुत होते हैं एवं कैलोरीज के प्रमुख स्रोत हैं। यही कैलोरीज शरीर को ऊर्जा प्रदान कर चयापचय प्रक्रिया को गतिशील करती है। अन्न के स्थान पर भी इन्हें प्रयुक्त किया जा सकता है। ऋषि मुनियों का भोजन फलाहार रूप में इसी स्रोत से आता था।

(4) फल वर्ग (फ्रूट्स आदि)

फलों में विटामिन्स, खनिज लवण, प्राकृतिक शर्करा-कार्बोज पर्याप्त मात्रा में होते हैं। आमलको, बिल्व, केला, खजूर, अंजीर, पपीता, जामुन, संतरा, मौसमी, अमरूद, आम, अनार, सेब आदि सामान्यतः सब ओर पाए जाने वाले फल हैं, जो औषधि प्रधान गुण भी रखते हैं एवं खाद्य फल के रूप में भी हैं। इनमें कुछ तो मूलतः रसायन जैसे गुण वाले हैं। खुमानी, अंगूर, अनानास, स्ट्रॉबेरी आदि फल भी अब भारत में बहुतायत में उपलब्ध हैं। जिनकी सामर्थ्य हो वे इनका भी सेवन कर सकते हैं। फल सदा पके हुए ही लिए जाने चाहिए। सड़े-गले फल नहीं खाए जाने चाहिए। आजकल कोल्ड स्टोरेज का जमाना है। साथ ही आम, केला, अंगूर आदि फलों को कार्बोइड नामक रसायन से पकाया जाता है, जो शरीर के लिए विष समान है। अतः इनके स्थान पर हरी शाक-सब्जियों का सेवन करना या दूसरे फलों का सेवन करना अधिक उपर्युक्त है।

(5) शाक वर्ग (वेजिटेबिल्स)

आहार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ये घटक खनिज लवणों तथा विटामिनों की आपूर्ति के प्रमुख स्रोत हैं। करेला, बैंगन, तोरई, भिंडी, गोभी, टमाटर, खीरा, सेम, चौलाई आदि शाक वर्गीय पदार्थों का नियमित आहार में रहना बड़ा हितकारी है। ऋतु विपरीत में उत्पन्न शाकों का सेवन आयुर्वेद के अनुसार वर्जनीय है।

(6) हरित वर्ग (ग्रीन लीफी वेजिटेबल्स)- इनमें प्रमुख रूप से पालक, मेथी, मटर, कुल्फा, धान्यक पत्र, मूलक पत्र, पोदीना, धनिया आदि आहाराँश में प्रयोग किये जाते हैं। इनमें खनिज लवण तथा विटामिन सी व ई आदि जीवनीय तत्व प्रचुरता से पाए जाते हैं।

(7) शुष्क फल तथा तिलहन (ड्रायफ्रुट्स व आइल सीड्स)- काजू, पिस्ता, बादाम, अख़रोट, चिरौंजी, नारियल, मूँगफली आदि नट वर्ग के पदार्थों का प्रायः इनमें उपयोग होता है। ये प्रोटीन बहुल तो होते ही हैं। इनमें स्नेहद्रव्य जो अन्दर के लुब्रीकेशन व वसा पूर्ति के लिए अनिवार्य हैं, प्रचुर मात्रा में होते हैं। तिल, सरसों आदि तिलहन भी खाद्य पदार्थ हैं।

(8) इक्षुवर्ग (शर्करा प्रधान)

चीनी, गुड़, खाँड़, ग्लूकोज युक्त पदार्थ इक्षुवर्ग में माने गए हैं। इनका प्रयोग मधुर खाद्य के नाते किया जाता है। इनमें शतप्रतिशत कार्बोज होता है जो ऊर्जा उत्पादन का प्रमुखतम एवं उत्तम स्रोत है।

(9) अम्बुवर्ग

इसमें जल प्रधान सभी पदार्थ आते हैं। वैसे तो यह काया पूर्णतः जल प्रधान है। जल के रूप में यदि हम पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं, तो विभिन्न शरबत-फलों के रस द्वारा शरीर के महत्वपूर्ण घटकों के लिए अनिवार्य तत्वों की पूर्ति भी करते हैं तरबूज जैसे फल इसी वर्ग में आते हैं, जिनमें 90 प्रतिशत से अधिक जल ही होता है।

(10) गोरस वर्ग (मिल्क प्रोडक्ट्स)

दूध, दही, पनीर, छाछ (तक्र) आदि इस वर्ग में आते हैं। इसे दिव्य आहार माना गया है। कई व्यक्ति इसी का कल्प भी करते देखे गए हैं। इसमें गौ दुग्ध की महिमा अपरम्पार बताई गई है। दही अनेकों गुणों से भरपूर खाद्य है। पनीर व उससे बने पदार्थ भी सर्वोपयोगी हैं। तक्र को तो अमरत्व देने वाले रसायन की संज्ञा दी गयी है। आज के युग में जब कृत्रिम यूरिया मिश्रित दूध की चारों ओर बहुतायत है-ध्यान रखा जाना चाहिए कि कहीं विष का सेवन तो दूध के नाम पर नहीं हो रहा है। दूध को औटाकर बनाए गए खाद्य पदार्थ स्वाद में तो अच्छे लग सकते हैं, किन्तु पौष्टिकता की दृष्टि से आज की जीवनशैली वाले व्यक्ति के लिए न लेने योग्य ही हैं।

(11) स्नेह वर्ग (आँइल्स व फैट्स)

मक्खन, घृत, वनस्पति घृत तथा कृत्रिम वानस्पतिक तैल आदि स्नेह वर्गीय पदार्थ आहार के प्रमुख अंग माने गए हैं। इस वर्ग के पदार्थ कैलोरीज (ऊर्जा) के प्रमुखतम स्रोत हैं। एक ग्राम पदार्थ से नौ कैलोरीज मिलती है। इनमें विटामिन ए.डी.ई.व के आदि उपस्थित बताए जाते हैं। इनका ज्यादा मात्रा में सेवन करना शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य दोनों की के लिए हानिकारक है। अतः आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में ही इनका प्रयोग होना चाहिए।

(12) कृतान्न वर्ग तथा आहार यौगिक

इस वर्ग में कुक्ड फूड (पकाया हुआ भोजन) तथा आहार यौगिकों को लिया गया है। आयुर्वेद इस वर्ग की व्याख्या अलग से करता है क्योंकि ऊपर बताए सभी वर्ग स्वयं में स्वतंत्र हैं। पकने पर गुणधर्म बदल जाते हैं एवं इनके यौगिक बन जाने पर मिल-जुलकर उनका प्रभाव हमारे पाचन व विभिन्न संस्थानों पर पड़ता है। आज इस वर्ग के विशेषज्ञों का बाहुल्य ही चारों ओर दिखाई देता है। पाक कला के विशेषज्ञों ने कृत्रिम जीवन-पद्धति के इस युग में स्वाद के नाम पर इस वर्ग का भरपूर दुरुपयोग किया व लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया है। आज के फास्ट फूड, पिजा आदि ऐसी चीजें हैं, जिनने सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है।

ऊपर वर्णित आहार-वर्गों की व्याख्या के बाद अब कुछ सूत्रों के अनुसार आहार-विज्ञान का आयुर्वेद सम्मत पक्ष समझे। ये सूत्र हैं-आहार में क्या खाए, कितना खाए, कब खाए, क्यों खाए, कैसे खाए?

क्या खाएं

सदैव हितकारी पदार्थों का सेवन करना चाहिए। जिनके सेवन से शरीर में विषाक्तता बढ़े जैसे शराब, चाय, काफी, पान, तंबाकू, अंडे, माँस-मछली आदि, इनका सेवन कदापि न करें। जीवनोपयोगी पदार्थों को आहार में अवश्य लें, यथा-गेहूँ चावल, मक्का, बाजरा, दालें, मक्खन, हरी सब्जियाँ आदि। भोजन सदैव ताजा लें। हो सके तो अंकुरित अन्न को प्रधानता दें। मूँग, चना, मूँगफली, तिल, गेहूँ आदि को अंकुरित कर उनका नियमित सेवन किया जा सकता है।

कितना खाएं

”मिताशाी स्यात” अर्थात् थोड़ी मात्रा में लें। खाद्य पदार्थ कितने ही पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्द्धक क्यों न हो, हानिकारक ही सिद्ध होते हैं, यदि मात्रा का ध्यान न रखा जाए। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के अनुसार मात्र आधा पेट भरें, इतना ही आहार लेना चाहिए, शेष एक चौथाई हवा के लिए एवं बचा हुआ जल के लिए छोड़ देना चाहिए। तभी पाचन ठीक से होता रहा सकता है। इतना अधिक न खाया जाय कि भोजन डकार के साथ बाहर आ जाए और इतना कम भी न हो कि शरीर को पोषण ही न मिले। शारीरिक रम करने वालों को पर्याप्त प्रोटीन, शर्करा व चिकनाई की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक तप व मानसिक कार्य करने वालों को सुपाच्य उबली सब्जियाँ, रोटी, दलिया, दुग्ध, मीठे फल आदि पर्याप्त पोषण दे सकते हैं।

कब खायें

अग्निहोत्र की तरह भोजन दो ही समय करना चाहिए। प्रथम भोजन प्रातः काल 8 से 12 बजे के बीच तथा सायंकाल का 7 बजे से पूर्व कर लेना ही आयुर्वेद ने हितकारी बताया है। अपने भोजन का संयम निश्चित कर लेने एवं उचित मात्रा में नियमित लेने से शरीर में वह समय से पच जाता है एवं आज के भाँति-भाँति के रोग भी नहीं होते। आज अधिकाँश घरों में टी.वी. के सामने बैठकर देर रात्रि 12 बजे तक भोजन किया जाता है। इसे पाचन के लिये न्यूनतम 8 से 11 घंटे चाहिए। यह न पच पाने के कारण अधिकाँश व्यक्ति रोगी समय की इस विषमता में ही आहार ग्रहण न कर पाने के कारण होते देखे जा रहे हैं। बिना भूख लगे आहार न लिया जाए। तेज जलती अग्नि में ही समिधाएँ डाली जाती हैं। धुँआ निकलती, सुलगती अग्नि में समय-समय पर थोड़ी-थोड़ी समिधा डालने से तो धुँआ ही निकलेगा।

क्यों खाएं

अपने शरीर को स्वस्थ, निरोग, बलवान बनाने के लिए। “शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करना” हमारे युग-निर्माण सत्संकल्प का प्रथम सूत्र है। भोजन स्वस्थ व जीवित रहकर भगवान का काम करने के लिए लिया जाता है, न कि खाने के लिये जिया जाता है। आज उल्टा ही हो रहा है।

कैसे खांए? भोजन इस प्रकार ग्रहण किया जाए जिससे कि जठराग्नि को कम-से-कम श्रम करना पड़े। दाँतों से हर ग्रास को अधिकाधिक चबाया जाए, तब तक जब तक कि वह पतला होकर लार ‘सेलाइवा’ के एंजाइम्स के साथ मिलकर घूँट के रूप में गले के नीचे सहज रूप में उतरने योग्य न बन जाए। आयुर्वेद कहता है, भोजन को पीना चाहिए एवं पानी को खाना चाहिए। भोजन ऐसा हो जिसे देखकर मन हर्षित व प्रफुल्लित हो। भोजन की थाली सामने आते ही उसे पूजा के प्रसाद की तरह ग्रहण किया जाए। भोजन के साथ अधिक पानी न लिया जाए। हो सके तो भोजन से एक घंटे पूर्व एक गिलास जल ले लें। भोजन के दौरान अधिक-से-अधिक चौथाई से आधार गिलास जल ही घूँट-घूँट में लिया जाए। फिर भोजन के एक घंटे बाद ही जल पीना प्रारंभ किया जाए। ऐसा करने से भोजन जल्दी पच जाता है।

वर्षा ऋतु में आहार का क्रम-

उपर्युक्त कुछ सामान्य प्रसंगों की चर्चा के पश्चात् इस अंक में कुछ सामयिक पक्षों का विवेचन भी कर रहे हैं। यथा-वर्षा ऋतु में आहार क्या हो? वर्षा ऋतु से सूर्य दक्षिणायन होने लगता है। ऋतु क्रम में विसर्ग काल के नाम से परिचित यह अवधि स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ी लाभकारी मानी गई है। गर्मी में संचित वायु का प्रकोप इसी वर्षा काल में देखने को मिलता है, साथ ही इस ऋतु में पित्त का संचय हो भी देखा जाता है। प्रकुपित हुई वायु जठराग्नि को मंद कर देती है। इसी कारण भोजन पचने में बड़ा विलंब होता है तथा पेट में भारीपन, बदहजमी, गैस की शिकायत देखने को मिलती है। यह ऋतु विदाहकारक एवं वातवर्द्धक भी होती है।

उपर्युक्त आयुर्वेदोक्त मतों की देखते हुए हलका व सुपाच्य भोजन इस ऋतु में लिया जाना चाहिए। गरिष्ठ-शीघ्र न पचने वाले भोजन से सदैव बचा जाना चाहिए अन्यथा पेट के विकार हो सकते हैं। आजकल पानी कहीं शुद्ध उपलब्ध नहीं है। जल के संक्रमण से होने वाली व्याधियों से बचने के लिए न केवल जल उबालकर पिया जाए, सभी सब्जियाँ गर्म पानी से धोकर ही प्रयुक्त की जाए। वात वृद्धि की संभावना देखते हुए मधुर, अम्ल एवं लवण रस प्रधान आहार का सेवन इस ऋतु में हितकर है। भोजन के साथ अदरक का सेवन, तुरई, लौकी, परवल, भिंडी, मूँग की दाल का प्रयोग किया जा सकता है। देसी मीठा आम उपलब्ध हो तो ही लें। जामुन, केला, मौसमी फल प्रयोग किये जाए। भुनी हुई मक्का व उसके व्यंजन इस मौसम में प्रयुक्त होते हैं। श्रावण में दुग्ध तथा भादो में छाछ (तक्र) का प्रयोग आयुर्वेद ने निषिद्ध बताया है। इसीलिए इस काल में दही का प्रयोग नहीं करते। वर्षा ऋतु के प्रमुख रोग वायरल बुखार, मलेरिया, टाइफ़ाइड, आत्रशोथ, पीलिया, कंजक्टी वाइटिस एवं त्वचा पर फंगसल आक्रमण आदि हैं। इन सभी से बचाव का प्रयास किया जाना चाहिए एवं जहाँ तक संभव हो, वनौषधियों का सेवन ही किया जाना चाहिए, ताकि स्वाभाविक रूप में स्वस्थ हो, ऋतु संधि जो इसके बाद आनी है, का सामना किया जा सके। मध्यावधि ठीक से निकल गयी तो पूरी शरद, शिशिर, हेमन्त तो निश्चित रूप से स्वास्थ्यवर्धक वाली ऋतुएं हैं। वर्षा ऋतु का माहात्म्य न केवल कवियों- प्रकृति प्रेमियों के लिए है अपितु अध्यात्मविदों, ऋषिगणों के लिए भी अत्यधिक है, इसी कारण इस अवधि के आहार-विहार को बड़ा महत्व से वर्णित किया जाता रहा है।

क्रमशः


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