बिंदु में सिंधु समाया

August 1999

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बिंदु विसर्ग को संक्षेप में ‘बिंदु’ कहा जाता है। बिन्दु का अर्थ ‘बूँद’ है। विर्ग माने ‘गिरना’। इस प्रकार बिंदु विसर्ग का तात्पर्य ‘बूँद का गिरना’ हुआ। यहाँ बिंदु का मतलब वीर्य नहीं, अमृत है। उच्चस्तरीय साधनाओं के दौरान जब मस्तिष्क से यह झरता है, तो ऐसी दिव्य मादकता का आभास होता है, जिसे साधारण नहीं, असाधारण कहना चाहिए।

बिंदु की स्थिति सिर के ऊपरी हिस्से में उस स्थान पर है, जहाँ हिंदू परंपरा में शिखा रखी जाती है। शिखा को कसकर बाँधने और गाँठ लगाने का विधान हैं ऐसा करने से उक्त स्थान में तनाव और खिंचवा आता है, जिससे बिंदु के प्रति सजगता बनी रहती है।

तांत्रिक मतानुसार मस्तिष्क के ऊपरी कार्टेक्स में एक छोटा सा गड्ढा है, जहाँ अत्यल्प मात्रा में स्राव भरा रहता है। इस स्राव मध्य द्वीप के सदृश की एक बिंदु संरचना हैं इसे ही बिन्दु विसर्ग कहा गया है।

शरीरशास्त्रियों ने मस्तिष्क के भीतर इस प्रकार की किसी सूक्ष्म संरचना की अब तक पुष्टि तो नहीं की है, किन्तु इतना सुनिश्चित है कि इस दिशा में होने वाले शोध-अनुसंधान उतने ही रोचक और लाभकारी होंगे, जितना कि पीनियल ग्रंथि और आज्ञाचक्र के मध्य संबंध स्थापित करने वाला अध्ययन। चूँकि यह अत्यंत सूक्ष्म संरचना है, अतः सह सम्भव है कि मस्तिष्कीय कतरव्योंत के दौरान वह नष्ट हो जाए और उसकी उपस्थिति सिद्ध न हो सके। ऐसे ही बिंदु द्वारा स्रवित उस अत्यल्प तरल पदार्थ की चीड़-फाड़ के पश्चात् निकाल पाना और उसका विश्लेषण कर पाना कठिन होगा, कारण कि मृत्यु के उपरान्त ग्रंथीय और तंत्रिकीय स्राव समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में उसके स्थूल अस्तित्व से एकदम इनकार कर देना उचित न होगा।

तांत्रिक ग्रंथों में बिंदु को पूर्णचंद्र तथा अर्द्धचंद्र के रूप में दर्शाया गया है। पूर्णचंद्र अमृत की अति सूक्ष्म बूँद का तथा अर्द्धचंद्र चंद्रमा की कला का द्योतक है। यह अर्द्धचंद्र इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि बिंदु का चंद्रमा की कलाओं से उसी प्रकार अत्यंत निकट का संबंध है, जिस प्रकार अत्यन्त निकट का संबंध है, जिस प्रकार मनुष्य अंतः स्रावी ग्रंथियाँ, भावनात्मक तथा मानसिक उतार-चढ़ाव योग के गहन अभ्यास से क्रमिक रूप से बढ़ती हुई सहस्रार की अनंतता का अनुभव उसी प्रकार किया जा सकता है, जिस प्रकार शुल्क पक्ष में चंद्रमा धीरे-धीरे बढ़ते हुए पूर्णिमा के दिन पूर्ण हो जाता हैं ऐसे ही बिंदु के पीछे सहस्रार भी शनैः शनैः उद्घाटित होने लगता है। रात्रिकालीन विस्तृत आकाश की पृष्ठभूमि में बिंदु की अभिव्यक्त किया जाता है। यह इस बात का द्योतक है कि सहस्रार भी इस आकाश की तरह व्यापक तथा विस्तृत है, किन्तु अहंभाव के रहते सहस्रार का संपूर्ण अनुभव कर पाना संभव नहीं।

बिंदु विसर्ग सातवें लोक ‘सत्यम्’ तथा आनंदमय कोश से संबंधित है। ऐसा समझा जाता है कि जब बिंदु विसर्ग का जागरण होता है, तो वहाँ से अनेक प्रकार के नाद की उत्पत्ति होती है, जिसका चरमोत्कर्ष ॐ नाद के विकास के रूप में होता है। इस स्थिति में साधक को ॐ वर्ण के ऊपर स्थित बिंदु तथा अर्द्धचन्द्र से सृष्टि के सभी स्रोत निकलते हुए दिखलाई देने लगते हैं।

साधना-ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि बिंदु से एक प्रकार का रस स्राव होता है, जिसका संचयन नासा ग्रसनी के पीछे कोमल तालु के ऊपर एक छोटे से गड्ढे में होता है। यह केन्द्र ‘ललना चक्र’ कहलाता है। विशुद्धि चक्र से इसका निकट का संबंध है। दोनों के बीच पारस्परिक संबंध तभी स्थापित हो पाता है, जब विशुद्धि चक्र जाग्रत अवस्था में होता है। ऐसी दशा में ललना से स्रवित द्रव विशुद्धि चक्र द्वारा पूर्णतः अवशोषित हो जाता है। यहाँ उक्त रस की प्रकृति अमृतोपम जैसी होती है और साधक को चिर यौवन प्रदान करती है, किन्तु तब विशुद्धि केंद्र अक्रियाशील स्थिति में रहता है, तब ललना से यह द्रव सीधे मणिपूरित चक्र तक पहुँच जाता है और उसके द्वारा आत्मसात् कर लिया जाता है। यह स्थिति विषतुल्य होती है। ऐसी दशा में शरीर कोशिकाओं का क्षय प्रारम्भ हो जाता है और शीघ्र बुढ़ापा आ धमकता है। इसीलिए ललना को उत्तेजित करने से पूर्व विशुद्धि चक्र का जागरण अनिवार्य माना गया है।

साधना विज्ञान में ललना को उद्दीप्त करने के कई उपाय बताए गए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण खेचरी मुद्रा है। यह कुण्डलिनी योग में अपनायी गयी खेचरी मुद्रा की तरह सरल नहीं होती, अपितु इसमें जीभ के निचले जुड़े हुए हिस्से को धीरे-धीरे अभ्यास पूर्वक आगे बढ़ाकर जिह्वा को गाय के थन की तरह दोहन करते हुए लंबा करना पड़ता है। इस क्रम में जब वह इतनी लंबी हो जाए कि जीभ की ऊपर की ओर मोड़ने और तालू से चिपकने से वह नासिका मार्ग को स्पर्श करने लगे, तो समझना चाहिए कि प्रयोजन पूरा हो गया। इस प्रक्रिया में वायुमार्ग पूरी तरह अवरुद्ध हो जाता है और बिंदु से विशुद्धि में झरने वाला द्रव संपूर्ण शरीर में फैल जाता है। इससे शरीर को पर्याप्त शक्ति और स्फूर्ति मिलती है एवं शरीर की चयापचय क्रिया एकदम मंद पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जीवित रहने के लिए वायु या आहार की आवश्यकता नहीं रह जाती और व्यक्ति इनके बिना भी लंबे समय तक आसानी से जिंदा रह सकता है।

घटना आज से लगभग दो दशक पूर्व की है। एक श्रीमतं ने काशी शहर की आबादी से कुछ हटकर उत्तर की ओर जमीन की एक प्लॉट खरीदा और उसमें मकान बनवाने के उद्देश्य से नींव की खुदाई प्रारम्भ करवाई। प्लाँट के पूरबी कोने में जब खुदाई हो रही थी, तो खुदाई उपकरण अचानक जमीन के अन्दर धंसते उपकरण अचानक जमीन के अन्दर धंसते चले गये। मजदूरों ने सोचा कि शायद चूहे का कोई बिल होगा, इसलिए ऐसा हुआ। मिट्टी हटाई, तो वहाँ बालों का गुच्छा-सा दिखाई पड़ा, जिसे देख वे चौंक पड़े। जिज्ञासा हुई कि आखिर यह है क्या? अब उन्होंने अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए सावधानीपूर्वक मिट्टी हटानी प्रारम्भ की। कुछ समय पश्चात् केशों का वह गुच्छा विशाल जटा-जुट के रूप में सामने आया। वे समझ गये कि कोई महात्मा यहाँ समाधिस्थ हैं। धीरे-धीरे करके उनके चारों ओर की मिट्टी हटाई गई। इससे महात्मा का सिर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगा। मालिक नजदीक के ही एक मित्र के घर पर थे। उन्हें अविलम्ब सूचना दी गई। वे आये। श्रमिकों से उनकी बातचीत हो ही रही थी कि अब क्या किया जाए कि इतने में ही महात्मा की समाधि भंग हो गई। उनकी आँखें खुलीं तो सर्वप्रथम उन्होंने चारों ओर देखा और वहाँ खोदने का कारण पूछा इसे बाद गंगाजल की माँग की। मालिक ने तुरंत एक व्यक्ति की ताँगे से भेजा। गंगा वहाँ से लगभग पाँच मील दूर थी। जल आने में विलंब होते देखकर महात्मा जी ने कारण पूछा, तो बताया गया कि पाँच मील जाने और पाँच मील आने में कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही। यह सुनकर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या गंगा इतनी दूर चली गई। कदाचित जिस समय उन्होंने समाधि लगाई होगी, उस समय वह स्थान गंगा का तट रहा होगा। इतने वर्षों बाद गंगा खिसककर इतनी दूर चली गई। इस दीर्घकाल में वे बिना कुछ खाए-पिए और साँस लिए जीवित बने रहे, ऐसा उस बिंदु स्राव के कारण ही संभव हो सका-यह साधना शास्त्र के मर्मज्ञों का कथन है। कहते हैं कि गंगाजल पीने के पश्चात् उक्त महात्मा ने स्वयं को पूर्ववत् मिट्टी से ढंग देने का निर्देश दिया। जमीन के मालिक ने वैसा ही किया और निर्माण कार्य रोक दिया। प्रस्तुत घटना भारत के सिद्ध एवं महान योगी ग्रंथ में आँशिक रूप में ही वर्णित है।

संपूर्ण मानव प्रगति काल के इतिहास में बिंदु की शक्ति अभी तक रहस्यात्मक ही बनी हुई है। इसे सृष्टि का मूल माना गया है। तंत्र में प्रत्येक बिन्दु शक्ति का केन्द्र है। यह शक्ति स्थायी चेतना के आधार की अभिव्यक्ति है। शास्त्रों में बिन्दु को वह आदिस्रोत माना गया है, जहाँ से सभी पदार्थों का प्रकटीकरण और अंततः जिसमें अभी का लय हो जाता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि सभी उसी की निष्पत्तियाँ हैं।

बिंदु में ब्रह्माण्ड की अनंत क्षमताओं का विकास निहित है। यहीं सृष्टि की समग्र रूपरेखा छिपी रहती है। वहाँ पर विकास का तात्पर्य है-वह अनुभवातीत प्रक्रिया, जिसका संबंध अस्तित्व की संपूर्ण प्रणाली से है।

इस प्रकार मस्तिष्क के भीतर और बाहर के केन्द्र बिन्दुओं में परस्पर संगीत बैठ जाती है। दोनों ही अपार संभावनाओं से युक्त हैं। मस्तिष्क के जिस बिंदु का ललना चक्र से संबंध है, उस चक्र में नासा छिद्रों से होकर कुछ नाड़ियाँ गुजरती हैं, लेकिन न तो ललना, न बिंदु जागरण के केन्द्र हैं। जब विशुद्धि का जागरण होता है, तब साथ-साथ ललना तथा बिन्दु का भी स्वयमेव जागरण हो जाता है, इसलिए साधना-विज्ञान में ललना तथा बिन्दु को पृथक् से जगाने का कोई विधान या उपचार नहीं है।

बिंदु अनंत संभावनाओं को संजोए हुए है। वह चाहे पदार्थ कण के रूप में हो, रज वीर्य या मस्तिष्कीय स्राव के रूप में, उसमें ऐसी क्षमता और सामर्थ्य है कि उसे गागर में सागर भरने जैसी उपमा दी जा सकती है। इसलिए बिंदु विसर्ग की साधना प्रकारांतर से उस शक्ति के एक अंश का अनावरण और उद्घाटन ही है, जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि उद्भूत है। हमें इस भली-भाँति समझ लेना चाहिए।


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