गायत्री परिवार रूपी अखिल विश्वव्यापी संगठन गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा जी आचार्य के जीवनक्रम पर जब भी विस्तार से नूतन शोधें होंगी, बहुत से सामान्यजनों को जानकारी होगी कि कितना बहु-आयामी जीवन उन्होंने जिया है। अभी प्रायः पंद्रह शोधग्रंथ उनके जीवन पर, चिंतन व कर्तव्य पर लिखे जा चुके, किन्तु जिसका व्यक्तित्व हिमालय समान विराट हो, उसे कैसे शब्दों में बाँधा जा सकता है। वे एक विराट परिवार के मुखिया भी थे, संत भी थे, एक संगठन एक व्यवस्थापक, एक दार्शनिक, एक द्रष्टा एवं एक महान लेखक-साहित्यकार भी। अखण्ड ज्योति पत्रिका जीता-जागता वह दर्पण है, जिसके माध्यम से परमपूज्य गुरुदेव की प्राणचेतना को स्पंदन लेते देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व के और भी कई रूप हैं, परंतु इस मिशन का जन्म जिस आधार पर हुआ- जिसके बलबूते पाला-पोसा जाकर वह बढ़ता चला गया और आज के 6 से लेकर 9 करोड़ परिजनों वाले विराट रूप तक पहुँच गया है, उसका आधार हैं उनकी संवेदना से भरी जीवन लेखनी। उसी से न केवल उन्होंने लेख लिखें वे पतियाँ भी लिखी जो लाखों व्यक्तियों के जीवन परिवर्तन का आधार बन गई, उन्हें संगठन से जोड़ कर उनसे कुछ ऐसा कराती चली गई कि संगठन का ढाँचा बनता चला गया। संगठन ढेरों बनते है, आज खड़े होते हैं कल बिखर जाते है। राजनीतिक पार्टी के कितने धड़े होते जाते हैं, वे भी मिलता-जुलता नाम रख एक नया संगठन खड़ा कर लेते है, पर उनका अस्तित्व बबूलों की तरह होता है। समय के प्रवाह में तिरोहित होने के लिए उन्हें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। जिनके दिमाग में राजनीतिक है- कूटनीति है, वे तो कुकुरमुत्तों की तरह चार-पाँच अधिक से-अधिक पच्चीस तीस व्यक्तियों की एक पार्टी बना लेते है, पर जैसे ही उनके निजी स्वार्थ टकराते है, -बहवःय. नेतारः ‘ की तरह उनके ढाँचे लड़खड़ा जाते है। किंतु परमपूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित विराट गायत्री परिवार इस नींव पर खड़ा हुआ है, जिनकी सिंचाई आत्मीयता-सघन ममत्व रूपी शांतिप्रदाता जल से हुई हैं। जो प्यार- आत्मीयता उन्होंने अपनी लेखनी से अखण्ड ज्योति द्वारा निजी स्तर पर पत्रों द्वारा तथा तथा व्यक्तिगत संपर्क में आने वालों को अपने जादू भरे स्नेहिल स्पर्श से परिजनों को बाँटी, वही इस संगठन की समर्थता का मूल आधार है। आज जो क्षेत्र में कार्य कर रहे एक सक्रिय प्राणवान कार्यकर्ता हैं अथवा केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में सक्रिय समयदानी- सभी ने घूँटी को पिया है। वह प्राण-सुधा है, जिसने युग-परिवर्तन लाने वाले ऐसे मिशन की आधार-भूत स्थापना की है।
जब से तेरह वर्ष की आयु में 1963 में हमने उन्हें पहली देखा तब से उनकी दिनचर्या के कायल हो गए थे। प्रातः जब मिलने का क्रम होता तब लेखन भी चल रहा होता था एवं व्यावहारिक जगत की सभी समस्याओं का समाधान भी। जैसे ही डाक आती वे तुरत स्वयं सारे पत्र खोलने- उनका वर्गीकरण करते एवं फिर जवाब लिखना आरम्भ कर देते। कुछ व्यवस्था परक कार्य ऐसे होते थे जिनमें पत्रिका के चंदे अथवा यज्ञायोजन संबंधी जिज्ञासाएँ होती थीं, उनका जवाब तुरंत नोट करा देते। पर ऐसे कई सौभाग्यशाली है जिन्हें उनके पास व पत्र आज भी निधि के रूप में विद्यमान हैं। ऐसे ही कुछ पत्रों की चर्चा इन लेखमाला में हम करेंगे।
अजमेर नया बाज़ार के श्री मोहनराज भंडारी बताते हैं कि उन्हें पूज्यवर मित्रवत पत्र पत्र लिखते थे। उनको लिखा 1.12.47 का एक पत्र है, जिसमें वे लिखते हैं-तुम्हारा प्रेम ऐसा है, जिसे भुला देना किसी वज्रहृदय के लिए भी कठोर है। काम में बहुत अधिक व्यस्त रहने कारण अपनी ओर से पत्र भेजने का अवसर नहीं मिल पाता, तो भी भेजे हुए पत्रों का उत्तर डाक डाक रूप में न देने में हम भूल नहीं करते। “यह जवाब उनके उस उलाहने के उत्तर में था, जो उन्होंने 4-5 दिन से प्यार भरी पाती न मिलने पर दिया था। वैसे पत्र नियमित मिल रहे थे, परंतु वे अपेक्षा रख रहे थे कि उनकी अस्वस्थता का उल्लेख करते हुए पत्र तुरंत कोई क्यों नहीं आया? किन्तु उनके बीमार होते ही तीसरे दिन इसी पत्र का आना व उसमें यह भी लिखा होना कि “भगवान तुम्हें सदा स्वस्थ एवं समृद्ध रखे ऐसी हमारी आंतरिक कामना है” यह बताता है कि बेतार के तार तरह संदेश पहुँचाता था व भक्त अपेक्षा रखता था कि याद कर लिया, अब तो पत्र आ जाए।
अभी-अभी हम गुरुपूर्णिमा मना चुके हैं। इस पर्व पर हमने अपनी गुरुसत्ता के प्रति निष्ठा को और भी प्रखर बनाने का संकल्प लिया होगा। किन्तु गुरुभक्ति होती क्या है, यह पूज्यवर के इस पत्र से जाना जा सकता है। अपने 1.07.42 के पत्र में एक आत्मीय को वे लिखते है-” गुरु भक्ति ईश्वर- भक्ति का ही एक प्रारंभिक और सरल रूप है। वह प्रेम भी ईश्वर को ही पहुँचाता है। जैसे पत्थर की प्रतिमा का पूजन करने से उस पूजा का श्रेय प्रतिमा एक सीमित नहीं रहता और सीधा ईश्वर तक पहुँचता है। इसी प्रकार गुरुभक्ति भी किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है। वह भी सीधी ईश्वर तक ही पहुँचती है। आपके दो वे स्वप्न सही है।” कितनी स्पष्ट व्याख्या है। किसी को भी जरा भी मन में असमंजस किसी को भी जरा भी मन में असमंजस न लाकर गुरु शंकर रूपिणम्’ वाले तथ्य को स्मरण रखना चाहिए। बिना ननुनच किए बस उन्हीं को समर्पित जीवन जीना चाहिए। उपलब्धियां सभी समर्पण की ही देने हैं। किसी परिजन के मन में राम व कृष्णा में से किसी एक को ही आराध्य मानने का आग्रह था। इस सम्बन्ध में वे पत्र भी लिखा करते थे। उनके पत्र का जवाब सामान्यतया यह भी जा सकता था कि आप पुस्तिका का अध्ययन करें ‘ अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पढ़ें किन्तु नहीं। पूज्यवर ने श्री धर्मपालसिंह को 4 जनवरी, 46 को लिखें अपने इस पत्र में सारा निचोड़ कुछ ही पंक्तियों में डालकर न केवल उनका असमंजस मिटाया, उन्हें एक सक्रिय समर्पित कार्यकर्ता भी बना दिया। वे लिखते हैं- ईश्वर भक्ति के संबंध में आपका विचार ही हमें अधिक उचित प्रतीत होता है। राम और कृष्ण यद्यपि ऐतिहासिक पुरुष भी हुए हैं, पर उनका इष्टदेव स्वरूप भिन्न हैं। व्यक्ति आदर्श हो सकते हैं ईश्वर नहीं। ईश्वरीय सत्ता वाले राम या कृष्ण की अंतःकरण में धारणा करनी चाहिए। ऐतिहासिक राम कृष्ण के चत्रियों में कुछ दोष भी हो सकते हैं। उनको ध्यानप्रतिमा राम की हम घाटे में रहेंगे। ध्यानप्रतिमा राम की या आपकी इच्छानुसार कृष्ण की, दिव्यगुणों से संपन्न ही होनी चाहिए। मानवीय दोषों व पूर्वाग्रहों का उनके साथ समन्वय कर देने से उलझनें बढ़ जाती है।
परमपूज्य गुरुदेव एक ही आदर्श नियत करने की जो सलाह उन्हें दी वह न केवल उन्हें रास आ गई, उनके जीवन में एक मोड़ लेकर आई। उनकी आध्यात्मिक प्रगति उसके बाद और सरल होती चली गई। यह पूछे जाने पर कि किसी जीवित व्यक्ति को इष्ट बनाया जा सकता है या नहीं गुरुदेव लिखते हैं कि “ कोई जीवित मनुष्य इष्टदेव नहीं हो सकता, क्योंकि आगे चलकर वह भ्रष्ट साबित हो तो अपनी धारणा भी निष्फल चली जाती है। ‘8 कितना सही-सशक्त तर्क सम्मत समाधान हैं। देखा जा सकता है।
अपने असाधारण महामानव स्वरूप को छिपाकर सामान्य परिवारजन जैसा व्यवहार करते रहना, साथ ही अनुदान भी लुटाना यह पूज्यवर के जीवन में देखा जा सकता है। माया वर्मा हमारे मिशन की अग्रणी कवयित्री रही है। अभी विगत वर्ष ही उनका निधन हुआ है उनकी स्मृति में एक काव्य संकलन विगत 23 मई को गायत्री कुँज में लोकार्पित किया गया था। वे स्वयं अपने विषय में बताती थी, भावविभोर हो जाती थीं। हमें सामीप्य पाने का अवसर ग्वालियर में अध्ययनरत होने के कारण मिलता रहा वे बताती थीं कि वे जो भी कुछ हैं, पूज्यवर की वजह से ही हैं। उनका स्वास्थ्य गुरुदेव से मिलने से पूर्व ऐसा था जिसे देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह अधिक दिन जी पाएँगी। उन्हें सतत् मिर्गी के दौर आते थे। कई -कई दिनों तक बेहोशी के दौरे भी आते थे। किन्तु पारस का स्पर्श पाते ही लौहखंड स्वर्ण हो गया एवं उसके अन्दर का सौंदर्य काव्य रूप में फूट पड़ा। 2.12.67 को लिखे एक पत्र में वे प्रिय पत्री माया, का संबोधन देते हुए लिखते हैं,-” हमारा स्वास्थ्य ठीक है। वह अपने काबू में है। किसी दूसरे का संकट अपने ऊपर लेकर उसका बोझ हलका किया है। इसी की बीमारी थी। प्रयोजन पूरा होने पर हमारा कष्ट भी ठीक हो गया।” जिसे जीवनदान दिया था- उसे वे बता रहे थे कि उसी की तरह किसी और के कष्ट को, उन्होंने अपने ऊपर लेकर ठीक किया था। यह घटना ‘अखण्ड ज्योति’ में पहले भी छप चुकी है व चर्चित है। कि जयपुर की एक सुविख्यात कर्मठ कार्यकर्ता बहिन के मृत्युदायी संकट को पूज्यवर ने अपने ऊपर उक ‘ रिनल स्टोन’ की तकलीफ के रूप में लेकर उन्हें प्रत्यक्ष जीवनदान दिया था उसी का संदर्भ संकेत मात्र में अपनी मानसपुत्रों को दिया था।
हमने अपनी आँखों से देखा है दिल्ली के श्री शिवशंकर जी व उनके भाइयों व गुरुदेव के मध्य हुए वार्तालाप में ऐसे ही एक चमत्कार को। शिवशंकर जी के भाई प्रेम नाथ जी सुना रहे थे कि किस तरह वे एक दिन पूर्व ताँगे से गिर से गिर गए व उसका पहिया उनकी जाँघों पर से निकल गया, पर गुरुदेव को स्मरण कर लिया एवं कहीं खरोंच तक नहीं आयी। घटना के एक दिन बाद की ही बात है। गुरुदेव बोले- ‘8 तुझे तो कुछ नहीं हुआ, पर यहाँ देख”- इतना कहकर उन्होंने धोती उठाकर जाँघ वाला हिस्सा दिखाया। पूरा लाल हो रहा था, मानो किसी ने बुरी तरह कुचल दिया हों। उन्होंने कहा कि तेरे याद करते ही संकट टल गया था। हत लगाने के लिए ट्यूब लेने दौड़े, पर तब तक अवतारी सत्ता को माया कि हमारे पहुँचने तक वह चिन्ह वहाँ था ही नहीं। बार-बार आँखें मलीं, सोचा कि क्या रामकृष्ण परमहंस व संत ज्ञानेश्वर वाली घटनाएँ आज भी घट सकती है?
इतना कुछ है कि कई ग्रंथ कम पड़ जाएँ, उस गुरुसत्ता के अनुदानों का वर्णन करते करते। पत्रों के माध्यम से प्रमाण सहित ऐसे ही प्रसंगों की चर्चा हम आगे भी करते रहेंगे। अभी तो उस दैवीसत्ता को नमन करते हुए विराम देते है।