सदी के अंतिम स्वतंत्रता दिवस पर करें कुछ आत्मचिंतन

August 1999

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अगस्त का महीना हर साल आता है और दूसरे महीनों की तरह ही बीत जाता है। सदा की तरह इस बार भी बीत जाएगा, किन्तु यह दूसरे महीनों जैसा केवल एक महीना नहीं है। यह महीना आता है, तो अपने साथ अनेक स्मृतियाँ भी लाता है। कुछ सुखद, कुछ दुखद, कुछ कटु, कुछ मधुर, कुछ पराक्रम की, कुछ पराजय की, कुछ खोने की तो कुछ गवाने की। इसी महीने में नौ अगस्त 1942 का क्राँति दिवस भी आता है, तो पंद्रह अगस्त के रूप में स्वतंत्रता का आनन्द दिवस और राष्ट्र विभाजन का दुखदायी प्रसंग भी। देश के महान क्राँतिकारी, भविष्य द्रष्टा और ऋषि श्री अरविन्द का जन्म मास भी यही है। इसी महीने की पंद्रह तारीख को उनका जन्म हुआ था। आजादी के इस महान योद्धा ने केवल भौतिक दासता से मुक्ति की लड़ाई नहीं लड़ी, बल्कि मानव चेतना को उसके चरम विकास तक ले जाकर अभौतिक और आध्यात्मिक प्रकाश में चिरंतन सत्य का साक्षात्कार करने-कराने के लिए साधना भी की। देशवासियों को उनके समग्र राष्ट्रीय कर्तव्य का बोध कराया था।

परंतु आज यह सब विस्मृतप्राय है। आज से प्रायः बावन साल पहले हमने विश्व के सबसे लंबे संघर्ष के बाद देश को विदेशी परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराया था और साथ ही एक स्वावलंबी, स्वतंत्र एवं समृद्ध भारत का सपना देखा था, जिसमें किसी की आँखों में पीड़ा अभाव के आँसू न रहेगी, अन्याय शोषण के कुचक्र से सब मुक्त होंगे और अपने संपूर्ण स्वराज्य, पूर्ण स्वतंत्रता के आदर्श को साकार करेंगे। आधी सदी से दो साल अधिक बीत जाने के बाद भी देश आज जिस मोड़ पर खड़ा है, उसकी तस्वीर काफी भयावह है। विकास के नाम पर विषमता की खाई और गहरी हो गई है। आर्थिक स्वावलंबन तो कोसों दूर है। राजनीति सेवा की बजाय स्वार्थसिद्धि एवं शोषण का पर्याय बनी हुई है। भ्रष्टाचार तो जैसे समूची व्यवस्था का स्वीकृत अंग बन गया है। चहुँओर असहिष्णुता, जातीय विद्वेष, सांप्रदायिक हिंसा, अलगाववाद एवं अराजकता का साम्राज्य संव्याप्त है। नैतिकता-आदर्श सिद्धांत एवं जीवन मूल्यों के प्रति घोर उपेक्षा का भाव पनपा है। वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में पतन की नए-नए प्रतिमान स्थापित हुए हैं। उदारीकरण के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन एवं बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव ने पतन-पराभव को परावलम्बनता के शिकंजे को और कस दिया है।

जनता को अधिकतम भागीदारी व हित-सुरक्षा एवं कल्याण के उद्देश्य से अपनायी गई लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत हम कहने के लिए विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का गर्व कर सकते हैं, किन्तु इसका बढ़ता हुआ आँतरिक खोखलापन इसकी यथार्थता पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है। 52 वर्षों में उपलब्धियों के नाम पर उद्योग, कला, साहित्य, सिनेमा, विज्ञान आदि विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों के आँकड़े प्रस्तुत किये जा सकते हैं। परिवर्तनकारी कारकों में पिछड़ी जाति, दलित शक्ति का उभार, महिला शक्ति का जागरण आदि को स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। खुली अर्थनीति, तेजी से बढ़ते मध्यवर्ग के आधार पर आर्थिक मजबूती की बातें की जा सकती हैं, किन्तु गहराई से देखने पर स्थिति मूल रूप से चिंतनीय एवं भयावह बनी हुई हैं।

लोकतंत्र से जुड़ी सभी प्रणालियों का पलड़ा बहुत तेजी से बाहुबल धनबल संपन्न वर्ग के पक्ष में झुक गया है। जिस न्यायिक सक्रियता को हम उपलब्धि के बतौर मान सकते हैं, वह वास्तव में नव ताकतवर तबकों के एक दूसरे के प्रतिशोध लेने की प्रक्रिया के तहत हुआ है। सामान्यजन से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। गरीबों के लिए न्याय दुर्लभ हो गा है, क्योंकि न्याय चेतना आज सौदे बाजी का हिस्सा हो गई है, जिसे वह खरीद नहीं सकता। जो न्याय का दरवाजा खटखटाते हैं, उन्हें कितना न्याय मिल पाता है, यह इसी बात से जाना जा सकता है कि ढाई करोड़ मुकदमें तो ऐसे हैं, जो पच्चीस वर्ष से विचाराधीन हैं। जिस सामाजिक चेतना में न्याय-व्यवस्था का हिस्सा न हो, ऐसे लोकतंत्र का अस्तित्व विचारणीय है।

आज वास्तव में हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र का ढाँचा भी खड़ा है, इसकी आत्मा विदा हो गई है। वर्तमान में इसमें निर्णायक भूमिका निभाने वाली शक्ति राजनीति लोकसेवा की बजाए सत्ता लोलुपता एवं स्वार्थ-सिद्धि का साधन भर रह गयी है। जनसेवा की भावना, नैतिक आदर्शों से लगाव आदि इतिहास के पन्नों या मंचों पर भाषण अथवा बीते युगों की बातें हो गई है। इसमें सच्चरित्र वाले लोगों का अकाल पड़ता जा रहा है। इसका स्वरूप इतना भ्रष्ट व गंदा हो गया है कि समझदार लोग इसमें आने से डरते हैं। इसे दूर से भी छूने को राजी नहीं हैं। आज की राजनीति झूठे आश्वासन, खोखले नारे, संकीर्ण स्वार्थों व संकल्प हीनता का पर्याय बन गई है और लोकतंत्र भीड़ तंत्र में बदल गया है, जिसमें विवेकशीलता, नैतिकता व सिद्धांत परायणता का स्थान छल-प्रपंच भ्रष्टाचार और अराजकता ने ले लिया है।

नौकरशाही अपनी अक्षमता, लालफीताशाही और टालू प्रवृत्ति के लिए चर्चित है। प्रशासनिक व्यवस्था के असली प्रशासक ने तो जनता के प्रति उत्तरदायी हैं और न ही विधायिका के प्रति। विकास-प्रगति के नाम पर समृद्धि का जो रुपहला चित्र खींचा जाता है वह मुट्ठी भर लोगों का है, जो प्रमुखतः नगरों-महानगरों का भारत हो। जबकि देश का प्रतिनिधित्व करने वाली असली भारत दूर-दराज के गाँवों में बसता है, जहाँ अभी पानी, बिजली, प्राथमिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा का प्रकाश पहुँचना बाकी है। वहाँ तो अभी भी गरीबी अशिक्षा, कुपोषण, बीमारी, बेरोजगारी को बोलबाला है। देश का साठ प्रतिशत भाग अभी शिक्षा-साक्षरता के प्रकाश से वंचित है और चालीस प्रतिशत अभी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन के लिए मजबूर है। गरीबी हटाओ के नाम पर जो बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाई जाती हैं, ज्यादातर धन एवं सामग्री बिचौलिए चट कर जाते हैं और अंततः विकास की योजनाएँ पिछड़ेपन पर आकर समाप्त हो जातीं हैं।

देश के नीति-निर्धारक एवं बुद्धिजीवी वर्ग में गाँवों के प्रति कोई विशेष संवेदना नहीं हैं। देश भर में छपने वाले 2300 समाचार पत्रों में मात्र 7 प्रतिशत खबरें हो गाँवों की दशा-दिशा एवं समस्याओं पर छपती है। असली भारत की घोर उपेक्षा की स्थिति में देश की स्वतंत्रता, विकास एवं प्रगति की कल्पना आधी-अधूरी ही रह जाती है। आर्थिक स्वतंत्रता के समय देखा गया था, वह कभी का आँखों से उड़ गया है। इसका स्पष्ट संकेत भारत का आर्थिक चुनौती भरे विश्व में हिस्सेदारी के प्रतिशत में देखा जा सकता है, जो कि बहुत मामूली सा है। स्वतंत्रता के बाद और औद्योगिक कृषि, वैज्ञानिक जैसे तमाम क्षेत्रों में विकास की बेहतर बुनियाद के बावजूद हम आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो पाए।

हमारी दैन्य-दरिद्रता की इस स्थिति को बरकरार रखने में हमारी आरामतलबी अकर्मण्यता का भी बड़ा हाथ है। संसार के सभी विकसित देश कार्य-संस्कृति के बल पर ही आगे बढ़े हैं। जापान-जर्मनी जैसे देशों ने हमारे साथ ही प्रगति की यात्रा प्रारंभ की थी और आज वे विश्व के सुदृढ़तम देशों में से हैं। जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध में ये पूरी तरह से तबाह हो गए थे। अपनी लगन, अथक श्रम, अनावश्यक आवश्यक के प्रति अरुचि व दृढ़ संकल्प के आधार पर ही इन देशों ने राख के ढेर से अपने देश का पुनर्निर्माण किया।

अपने देश में कार्य-संस्कृति की जगह छुट्टी संस्कृति जोर पकड़ती जो रही है। इस समय देश में 22 सार्वजनिक अवकाश हैं। शनिवार व रविवार मिलाकर 104 अवकाश दिवस होते हैं। सार्वजनिक अवकाश के साथ-साथ हर राज्य में स्थानीय त्योहार और जयन्ती के अवसर पर 7-8 छुट्टियाँ अलग होती हैं। कुल मिलाकर 30 सार्वजनिक अवकाश दिवस हर राज्य में प्रतिवर्ष होते हैं। एक सरकारी कर्मचारी औसतन साढ़े चार माह अवकाश पर रहता है। आकस्मिक चिकित्सकीय, अवकाश यदाकदा होने वाले बंद हड़ताल एवं राष्ट्रीय शोक के अवसर इसमें और वृद्धि कर देते हैं। इस तरह छह-छह माह तक यहाँ छुट्टियाँ रहती हैं और शेष छह माह की काम होता है। इन बावन वर्षों में कार्य संस्कृति का विकास न होना “काम है हराम, काम से अधिक दाम” की विकृत सोच का पनपना राष्ट्रीय शर्म और दुर्भाग्य का विषय बन गया है।

आरामतलबी के साथ उपभोग की लालसा में इन दिनों बेतहाशा वृद्धि हो रही है। उदारीकरण के बाद यह भोगवादी प्रवाह और ज्यादा प्रबल हुआ है। टी.वी. फिल्मों एवं अन्य संचार माध्यमों में इसके अश्लील, कुत्सित एवं भोंडे प्रदर्शन के नंगे नाच की आँधी उमड़ पड़ी हैं, जिसके घातक प्रभाव से नर-नारी युवा बच्चे कोई भी नहीं बचा है। बढ़ती हिंसा, अपराध आत्महत्या बलात्कार की घटनाएँ बहुत कुछ इसी से प्रेरित एवं प्रभावित हैं। यहीं से बच्चों को हिंसा के बीच संस्कार के रूप में मिल रहे हैं। बहुसंख्यक युवक अपने साँस्कृतिक गौरव एवं राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में हैं।

राष्ट्र के इस आँतरिक खोखलेपन का फायदा उठाने की फिराक विदेशी शक्तियों को हर हमेशा लगी रहती है। एक तरफ वे भोगवाद की लालसा की उत्तेजना पनपा कर भारतीय बाजारों पर बाजारों पर कब्जा करती जा रही है। दूसरी ओर वे राष्ट्रीय प्रतिभाओं को लोभ-लालच भरे आमंत्रण देकर उन्हें राष्ट्रमाता की सेवा से विमुख कर रही है। बात इतने तक ही सीमित नहीं है। विदेशी हथकंडों के अन्य पहलू भी हैं, जो कहीं अधिक घिनौने और अमानवीय हैं। आतंकवाद को प्रश्रय इसमें महत्वपूर्ण है। विकसित देशों के प्रश्रय से पनपने वाले पड़ोसी देश आतंकवादियों के द्वारा तोड़-फोड़ घुसपैठ, विस्फोट कराकर ही संतुष्ट नहीं होते, यहाँ की युवा पीढ़ी को गुमराह करने के लिए तरह-तरह के नशों का मकड़जाल भी फैलाते हैं।

राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति हमारी उदासीनता, उपेक्षा से पनपी हमारी आंतरिक अस्थिरता एवं दुर्बलता की स्थिति को परखकर विद्वेष ग्रस्त हो, हमारे छोटे-से पड़ोसी देश ने हमारी सीमाओं में सशस्त्र घुसपैठ कर हमारी स्वतंत्रता व गौरव की चुनौती दे डाली, जिसका सामना हमारे वीर सैनिक अप्रतिम शौर्य व दृढ़ता के साथ कर रहे हैं-विश्व की दुर्गमतम बर्फीली पहाड़ियों में घोर विषम स्थिति में, अपने प्राण हथेली पर रखकर दुश्मनों को खदेड़ रहे हैं और देश के आन-मान व स्वतंत्रता के प्रति हमें आश्वस्त कर रहे हैं। उनमें से हर एक के हृदय में यही ध्वनि गूँज रही है-

तन समर्पित मन समर्पित, रक्त का कण-कण समर्पित सोचता हूँ मातृ भू कुछ और भी दूँ।

इस दोहरे संकट के क्षणों, जब हमारे वीर जवान देश की रक्षा के लिए प्राणों की बाजों लगाकर मोर्चे पर डटे हुए हैं, हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य बनता है है कि हम राष्ट्रनिर्माण के आँतरिक मोर्चे पर उसी कर्मठता, साहस एवं आत्म बलिदानी समर्पण भाव से डटे। यही देश की खातिर पर मिट रहे वीर शहीदों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

ध्यान रहे, जब महाभारत का वक्त होता है तो अपने पराए की परिभाषा बदल जाती है। राष्ट्र की सुरक्षा, सत्य एवं सत्ता-स्वार्थ के बीच द्वंद्व और द्विविधा शुरू हो जाती है। युद्ध का आधार मूल्यनिष्ठा, सत्यनिष्ठा एवं जनहित होता है तो राष्ट्रधर्म की विजय निश्चित होती है। हमें अपने स्थान पर रहते हुए राष्ट्रीय कर्तव्य का यह अनोखा संग्राम लड़ना है। अपने सर्वस्व की आहुति देकर उन मूल्यों की सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा करनी है, जो हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखें। आज के दौर में जो पलायनवादी होंगे जाति क्षेत्र के आधार पर जो राष्ट्र विरोधी गतिविधि अपनाने वालों को अपना समझेंगे-काल कृष्ण उन्हें क्षमा नहीं करेगा।

देश का निर्माण और राष्ट्र का विकास आलस्य से नहीं, सपनों के तानों–बानों से नहीं वरन् संकल्पों श्रम एवं साधन से होता है। आज के दौर में यही हमारा सर्वोपरि राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसके लिए हम अपना एवं अपनों का सर्वस्व दे डालने के लिए तत्पर हो सकें, तो ईसा की इक्कीसवीं सदी के भारत का मानचित्र भारत की साँस्कृतिक चेतना और उसके सामाजिक स्वरूप का निर्धारण करेगा और साथ ही यह भी कि भारत भीख व दया पर आधारित दयनीय रूप में नहीं रहेगा, बल्कि इसकी स्वतंत्र चेतना एक परम तेजस्वी और आत्मगौरव से पूर्ण सबल-समर्थ राष्ट्र के रूप में स्वयं को प्रकट करेगी।


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