युगशिल्पी अहमन्यता के विषपान से बचें

August 1999

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समुद्र-मंथन में चौदह रत्न निकले, पर उनमें सर्वप्रथम दो निकले-एक हलाहल विष, तदुपरान्त मद्य। हलाहल देखने में अत्यंत आकर्षक, नील वर्ण था। मद्य होंठ तक पहुँचते पहुँचते उन्मत्त, विक्षिप्त कर देने वाला। फिर भी उसकी ललक ऐसी थी कि जिसको एक बार स्वाद लग जाता है, फिर छूटने का नाम ही नहीं लेता। इस प्रथम उपलब्धि को पाने के लिए देव दानव दोनों ही आतुर थे। पर प्रजापति ने दोनों को ही यह समझाने का प्रयत्न किया कि यह देखने और चखने में आकर्षक लगते हुए थी अंततः विनाश उत्पन्न करने वाला है। शिवजी ने हलाहल तो अपने कंठ में धारण कर लिया पर मद्य के लिए आतुर दैत्यों ने हठपूर्वक उसको गटक लिया। फलतः उनकी सामर्थ्य उद्धत प्रयोजनों में लगी और पतन- पराभव का कारण बनी।

लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के संबंध में जन-साधारण की श्रद्धा उमड़ती है। परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है। उसकी प्रशंसा होती है प्रशंसा भी एक संपदा है। संपदाओं की उपयोगिता तो है पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है, जो हजम न हो सके तो लाभ के स्थान पर विनाश ही उत्पन्न करता है। धन हजम न हो तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा। बुद्धि हजम न हो तो कुचक्र, षड्यंत्र रचेगी। बल हजम न हो तो उद्दंडता के रूप में प्रकट होगा। हजम न होने पर अमृत भी विष बन जाता है। यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है जिसकी तुष्टि के लिए लोकसेवी को अपना चिंतन-चरित्र व्यक्तित्व एवं भविष्य हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है, जितना कि सेवा सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं गिरते। लोकसेवियों में से अधिकाँश को अपने व्यक्तित्व और सेवा क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है, जिसे दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग, लोकसेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी ओर समाज की अधिक सेवा कर सकते है।

मनुष्य को पतन-पराभव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ है वासना तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण नरपशु वासना-तृष्णा के लोभ में जकड़े रहकर किसी प्रकार कोल्हू के बैल की तरह नियतिचक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं। पर अहंता को चैन कहाँ? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है। दूसरे की साझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडंबना ने सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किए हैं। लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं, पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहाँ-तहाँ टकराती ओर प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध अनाचार उत्पन्न करती है। अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है, वह तो जहाँ-तहाँ जब-तह ही दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविकता यह है कि सामंतवादी अनाचारों का कारण भी यही है, वहाँ अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों का इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरुद्ध नहीं अधिकाँश विग्रह और युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितृप्ति के लिए खड़े किए हैं। कंस, रावण, हिरण्यकश्यप, वृत्तासुर, सहस्रबाहु, नेपोलियन, चंगेजखान जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किए उनके पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं था।

यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही है कि युगशिल्पियों के द्वारा आरम्भिक उत्साह में जो कार्य अपनाया जा रहा है, उसमें लोकमंगल का परमार्थ प्रयोजन दृष्टव्य होने के कारण श्रेय, सम्मान एवं यश तो स्वभावतः मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है, तो अपनों पर ही टूटता है। इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है, तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा अनुपयुक्त दुष्ट सिद्ध करने का प्रयत्न करती है, ताकि तुलनात्मक दृष्टि से वह अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल−जुलकर रहने में महत्त्वाकाँक्षी का अपना वर्चस्व कहाँ उभरता है इसलिए उसे साथी पेड़ पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अकेला ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघार सके।

दृष्टि पसारकर अपने चारों और लोकेषणा का नग्न नृत्य देखा जा सकता है राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अंतर्कलह, सिद्धांतों की दुहाई भले ही देते रहें, पर वस्तुतः वे व्यक्तियों की महत्त्वाकाँक्षा के निमित्त ही होते है। कितनी ही उपयोगी संस्थाएँ पदलोलुपों ने परस्पर टकराकर अपने ही हाथों शिथिल या समाप्त कर दीं। कौरव-पाँडवों से लेकर यादव कुल के लड़खपकर समाप्त हो जाने के पीछे लालच छोटा और दर्प को बड़ा कारण पाया जाएगा। धर्म-संप्रदायों के जो खंड-खंड होते चले गए है, उनके प्रचलनकर्ताओं में सुधारक कम और श्रेयलोलुप अधिक रहे हैं। चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर होते है, प्रतिशोध के नाम पर अनर्थ होते हैं, उसमें औचित्य कम और दर्प का नंगा नाच अधिक देखा जा सकता है। सास-बहू की लड़ाई में विडंबना उछलती दृष्टिगोचर होती है। पतियों का पत्नियों को आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है।

बात इस संदर्भ में चल रही है कि युगशिल्पियों का सप्त महाव्रतों को अपनाने हेतु इसलिए निर्देशन किया गया है कि उनका व्यक्तित्व उभरे और उस आधार पर आत्मबल बढ़ाते हुए अधिक उच्चस्तरीय सेवा साधना कर सकने में समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन किया समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन किया गया और लोकेषणा से उत्पन्न विष का नियमित रूप से निष्कासन न किया गया तो वही दुर्गति होगी जो भोजन न करने तथा मल- विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण संकट के रूप में उत्पन्न होती है। लोकसेवी को जनता सम्मान देती है, वह वस्तुतः उस सेवा धर्म की पुण्य परंपरा का सूत्र-संचालक तंत्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिए लोक श्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है गलती यह होती है कि सेवा भावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल मानते है। अहंकार में डूब जाते हैं और फिर उसे अपना अधिकार समझने लगते है। जहाँ उसमें कमी होती है वहाँ अप्रसन्न होते हैं। अधिक पाने के लिए आतुर रहते हैं। बँटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते है। ऐसे ही हथकंडे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। इस आपाधापी में कौर कितना सफल हुआ, यह तो ईश्वर ही जाने, पर यह आँख पसार कर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश-लोलुपता पद-लोलुपता अहमन्यता किसी से छिपाए नहीं छिपती। उभर कर ऊपर आती और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है। अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों से आरंभ होता है। चर्चा आगे बढ़ती है और यश-लोलुप के विरुद्ध असंतोष, तिरस्कार का विस्तार क्रमशः अधिक बड़े क्षेत्र में होता चला जाता है। यह है वह प्रतिक्रिया, जिसके कारण यशलोलुप तिरस्कार के भोजन बनते और जिस श्रेय-सम्मान के अपनी सेवा-साधना के कारण अधिकारी थे, उससे भी वंचित होते चले जाते है।

बड़प्पन हर क्षेत्र में महंगा पड़ता है। धन, विद्या, सौंदर्य पद आदि के क्षेत्रों में अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहते हैं, उन्हें तरह-तरह के आडम्बर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उनके पास ये विशेषताएँ हैं। लोग उसे देखें समझें और सराहें। फैशन, ठाट-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इसी विज्ञापन बाजी के लिए किए जाते है, ताकि देखने वाले की आँखें उन पर जाएँ। यही अनाचरण यश लोलुपों को भी अपनाना पड़ता है। वे किसी न किसी बहाने अपनी शक्ल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते है, आडम्बर रचने पड़ते है, जिसमें उनकी प्रमुखता सिद्ध होती हो। स्टेज पर उठने-बैठने का औचित्य या आमंत्रण न होने पर भी वहाँ जा धमकते है, ऐसी जगह अकारण खड़े होते है। जहाँ लोग उनकी शक्ल देखें और वे किसी महत्वपूर्ण ड्यूटी पर जम हुए प्रतीत हों तो अपना नाम, फोटो छपाने के लिए आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो उसकी चर्चा स्वयं करने, दूसरों से कराने का रास्ता खोजना, दान राशि के पत्थर जड़वाना जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का करते हैं, पर उनकी क्षुद्रता अनायास ही प्रकट होती जाती है। फलतः वे उलटे घृणा तिरस्कार के पात्र बनते हैं। यश के साथ परोक्ष रूप से धन लूटने की भी संभावना जुड़ी रहती है। कितने ही इसका लाभ उठाते भी हैं, किन्तु स्पष्ट है कि ऐसे हथकंडे अपनाने वाले आँतरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते हैं। फलतः वे सेवा के क्षेत्र में अन्यत्र की अपेक्षा और अधिक घाटे में रहते हैं। तिरस्कृत, उपेक्षित, बहिष्कृत की स्थिति में पहुँचते हुए अनेक तथाकथित नेता ऐसे पाए जा सकते हैं, जो येन-केन प्रकारेण सम्मानजनक स्थान तक जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं पर संपर्क क्षेत्र में सघन श्रद्धा से क्रमशः अधिकाधिक वंचित होते चले जाते है।

यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है, जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते है। स्मरण रखा जाए यह घुड़दौड़ अत्यंत महँगी, घाटे की और मूर्खतापूर्ण है। सड़क पर नंगा नाच नाचकर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है पर इससे कुछ बनता नहीं। जिस प्रकार बड़प्पन पाने के लिए उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट, विदूषक समझे जाते हैं। उसी प्रकार यशलिप्सा भी व्यंग-उपहास-तिरस्कार का कारण बनती है। सामने कोई कहे भले ही नहीं, पर इस तथ्य को थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलतापूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र स्वाँग बनाने वाले, नाटक में मुखौटे, परिधान पहनकर कभी राजा, कभी ऋषि बनने वालों की तरह अपनी अवास्तविकता का ढिंढोरा स्वयं पीटते फिरते है। उसमें उन्हें श्रम, समय धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता है। मूर्ख या चमचे इर्द-गिर्द करके, उनके बीच रंगे सियार द्वारा वनराज बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता है, पर उससे मिलता क्या है? परोक्ष व्यंग, उपहास अपने साथ जा गहरी अवज्ञा छिपाये रहते है? उससे लोक सेवक, विदूषक स्तर का बनकर रह जाता है। इस दुर्मति-जन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे तो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले आरम्भ से ही सजग रहें और खिलवाड़ रचने की अपेक्षा सतर्क रहने का कार्य चुनें। विज्ञापनबाजी से बचकर नम्रताजन्य स्नेह-सौजन्य अपनाने वाले वस्तुतः अधिक श्रेयाधिकारी बनते हैं। यश लिप्सा भी छाया की भाँति है। उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और खीज़, पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं। इनकी अपेक्षा वे कहीं नफे में रहते है, तो श्रेय दूसरों को बाँटते हैं, स्वयं पीछे रहते है विनम्र स्वयंसेवक की तरह जिन्हें अपनी श्रम-साधना परमार्थपरायणता के आधार पर मिलने वाले आत्मसंतोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि रहती है, वे अनचाहा यश पाते हैं। उन्हें वह गहरा स्नेह-सद्भाव प्राप्त होता है, जिसके साथ साथियों परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता इसी में है कि लोकसेवी सच्चे मन से यश, पद-लोलुपता अहंता छोड़ें। विनम्रता अपनाएँ। दूसरों को आगे रख कर स्वयं पीछे रहें। अपना बखान स्थगित करें। अपना चेहरा चमकाए नहीं वरन् उस तरह रहे जैसे कि सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत में आस्था रखने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र-व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता भरते और महानता के उच्च पद पर अपनी विशेषता के कारण पहुँचते है।


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