युग गीता-4 - सद्गुरु के रूप में भगवान का वरण

August 1999

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युग गीता के अंतर्गत विगत दो अंकों में श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के विषाद योग प्रकरण की चर्चा हो चुकी है। अर्जुन जैसे समर्थ को असहाय बनाने वाले व्यामोह पर श्रीकृष्ण की प्रतिक्रिया अब दूसरे अध्याय में आती है जिसे ‘सांख्ययोग’ नाम से वर्णित किया गया है। अर्जुन के असमंजस का वर्णन करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने अप्रैल, 1972 की अखण्ड ज्योति में लिखा था कि यह व्यामोह कुसंस्कार है, भवबंधन है, दुर्विचार है या मकड़ी का जाला, कुछ समझ में नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है। इस विषम वेला में युग के अर्जुनों के गाण्डीव क्यों हाथ से छूटते चले जा रहे है? उनके मुख क्यों सूख रहे है? पसीने क्यों छूट रहे है? सिद्धान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखे जाने का कोई समय नहीं आएगा? कृष्ण झुंझला पड़े थे कथनी और करनी के बीच इतना असाधारण व्यतिरेक उन्हें सहन नहीं हुआ। गुस्से में आकर बोले- हे अभागे! इस विषम वेला में हय कृपणता तेरे मन में कैसे आ गई? यही प्रकरण अब दूसरे अध्याय में आता है यहाँ अर्जुन मात्र से गुरुदेव के शब्दों में ‘अंतरिक्ष से आज का महाकाल युग के गाण्डीवधारियों से लगभग इसी भाषा में प्रश्न पूछता और उत्तर माँगता है-यह हम सभी के लिए है।

साँख्ययोग के प्रस्तुतीकरण के पूर्व यह जान लेना चाहिए कि गीता का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय है। कई विद्वज्जनों-मनीषियों को प्रिय यह अध्याय क्लिष्ट भी है। बहत्तर श्लोकों में जो चर्चा है, उसमें शिष्यत्व के उभार से लेकर देहातीत आत्मा के भान, देह से स्वधर्म आचरण एवं स्थितप्रज्ञ इन चार पक्षों की व्यक्ति निर्माण के व्याख्यापरक इस प्रतिपादन को।

द्वितीय अध्याय की शुरुआत ही श्रीकृष्ण की अर्जुन को लताड़ से आरंभ होती है। वे कहते है-

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्ट मस्वर्ग्य मकीर्ति कर मर्जुन॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वयुपपद्यते क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥3॥

अर्थात् “हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो। तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हृदय नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा”

यह समझने की बात है कि भगवान इस गीता रूपी उपनिषद् में पहली बार यहीं से, इन्हीं दो श्लोकों के माध्यम से अपना बोलना आरंभ करते है। इसके पूर्व अर्जुन के कहने पर उन्होंने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर खड़ा भर दिया था। दोनों ही श्लोक बड़े मार्के के है। किसी भी योद्धा के लिए ये शब्द बड़े चुभने वाले है। क्लीव कायर नपुंसक कहा जाना किसी भी वीर-योद्धा को सहन नहीं हो सकता। अर्जुन के पौरुष को चुनौती देते हुए उसे उत्तेजित करने के लिए भगवान कृष्ण सबसे बड़ी चोट उसे लगाते हुए उलाहना दे रहे है। जाग्रत आत्मा के स्तर के व्यक्ति अर्जुन को तमस् की ओर जाता देख परमात्मसत्ता विकल हो उठती है। वे उसे श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण के विषय में याद दिलाते है व उसके वर्तमान व्यवहार को अपकीर्ति की ओर ले जाने वाला बताते हैं। इस प्रकार वे अपने सखा-मित्र अर्जुन को अंदर से बाहर तक उद्वेलित भी कर देते है।

उपर्युक्त दो श्लोकों के जवाब में अर्जुन पुनः भीष्म पितामह गुरु द्रोण की दुहाई देकर स्वयं को रणभूमि में युद्ध करने से बचाना चाहता है। सातवें श्लोक में सब कुछ अपने आराध्य के हाथों में सौंपकर वह शिष्य भाव को प्राप्त हो जाता है इन चार-पाँच श्लोकों के प्रारम्भ में अर्जुन ने ढाल के रूप में भीष्म व द्रोणाचार्य के नाम का प्रयोग किया है वह कहता है- ‘वे दोनों ही पूजनीय है। मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूं अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है आप ज्ञानी है, महापुरुष है, हमें आपकी गाली तक स्वीकार है, परंतु हम अपनों को नहीं मार सकते। इस समय अर्जुन द्वंद्व की स्थिति में है। एक तरफ गुरुजनों के प्रति मोह है और दूसरी ओर श्रीकृष्ण की लताड़ व युद्ध का आहृन कहता है कि इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न खाना कल्याणकारक समझता हूँ, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूंगा।

सारे तर्क इसके इस पराकाष्ठा पर पहुँच गए हैं कि भिक्षा के अन्न की बात कहने लगता है- युद्ध के कारण रक्त से सने पदार्थ वाली बात कहकर श्रीकृष्ण को उतनी ही उत्तेजक भाषा में उत्तर देने की कोशिश कर रहा है, जितना उन्होंने उलाहने की गहरी चोट देकर उससे प्रारंभ में कहा था यह ळाी कह देता है। कि हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करने न करने में से कौन-सा श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे ओर जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े है।

अर्जुन की यह मनः स्थिति समझने योग्य है। सिद्धांतों की भाषा वह कह रहा है गुरु को मारना ठीक बात नहीं है यह भी योगेश्वर श्रीकृष्ण का वह समझा रहा है, पंडितों जैसी बातें कह रहा है। किन्तु पंडितों जैसा उसका आचरण नहीं है। तमोगुण की पराकाष्ठा मोह में होती है। मोह का एक चरम स्वरूप परमपूज्य गुरुदेव ने बताया है निद्रा। सारी दुनिया छोड़कर सो जाइए। आलस्य, प्रमाद और मोहनिद्रा-सभी एक ही दुर्गुण के रूप हैं। जिस अर्जुन को निद्रा जीने वाला कहते हैं-गुडाकेश जिसका शाब्दिक अर्थ भी यही है (गुडाक यानि निद्रा ईश अर्थात् स्वामी) वही अर्जुन स्वयं मोहनिद्रा में चला गया है। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि जाग्रत आत्माओं को जब हम मोहनिद्रा में डूबा देखते हैं तो उन पर तरस भी आता है व आक्रोश भी होता है। आजीवन पोतों के साथ खेलना परिवार की सीमाओं तक ही स्वयं को बाँधे रखना-समाज के विषय में कभी न सोचना, यह आज के युग की सबसे बड़ी विडंबना है। उपर्युक्त चिंतन यदि अर्जुन पर युगधर्म की परिप्रेक्ष्य में लागू करें तो लगता है कि इस समय इसकी स्थिति यही है किन्तु यही स्थिति उसे क्रमशः समर्पण की स्थिति में ले जाती है। गीता के इस अध्याय के सातवें श्लोक में ही वह कह बैठता है-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृज्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेताः। यज्छेयः स्यानिन्श्चितं बूहि तन्में, शिष्यस्तेडहं शाधि माँ त्वाँ प्रपन्नम्॥

अर्थात् कायरता रूपी दोष से उपहत स्वभाव वाले तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि में आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।

गीता वस्तुतः गुरु शिष्य संवाद के रूप में यही से आरंभ होती है। पहली बार अर्जुन के मुँह से निकला है ‘शिष्यस्तेडहं’ मैं आपका शिष्य हूँ। यह स्थिति आना ही शिष्य के लिए कल्याणकारी घड़ी आने के समान हैं जब तक यह स्थिति नहीं आती शिष्य अपने ही अहंकार में डूबा बैठा अपनी प्रतिभा पर आत्म मुग्ध होता रहता है। मैं पढ़ा-लिखा हूँ- मैं दानी हूँ-गुरु के लिए इतना मैंने दान किया- मैं जीवनदानी हूँ। जब यह सब भूलकर यह बात मन में आती है कि मैं आपका शिष्य हूँ-आपकी शरण आया हूँ जो मेरे लिए कल्याणकारी हो, वही शिक्षा दीजिए, तो गुरु सशरीर हो या न हो, सूक्ष्म, से भी ऐसे ही प्रेरणाएँ भेजता है कि वे निश्चित ही कल्याणकारी होती हैं एवं उसका सच्चा मार्गदर्शन करती हैं।

ऐसा कहा जाता है कि असली गीता दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से ही आरंभ होती है, क्योंकि भगवान गुरुभाव में योगस्थ होकर वे अर्जन रूपी शिष्य को, जो हम आप कोई भी हो सकते है, साँख्ययोग की शिक्षा देते है। साँख्य का अर्थ है- ज्ञान का सिद्धांत परक पक्ष व्यवहार में लाने की शिक्षा देने वाला योग। साँख्ययोग के विषय में कइयों की भ्रांतियुक्त मान्यताएँ है कि यह संन्यासियों के लिए वैरागियों के लिए है, किन्तु वास्तविकता यह है कि यह जीवन विज्ञान की आधारशिला है-योग की इमारत साँख्य पर ही रखी गई है। साँख्ययोग बताता है कि हमें अपने अंदर की विभूतियों को कैसे जाग्रत करना चाहिए कैसे ईश्वर को सही रूप में समझ उसका अस्तित्व हमें स्वीकार करना चाहिए एवं कैसे सामान्य जीवन जीते हम ही हम स्थितप्रज्ञ की भाँति, परमहंस की भाँति जीवन बिता सकते है। यह योग हर अवस्था में हम व्यक्ति पर युवा विद्यार्थी गृहिणी सद्गृहस्थ, जिज्ञासु-साधक सभी पर लागू होता है। इस कारण गीता में इस अध्याय का बड़ा माहात्म्य बताया गया है।

यहाँ यह प्रसंग गुरु-शिष्य के मध्य होने से एवं प्रथम वार्तालाप की दृष्टि से बड़े महत्व का है। प्रत्येक गुरु शिष्य को तीन ही बातें बता सकता है-पहला कर्तव्य क्या है दूसरा कर्तव्य करते हुए ईश्वर में विलय हो जाना ही श्रेयस्कर है एवं तीसरा स्वयं का प्रमाण प्रस्तुत कर गुरु यह बताता है कि एक आदर्श व्यक्ति का मॉडल कैसा होता है स्थितप्रज्ञ कैसा होता है। इसे इस प्रकार से भी विभाजित कर सकते हैं-

देहातीत आत्मा का भान-जिसकी बारहवें श्लोक में व्याख्या आयी है, करते हुए यह जानना कि कर्तव्य क्या है। देह से ऊपर चलकर आत्मा को समझने का हम प्रयास करें।

देह से स्वधर्म आचरण-कर्तव्य को करके उसके पार जाना। कर्म को करके उसके पार जाना। कर्म करते हुए नैर्ष्कमण्यता की स्थिति में जाना। इसकी व्याख्या इकतीसवें श्लोक एवं उसके बात आई है।

स्थितप्रज्ञ की व्याख्या

जो आत्मा को जान जाता है उससे ऊपर पहुँचा जाता है, उसका जीवन कैसा होता है। यही पर स्थितप्रज्ञ के लक्षण भगवान ने पचपनवें श्लोक से अंत तक बताए है।

इस प्रकार इन तीन विभाजनों में अर्जुन रूपी शिष्य को गुरु श्रीकृष्ण का वह संदेश है, जो युगों - युगों से मानव समुदाय का जिज्ञासु साधकों का मार्गदर्शन करता रहा है।

अर्जुन का धर्म यह नहीं है कि वह भिक्षा माँगकर निर्वाह कर ले। अर्जुन यदि अज्ञातवास भी गया है तो भिक्षा नहीं माँगी है उसने पुरुषार्थ ही किया है। क्षात्रधर्म का पालन करने वाला व्यक्ति अर्जुन यदि भिक्षा माँगकर जीने की बात कहता है तो अर्जुन को लताड़ एवं साँख्ययोग के रूप में वास्तविकता का, स्वधर्म आचरण का तथा देहातीत आत्मा की अनुभूति का ज्ञान मात्र योगेश्वर कृष्ण ही दे सकते हैं। यहाँ अर्जुन को शिष्य मानते हुए गुरु के रूप में श्रीकृष्ण की स्थिति समझना बहुत जरूरी है। यहाँ गुरु के रूप में भगवान स्वयं मौजूद हैं।

“स्वयं भगवान हमारे गुरु- परम सौभाग्य हमारा है यह गीत हम गुनगुनाते हैं। यदि इसे वर्तमान स्थिति में अपने जीवन पर लागू करके देखें तो गीता का यह प्रसंग भली-भाँति समझ में आ सकेगा। गुरु के रूप में चमत्कारी व्यक्ति को तो स्वीकार कर लेते हैं लोग किन्तु जिसने सद्गुरु के रूप में भगवान के रूप स्वीकार किया है ऐसे गिने चुने है। अर्जन के जीवन की यह सबसे बड़ी घटना है कि वह शिष्यस्तेडहं शाधि माँ त्वाँ प्रपन्नम् के रूप में भगवान को सद्गुरु के रूप में स्वीकार कर लेता है व कहता है कि क्योंकि मैं आपका शिष्य है कि इसलिए शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।”

परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में भी उनके द्वारा जलाए दीप में से सूक्ष्म शरीरधारी मार्ग दर्शक सत्ता हिमालय से आकर प्रकट हुई व उन्हें उनके गुरु के रूप में अपना परिचय दिया। स्वयं पूज्यवर ने लिखा है- प्रातः क उपासना चल रही थी वसंत पर्व का दिन था। ब्रह्ममुहूर्त में कोठरी में ही सामने प्रकाशपुँज के दर्शन हुए। आँखें मल कर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं।...........प्रकाश के मध्य में से एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा, सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी पर वह प्रकाशपुँज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य ..................वे बोले यह तुम्हारा दिव्य जन्म है। तुम्हारे विगत जन्मों की तरह इस जन्म में भी हम सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह कराएँगे जो समय की दृष्टि से आवश्यक हैं। सूक्ष्म शरीरधारी होकर जो काम नहीं करा सकते- वह तुमसे कराएँगे.........समर्पण ने उसी दिन प्रकाशपुँज देवात्मा को कर दिया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक वरन् भगवान के समतुल्य माना। इस संबंध निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष से अधिक होने को आते हैं ( तब, सन 1974 में) बिना कोई तर्क बुद्धि लडात्राए बिना कुछ नननच किए, उन्हीं के इशारे पर एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही हे। उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप व विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया थी। चलाया ही नहीं हर प्रयास को सफल भी बनाया।

हमारी वसीयत और विरासत,

उपर्युक्त प्रसंग सद्गुरु की प्राप्ति क संदर्भ में बताया गया ताकि हम सभी प्रेरणा ले सकें-गीता के दूसरे अध्याय क इस प्रसंग से। जो व्यक्ति बुद्धि नहीं भावनाओं के तल पर जीता है, उसका समर्पण समग्र होता है एवं उसके आत्मिक विकास की अनंत संभावनाएँ होती है। हम स्वयं अपने गुरु के प्रति समर्पण को इस परिस्थिति को सामने रख परखने का प्रयास करें। अर्जुन कहता है कि मैं अपने दिलों दिमाग पर छाई सम्मूढ़ता किंकर्तव्यविमूढ़ता से इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए अब आपकी शरण में शिष्य बनकर आना चाहता हूँ। अब डोर श्रीकृष्ण के हाथों सौंपने में ही कल्याण है, यह समझ गया है, अर्जुन। इसी कारण इस श्लोक में उसका शरणागत भाव तीव्रतम वेग से उभरकर आया है।

नरेंद्रनाथ के जीवन में दो बार ऐसे क्षण आए, अब उन्होंने अपने भावी गुरु -अपने आराध्य ठाकुर को देख लिया किन्तु सद्गुरु के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए। एक बार तब जब रामचंद्रदत्त के यहाँ ठाकुर के उद्बोधन के समय गीत गाया था व उनके हाथों मिठाई भी खाई थी। दूसरी बार तब जब अपने प्रोफेसर हैस्टी के माध्यम से उनकी जानकारी मिली व उन्हें देख भी आए। तब भी साधारण मानव ही समझा था उन्हें। गए तब, जब भगवान के दर्शन की आकुलता-व्याकुलता ने इतना ज्यादा बेचैन कर दिया कि घर बैठे रहा नहीं गया तब जाकर प्रश्न पूछकर जवाब मिलने पर कि भगवान कैसा होता है व कैसे देखा जाता है - उन्होंने यह पहचाना था कि ये गुरु मेरे हैं। एक पागल सा व्यक्ति परमहंस है, यह उस दिन समझ में आया था उन्हें। सद्गुरु के रूप में भगवान को वरण करना एक बहुत बड़ी असामान्य घटना है, हर किसी के जीवन की। गुरु को हम ज्ञानी संत अभिभावक, संबंधी समाज सुधारक अथवा चमत्कारी पुरुष के रूप में भगवान को वरण करना एक बहुत बड़ी असामान्य घटना है हर किसी के जीवन की। गुरु को हम ज्ञानी संत अभिभावक, संबंधी समाज सुधारक अथवा चमत्कारी पुरुष के रूप में मान बैठते है, परंतु गुरु के रूप में सद्गुरु का वरण कर उसकी शरणागत नहीं जाते। जिस दिन यह हो जाता है, उसी दिन से क्राँति का शुभारंभ हो जाता है कहा गया है।

वंदे बोधमयं नित्यं गुरुंशकररूपिणम्।

गुरु शंकर का स्वरूप है-महाकाल है। हम उस गुरु रूपी शंकर रूपी परम चेतना के एक कण बन जायें नित्य उसकी वंदना करें तो हम भी उसकी अनुकंपा के अधिकारी बन सकते है। बिना उस परम चेतना का अंश बने- आत्मसंताप की स्थिति में पहुँचे हमारा कल्याण नहीं है। इस श्लोक की व्याख्या इस बड़े परिप्रेक्ष्य में समझना इसी कारण बड़ा महत्वपूर्ण है कि इसमें शिष्य बनकर सब कुछ पा लेने के सूत्र छिपे पड़े हैं अर्जुन (7/12) कह रहा है-

यच्छेयः स्यान्निश्चतं बूहि तन्मे। शिष्यस्तेडहं शाधि माँ त्वाँ प्रपन्नम्॥

अर्थात्- “जो भी साधन मेरे लिए निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए। गीता का पाठ करना आसान है पर गीता के मर्म को समझना और गीता को दुग्ध की तरह (सुधीर्भेक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्) अमृत मानकर और भी मुश्किल काम है। यदि हम प्रस्तुत श्लोक को समझ कर अपना ही आत्मावलोकन कर सकें कि हमारी उमंगों, अकुलाहट अभीप्सा प्राप्त करने की उत्कंठा में कोई कमी तो नहीं आ गई तो हम शिष्य के नाते अदृश्य सूक्ष्म रूप में विद्यमान गुरुसत्ता से वह सब कुछ पा सकेंगे जो एक आदर्श शिष्य को मिलना चाहिए। “इक्कीसवीं सर्दी उज्ज्वल भविष्य” हमारे गुरु का नारा है व हमें का नारा है व हमें उस पर यदि पूरा विश्वास है तो हमें परेशान तनिक भी नहीं होता चाहिए एवं अपने पुरुषार्थ में कोई भी कमी नहीं करते हुए उसे लाने हेतु आज ही तत्पर भी हो जाना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने कहा था कि जो शान्तिकुञ्ज में रहने वाले कार्यकर्ता हैं, यदि सन 2000 तक भी मेरे साथ गाड़ी खींच ले गए, जो बाहर हैं, वे मेरे विचारों से जुड़े रह कर प्रचार प्रसार करते रहें तो उनका निश्चित ही कल्याण हो जाएगा। सन 1967 की अखंड ज्योति पत्रिका के संपादकीय एवं 1970 में दिए गए प्रवचनों से लेकर 1973-1974 की अखण्ड ज्योति में यह आश्वासन पाया जा सकता है।

गुरु के प्रति वेदना जागे तो इसी स्तर की जो अर्जुन में उत्पन्न हुई जो कबीरदास में पैदा हुई, जो नरेंद्रनाथ व मूलशंकर में पैदा हुई एवं उन्हें क्रमशः स्वामी विवेकानंद एवं महर्षि दयानंद बना गयी। परमपूज्य गुरुदेव ने स्थान स्थान पर अपने गुरु के प्रति इसी वेदना को उजागर किया है। उनके लिखे एक एक वाक्य में समर्पण है। हमारी वसीयत और विरासत में पूज्यवर लिखते है कि शिष्य का जन्म होता युग धर्म के अनुरूप सौंपे गए दायित्वों को निभाने क लिए युगधर्म की अपनी महत्ता है। उसे समय की पुकार समझकर अन्य आवश्यक कार्यों को भी छोड़कर उसी प्रकार दौड़ पड़ना चाहिए जैसे कि अग्निकांड होने पर पानी लेकर दौड़ना पड़ता है और अन्य सभी आवश्यक कार्य छोड़ने पड़ते है। इसी युगधर्म की चर्चा श्रीकृष्ण अपने इस अति महत्वपूर्ण प्रसंग में कर रहे है। शिष्य एक कदम आगे बढ़ाता है तो गुरु दस कदम आगे बढ़कर उसे अपने गले से लगा लेता है। संपूर्ण गीता का मर्म प्रस्तुत प्रसंग में छिपा पड़ा है। इस अंक में अभी इतना ही। अगले अंक में परिजन पढ़ेंगे अर्जुन के कथन का उत्तर योगेश्वर श्री कृष्ण से। आठवें श्लोक में ही अर्जुन ने अपनी शरणागति भाव के प्रकटीकरण के बाद कहा है कि मुझे ऐसी शिक्षा दीजिए जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को भी दूर कर सके।” इस शोक को दूर करने हेतु जो भी कुछ उपदेश वासुदेव ने दिया है, वह साँख्ययोग आगामी अंक में।


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