विपत्ति से लड़िए
कहते है कि ‘विपत्ति अकेले नहीं आती। वह अपने साथ और भी अनेकों मुसीबतें लिए आती है।’ कारण स्पष्ट है कि प्रतिकूलता से घबराया हुआ मनुष्य यह सोच नहीं पाता कि अब उसे क्या करना चाहिए। साधारण कठिनाइयों से पार होने में ही काफी धैर्य, सूझबूझ और दूरदर्शिता की आवश्यकता पड़ती है, फिर कुछ अधिक परेशानी की बात हो, तब और भी अधिक सही मानसिक संतुलन अभीष्ट होता है यह न रहे तो विपत्तिग्रस्त मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ होकर प्रायः वह करने लगता है, जो न करना चाहिए था। फलस्वरूप विपत्ति की नई शाखाएँ फूट पड़ती हैं और कठिनाई का नया दौर आरंभ हो जाता है। अतः विपत्तियों से निपटने के लिए संतुलन कभी नहीं खोना चाहिए, बल्कि चौगुने साहस तथा धैर्य के साथ उसमें जुटे रहना चाहिए।