हिमालय से अवतरित एक प्रज्ञापुरुष

January 1998

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उपासना-गृह में अखण्ड दीप प्रज्ज्वलित था। वर्षा से निरन्तर जल रहे इस दीपक की ज्योति इस साधक को आत्म ज्योति बन चुकी थी, जो ब्रह्ममुहूर्त के इन क्षणों में इस सिद्ध ज्योति के सम्मुख ध्यानस्थ। उसके चैतन्य में सर्वमयता स्थिर हो गयी थी। अहम् इदं के मध्य जो आच्छादित था, दूर हो गया। साधक के कण-प्रतिकण में अणु गैस परमाणु में व्याप्त अव्यक्त सुनाई पड़ने लगा। कभी तो भेरी बजती, कभी मृदंग, कभी वीणा, कभी शंख ध्वनि होती और कभी सब मिलकर वाद्ययन्त्र से अलौकिक स्वर उपजते। उसे अपनी चेतना सर्वत्र अणु-परमाणुओं के विद्युत कणों के नृत्य और घूर्णन अनुभव होने लगे।

ध्यानस्थ योगी के पिण्ड में अस्यकान्मणियाँ सक्रिय हो गयीं। उसके सहस्रार चक्र में कण-कोशिकाएं और कोष्ठक विद्युत की सतत् गति से इंद्रियातीत अनुभवों, दृश्यों, सुगन्धों, स्पर्शादि की सृष्टि करने लगे। उसके हृदय कमल के कुछ ऊपर स्थित सौषुन्न ज्योति मिलती और पृथक हो जाती। फिर से सूक्ष्म होकर सिमटकर बिन्दु रूप हो जाती और वे ज्योति बिन्दु तथा ध्वनि उस साधक के चिदाकाश में नक्षत्रों ओर खद्योंतो से चमकते। उसे एक बारगी समूचा ब्रह्माण्ड अपने भीतर विद्युत बिन्दु और अनाहतनाद के रूप में अनुभव होने लगा।

उसकी चेतना अब मूल नाद और बिन्दु के रूप में क्रीड़ारत हो गयी थी और भेद-ग्रन्थि खुल गयी थी। कुण्डलिनी अब मधुर चित्रिणी या सुषुम्ना में विचर रही थी, यह मधुर कूँजन करने लगे, चिन्मय शून्य रूप सिक्ख का साधारण कर वह कुल शक्ति स्वाभायमान हो गयी और साधक अपनी साधुता के उच्चतम स्वपान पर कैलाश शिखर पर जा बैठा।

दिव्य दर्शन के इस क्रम अचानक उसकी चेतना में एक आह्म्रन गूँजने लगा। अंतर्चक्षुओं के सामने हिमालय के पर्वत शिखरों की श्रृंखला उभरने लगी। इस श्वेत धवल शिखरों के मध्य एक ज्योति पुंज प्रकट हुआ। जिसने शनैः-शनैः एक महायोगी का रूप ले लिया। इस महायोगी की दिव्य छटा उसकी चिर-परिचित थी। यही तो थे, उसका मार्ग दर्शक, जन्म-जन्मान्तर के पथ-प्रदर्शक उसकी श्रद्धा-भक्ति का साकार विग्रह, इसके हृदय धन दिव्य गुरु इस छवि को निहारते हुए उसकी समग्र चेतना उसके चरणों में लीन होने के लिए आतुर-आकुर हो उठी।

साधक की इन भावनाओं की प्रतीति उन दिव्य देहधारी को हुई। उनके होठों में हल्का-सा, किन्तु वात्सल्य पूर्ण भावों से भरा-स्मित झलका। इसी के साथ वह कुछ कहने को हुए, उनके स्वर साधक की समूची चेतना में समग्र सत्ता के प्रत्येक अणु-परमाणु में गूँजने लगे-‘ आज तुम्हारी साधना पूर्ण हुई,वत्स! अब तुम्हें लोक सेवा के महाकार्य का शुभारंभ करना है। इसके मार्ग दर्शन के तुम्हें देवात्मा हिमालय के आँगन में आना होगा। हिमालय के हृदय-क्षेत्र में पहुँचकर तुम वहाँ निवास करने वाले सप्तऋषि, दिव्यदेह समर्थ सत्ताओं और सृष्टि की संचालक देव शक्तियों के दर्शन कर सकोगे। उनका अनुग्रह और आशीष ही तुम्हें अपने कार्य के लिए बल देगा, तुम्हें समर्थ बनायेगा। “

“ ध्यान रहे वत्स, ऋषि सत्ताओं का निवास स्थलीय, हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र सब तरह गुह्य और अलौकिक है। सामान्य मानव तो क्या अतिश्रेष्ठ एवं समर्थ साधक भी यहाँ तक नहीं पहुँच सकते। इस दिव्य क्षेत्र के प्रवेश द्वार तक तुम पहुँचने की तैयारी करो, शेष मार्गदर्शन तुम्हें वही मिलेगा। अब विलम्ब न करो आयुष्मान्! अपनी यात्रा प्रारम्भ करो “ इन शब्दों के साथ ही गुरुमूर्ति ओझल होने लगी। अन्तः की गहराइयों में डूबी चेतना शनैः शनैः बहिर्मुख होने की ओर अग्रसर हुई। कुछ पलों के बाद नयन उन्मीलित हुए। सामने अखण्ड दीपक की लव का मन्द-मन्द प्रकाश उपासना गृह की इस छोटी-सी कोठरी में हिमालय का संचार कर रहा था। एक अलौकिक सुगन्ध और अद्भुत आभा अभी भी वहाँ बिखर रही थी। साधक ने उस सिद्ध ज्योति को अपने समर्थ गुरु की प्रत्यक्ष मूर्ति मान बड़ी भक्तिभाव से प्रणाम किया और उठ खड़ा हुआ। आखिर अब उसे अपनी हिमालय-यात्रा की तैयारी जो करनी थी। हिमालय-यात्रा के लिए अपने गुरुदेव का आदेश पाकर साधक का मन अतिशय पुलकित और प्रफुल्लित था। उसके मुख पर छायी प्रसन्नता की दीप्ति से ऐसा लग रहा था, मानव उसके सर्वस्य मिल गया।

वेदों-शास्त्रों पुराणों में पढ़े-सुने गये ऋषिवाणी के दर्शन और उनके अनुग्रह-आशीष की बात उसे रोमाँचित कर रही थी। गृहजनों एवं परिजनों को उसने अपनी हिमालय यात्रा की बात बड़ी हिचकिचाहट से बताई। उसे कहीं मन के किसी कोने में आशंका हो रही थी कि शायद ये सब मना कर दें। परन्तु आज तो जैसे सबके सब किसी अदृश्य शक्ति के सम्मोहन में बन्धे थे। उन्होंने ने आज्ञा ही नहीं दी, प्रसन्नता पूर्वक यात्रा की तैयारी में अपना सक्रिय योगदान दिया। गाँव-पुर-नगर छोड़ते हुए उसने अतिशीघ्र देव आत्मा हिमालय के हृदय क्षेत्र के प्रवेश द्वारा पर कदम रखे। उत्साह के अतिरेक में उसे यही ने पता चला वह कितने समय में यहाँ आ पहुँचा है। बस वह ध्यान की गहराइयों में देखी गयी दृश्यावली को अपने सामने जीवन्त पाकर अभिभूत हो गया। अपने बढ़ते पावों के साथ उसने देखा कि सामने एक पहाड़ी गाँव है। गाँव यानि कि भूरे रंग की कुटियों का समुदाय। तीन हजार गज से भी अधिक ऊंचाई पर हिमाच्छादित शिखरों से घिरी हुईं यात्रियों की पर्वतीय मार्ग स्थित अन्तिम धर्मशाला।

बस्ती के कुछ दूर नदी के किनारे एक साधु खड़ा था। अपने पर्णकुटी के पास खड़ा व शायद प्रातः अरुणित सौंदर्य के दर्शन कर रहा था। ढलानों पर हरियाली फैली थी। ऊंचे देवदारों वृक्षों के जंगल में 1-2 ग्रामीण जन लकड़ियां बटोर रहे थे। कुछ पक्षी इधर-उधर चहकते, दिखायी-सुनायी दे रहे थे। नदी का प्रवाह अच्छी तरह से सामने था। उपत्यिका में स्थान-स्थान पर विविध आकार के शिला प्रखण्ड बिखरे पड़े थे। हवा शीतल स्निग्ध और उत्साहवर्धक थी। साधु ने उगते हुए सूरज की दिशा में अपने मुख को किंचित ऊपर उठाये हुए हाथ जोड़ दिये। सूरज-अभ्यर्थना के वैदिक स्वरों को गूँज-‘ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’ के अक्षरों के रूप में पर्वत शिखरों ध्वनित हो उठी।

ऊषाकाल समाप्त हुआ। प्राची के शिखरों पर सूर्योदय की स्वर्णिम आभा फैल गयी। अपनी पर्णकुटी से वह महिमावन्त साधु नदी की ओर चल पड़ा। शायद उसे किसी के आगमन की प्रतीक्षा थी। आत्म निर्भर सबल और ऋजु-पदन्यास उसकी गरिमा के परिचायक थे। तपःपूत ऋषि के अलावा ऐसी उन्नत धारण-शक्ति कहाँ सम्भव? ऊंचा कद विशालभाल और कमर तक पहुँचता लहराता केश-कलाप। ज्योतिर्मय कृश शरीर, शाँत और प्रसन्न मुद्रा पर फैला हुआ तेजोमय आनन्द दर्शन मात्र से सारी शंकाओं का समाधान करता हुआ अनिवर्चनीय शाँत भाव। आयु का अनुमान लगाना कठिन परन्तु शारीरिक गठन से लगता था कि आयु साठ के आस-पास हो।

नदी से अपने जलपात्र को पूर्ण करके ऋषि अपनी कुटी में लौट आए। जलपात्र एक कोने में रखकर दरवाजे से झाँकने लगे। क्षणमात्र उनके चेहरे पर एक विशेष उल्लास का भाव उमड़ आया। कुटी से बाहर आकर देखा कि झोपड़ी के पीछे की ढलान पर एक युवक उतर रहा है। थोड़ी ही देर में आगन्तुक नजदीक आ पहुँचा। बड़े आदर-भाव से लेकिन विस्मय के साथ उसने ऋषि के चरण-कमलों पर मथा टेक दिया। मुँह न खोलते हुए ऋषि ने स्वीकृति का हुँकार भर दिया। आगन्तुक खड़ा हो गया। उसकी आंखें चमक रही थीं, होंठों पर मधुर मुसकान थी। मुख-मण्डल निखर रहा था।

प्रदीर्घ पैदल प्रवास की थकान उनके चरणों में माथा रखते ही पल भर में लुप्त हो गयी और वह किंचित् विह्वल भाव से थी। मौन भंग न करते हुए ऋषि एक साफ-सुथरे पत्थर पर बैठ गए। उन्होंने नवागत को सामने के शिलाखण्ड पर बैठने का संकेत किया। उसके बाद शब्द सुनने को मिले।

तो आयुष्मान्। तुम आ पहुँचे। ऋषि का संतोष शब्दों में प्रकट हो रहा था।

गुरुदेव! आप जानते थे कि मैं आ रहा हूँ।

साधक के इन स्वाभाविक प्रश्नों का उत्तर देना ऋषि को आवश्यक नहीं लगा। उन्होंने कहा, पहले स्नान करो। कुछ खाओ और आज दिन भर आराम करो। यह कहकर वे एक ओर चल पड़े। चलते-चलते उन्होंने साधक की ओर स्नेह भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, जो जन्म-जन्मान्तर से गुरु और शिष्य रहे हैं, उन्हें कुशल-प्रश्न आदि औपचारिक बातों की आवश्यकता नहीं होती।

गुरु की इस सघन कृपा को स्वयं पर अनुभव कर नवागत के मुखमण्डल पर विस्मय और संतुष्टि के भाव उभर आए। उसका काष्ठ गदगद हो गया। आँखों में आनन्दाश्रु आ गए। अनिवर्चनीय आनन्द से उसने आंखें मूँद लीं। कपोलों पर आँसू झरने लगे। अतीव आदर-भाव से अनायास हाथ जुड़ गये। सहजतया माथा झुक गया। वह अपने को सँभाल नहीं सका और सहसा गुरु के चरणों पर गिर गया। गुरु ने दाहिना हाथ उसके माथे पर रखा और आशीर्वाद देकर धीमी गति से निकल गए।

अनादि और अनन्त काल की गरिमा को संजोता हुआ दिन तालबद्ध गति से आगे बढ़ने लगा। हिमाच्छादित शिखर चमक रहे थे। निरभ्र नीले आकाश में दो कौए एक उपत्यिका से दूसरी तक उड़ते हुए दिखाई दिये। नदी में बहते हुए पानी की ही केवल ध्वनि वाणी सुनायी देती थी। निर्मल पानी उसे आकृष्ट कर रहा था, मंत्र-मुग्ध कर रहा था। स्वस्थ हृदय से प्रकृति के सौंदर्य को समाहित कर लेने का संकेत कर रहा था। मार्गदर्शक के बताए इंगित एक ल् एक करके निबटाता गया। होते-होते दिन ढल गया। संध्या समय की निःस्तब्धता फैल गयी।

अस्ताचल से एक बार दिनपति ने जगती को देखा और उनके विराग की छाया सम्पूर्ण धरातल पर विस्तीर्ण हो गयी। सम्पूर्ण हिमाच्छादित गिरि-शिखर-गौरिकवर्णी वीरांगी संन्यासी के वेश में परिवर्तित हो गये। तरु-वीरुध एवं लताओं ने भी उसी वर्ण को अपना लिया। प्रत्येक शिला रंग गयी उसी रंग में। पक्षियों ने दिशाओं में मंत्रपाठ प्रारम्भ किया और इसी समय गगन से धुनी हुई रुई के समान अस्त होते सूर्य की किरणों में रंगी हिम इस प्रकार गिरने लगी, जैसे आकाश से गेरू की वर्षा हो रही हो। उसने भी इशारे में बताए हुए स्थान पर सोने का उपक्रम किया।

दूसरे दिन उसने वहीं बहते निर्झर में स्नान किया- सन्ध्यावन्दन भी। जीवन में उसने पहली बार ब्रह्मकमल ऐसा, जिसकी सुगन्ध थोड़ी देर में ही नींद कहें या योगनिद्रा ला देती है। देवकन्द वह जो जमीन में शकरकन्द की तरह निकलता है। उस दिन सुबह से ही आकाश में इधर-उधर कुछ मेघखण्ड जमा हो रहे थे, लेकिन उससे सूर्य प्रकाश में आवरण उत्पन्न नहीं हो रहा था और फिर हिमप्रदेश में जितनी मात्रा में मिले उतनी धूप भी अनुग्रह समान थी।

यह दिन भी वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने, उसी में परमसत्ता की झाँकी देखने में निकल गया। पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढला और रात्रि आ पहुँची। परावाणी में निर्देश मिला-समीपस्थ एक निर्धारित गुफा में जाकर विश्राम करने का। संकेत था-उस रात्रि में गुरुदेव के दर्शन होंगे और सचमुच उस रात्रि को गुफा में गुरुदेव सहसा आ पहुँचे। पूर्णिमा थी। हिमपात भी अधिक नहीं हो रहा था। चन्द्रमा का सुनहरा प्रकाश समूचे हिमालय पर फैल रहा था। उस दिन उसे ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर तक बर्फ के टुकड़े तथा बिन्दु बरस रहे थे, वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानो सोना बरस रहा है। उन महान ऋषि के आ जाने से गर्मी का एक घेरा उसके चारों ओर बन गया, अन्यथा रात्रि के समय इस विकट ठण्ड और हवा के झोंकों में साधारणतया निकलना सम्भव न होता। दुस्साहस करने पर इस वातावरण में शरीर जकड़ सकता था। उसकी आत्मा कह रही थी कि वह पुण्य घड़ी आ गयी, जिसके लिए उसे बुलाया गया था। गुरुदेव ने मौन रहकर ही उसे इंगित किया, और वह चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। आश्चर्य! उसे सचमुच महान आश्चर्य हुआ कि उसके पैर जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे थे। आकाशगमन-अंतरिक्ष में चलने की यह सिद्धि उसे अनायास ही गुरुकृपा से प्राप्त हो गयी थी। उसे अनुभव हो रहा था कि उन बर्फीले ऊबड़-खाबड़ हिम-खण्डों पर चलना इस आश्चर्यजनक क्षमता के बिना कठिन ही नहीं शायद असम्भव भी होता।

वह एक साधारण गौरवर्णीय युवक था। अवस्था शायद सैंतीस-अड़तीस की रही होगी। सुन्दर कहा जा सकता। त्वचा में कोमलता के साथ सात्विक तेज की मनोहारी झलक थी। चेहरे पर दाढ़ी हल्की-हल्की बढ़ गयी थी। उससे परिपक्वता का स्पष्ट आभास हो रहा था, केश अधिक बढ़े नहीं थे, तो भी कन्धों को छूने लगे थे। मुखमण्डल को देखकर उसकी पारदर्शी सच्चाई निष्ठा और निग्रह को कोई परख सकता था। होंठों पर सदैव सत्य विराजमान था। लगातार उपवास एवं कठोर तपश्चर्या के बावजूद भी शरीर सुदृढ़ था। कष्ट उठाने से थकावट होते हुए भी वह ओजस्वी था।

अपने मार्गदर्शक के पीछे-पीछे वह काफी समय तक चलता रहा। अद्भुत था, यह चलना भी। उसके पदतल भूमि को स्पर्श न करते हुए आगे बढ़ रहे थे, वह नीचे देखना चाहता था, जिज्ञासा उसे बाध्य कर रही थी, लेकिन वह गर्दन झुका नहीं सका। कोई स्पन्दन शक्ति चमत्कारपूर्ण रीति से उसके देह को अधीन किए हुए थी। वह नित्य की तरह चल रहा था, लेकिन हवा पर शरीर बहुत हल्का-भारहीन लगता था। जैसे-जैसे वह आगे पदन्यास करता था, उसका शरीर तैरता हुआ आगे-आगे जाता था। अचानक उसका शरीर ऊपर की ओर जाने लगा और वह हिमाच्छादित पर्वतों की एक बाद अनेक उत्तुँग शिखरों को पार करते हुए वह दूर तक फैले सुविस्तीर्ण मैदान में अपने गुरुदेव के साथ ही उतर आया।

हिमशिखरों के बीच वह विस्तृत मैदान उसे अद्भुत लग रहा था वहाँ कोई सभा या विचार-गोष्ठी का आयोजन शुरू हो रहा था। श्वेत चमकदार और काफी बड़ी अलग-अलग सात शिलाओं पर सात महर्षि बैठे हुए थे। उन्हीं के पास मखमली भूमि पर अन्य दिव्य देहधारी ऋषि सत्तायें एवं देवशक्तियाँ विराजमान थी। उन सभी की देह से निकलने वाला प्रकाश समूचे वातावरण को उजास से भर रहा था। उसने देखा निरभ्र नीले आकाश में चन्द्रमा के नेतृत्व में सभी सभी तारे धरती और हिमशिखरों पर अपनी ज्योति- धाराएँ उड़ेलने में तत्पर थे। पास ही कहीं सरोवर के पानी कल-कल वातावरण को संगीतमय बना रही थी। और हिमालय के ऊँचे-ऊँचे बर्फ से ढके श्वेत-धवल शिखर-शाश्वत जाग्रत प्रहरी के नाते खड़े थे, पहरा दे रहे थे।

इन दोनों गुरु-शिष्य को देखकर सभी के चेहरों पर एक अनोखी चमक उभर आयी। ऐसा लगता जैसे सभी को इन्हीं की प्रतीक्षा गुरु ने स्फटिक शिलाओं पर बैठे ऋषियों से अपने शिष्य को परिचित कराया ये हैं सप्तऋषि मण्डल के सदस्य-गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप, और अत्रि। इन्हीं के मार्गदर्शन एवं नेतृत्व में अन्य दिव्यधारी ऋषिसत्ताएँ एवं देवशक्तियाँ सृष्टि की सूक्ष्म व्यवस्था का संचालन करती हैं। वत्स! यही है हिमालय का यथार्थ दिव्य रूप। यही है वे विभूतियाँ, जिनके कारण पर्वतराज हिमालय का यशोगान होता है।

गुरुवाणी सुनकर शिष्य चमत्कृत एवं कृत-कृत्य था, तभी सप्तऋषियों के समवेत स्वर उसकी चेतना उभरे- वत्स! तुमको हम सभी ने इसीलिए यहाँ बुलाया है। ताकि तुम हिमालय के दिव्य संदेश को मानव में प्रसारित कर सको, उसे सुना सको। यह वही हिमालय है जिसकी गोद में मानव ने प्रथम बार अपनी आंखें खोली हैं। इसी के आँचल की छाँव में मानव सभ्यता की शुरुआत हुई है। यही सबसे पहले वेदमंत्रों के स्वर गूँजे थे। इसी देवात्मा क्षेत्र में वे आविष्कार और अनुसंधान हुए, जिसे मानव को भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक उत्कर्ष दिया। इसी के आश्रय और सामीप्य से भारतवर्ष में स्वर्गादपि गरीयसी की महिमा पायी थी। भारतभूमि, देवभूमि एवं भारतवासी देवगण के रूप में विश्व विख्यात हुए थे।

परंतु आज से तो ...... आगे कुछ वह संकोचवश कह न सका।

हमें भारत एवं विश्व की वर्तमान परिस्थितियों की जानकारी है आयुष्मान्! नवसृजन के प्रेरक महर्षि विश्वामित्र कह रहे थे, वर्तमान समस्याएँ जो भी हैं एक-दूसरे से गुँथी हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा अणु-आयुधों का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी-आपदाएँ। सबसे पीछे इंसान की दुर्बुद्धि काम कर रही है। समाधान तभी सम्भव है जब मानवीय बुद्धि का शोधन हो।

मानवीय बुद्धि का शोधन? उसे महर्षि की बात अटपटी लगी हाँ आयुष्मान्! दूसरे शब्दों में विचारक्रान्ति। जिस गायत्री मंत्र की तुमने वर्षों साधना की है, वह यथार्थ में विचारक्रान्ति का ही मौलिक सूत्र है। मानवीय वृत्तियों एवं विचारों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाला मंत्र। सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन एवं दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का कारगर चिंतन समाया है इसमें।

सद्विचारों के साथ सत्कर्म का पाठ पढ़ाने के लिए मानव को यज्ञीय जीवन का मर्म-सन्देश देना होगा। “ महर्षि जमदग्नि का स्वर था- उसे ‘इदं म मम्’ का मर्म समझाना होगा।

परन्तु तर्कप्रवण एवं भोग परायण मनुष्य आज सद्विचारों एवं सद्ज्ञान को किस तरह स्वीकार करने के लिए तैयार होगा। साधक की बात में दम था। वह कह रहा था जब सभी “ यावद् जीवेत्-सुखम जीवेत्’ की रीति- नीति अपनाने में एक दूसरे से होड़ लगाये हों, ऐसे में त्याग की बातें भला उन्हें कैसे समझ में आयेंगी?

उसकी बात से उपस्थित ऋषि समुदाय सोच में पड़ गया। देव शक्तियाँ विराजमान हो गयीं। तब आखिर किस तरह सम्भव है। मानव-समाज का अभ्युदय?

कुछ पलों के अनन्तर सप्तमहर्षियों के मुख पर हल्की-सी मुस्कान थिरक आयी, वे कहने लगे-वत्स! सद्विचारों को उन्नत आदर्शों के साथ जन-जीवन के समक्ष प्रस्तुत करो। अतीत के महामानवों के जीवन को प्रेरणाप्रद घटनाओं का वर्तमान समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुतीकरण होने से जन-साधारण के अन्तः करण में आदर्शवादी मान्यताएं हुलसेंगी। वह उन्हें अपनाने के लिए अग्रसर होगा। सप्तऋषियों के इस विचार-मन्थन से समस्त ऋषि समुदाय एवं देवशक्तियाँ सहमति थीं। सभी को लग रहा था कि अतीत के महापुरुषों महादेवियों के गौरवशाली जीवन-प्रसंगों को देखकर जन भावनाएँ उद्वेलित-आन्दोलित हुए बिना न रहेगी। उन सभी के जीवन में आदर्श-परायणता, कर्तव्यनिष्ठा, राष्ट्रप्रेम, समाज-सेवा के तत्वों की अवश्य जाग्रति होगी।

सप्तमहर्षि उससे कह रहे थे-आयुष्मान्! गायत्री-मंत्र की सतत् साधना एवं गुरु के अनुग्रह ने तुम्हें प्रज्ञापुरुष बनाया है। अब तुम्हारी बारी है-तुम जन-जन की बुद्धि का शोधन करो, उसकी संवेदनाओं को जाग्रत कर उन्हें प्रज्ञापुत्र बनाओ। भावनाओं से ओत-प्रोत शुद्ध-बुद्धि ही तो प्रज्ञा है। ऐसी प्रज्ञावान आत्मायें ही मानव को उज्ज्वलभविष्य की राह दिखायेगी।

अपने मार्ग-दर्शक के साथ स्वयं वह भी इन दिव्य-ऋषियों का अनुग्रह एवं आशीष पाकर धन्य अनुभव कर रहा था। देवी-ऊर्जा से उसका शरीर आभामय हो गया। उसके नेत्रों में पहले से अधिक रहस्यात्मक तेज चमकने लगा। उसका धीर-गम्भीर मुखमण्डल अति तप्त सूर्य के समान चमकने लगा। शीतलता की अनुभूति नष्टप्राय हो गयी। सभी को भक्तिभाव से विह्वल मन से प्रणाम कर, वह अपने दिव्य गुरु के साथ वापस लौट गया।

कुछ ही समय में हिमालय के दिव्य क्षेत्र का प्रवेशद्वार आ गया। उसका गुरु मानो शिखर पर थे। प्रेरक मनः स्थिति में थे। कहने लगे वत्स! आज अलग होने से पहले में प्रास्थानिक संदेश देना चाहता हूँ। विश्वास रखो मानव की आत्मशक्ति अविनाशी है। उसका अमर्यादित विस्तार हो सकता है। उसका वैभव असीम है। एक दिव्य तत्व मानव देह में चेतना उत्पन्न करता है। वह तत्व हमारे अन्दर भी होता है और बाहर भी रहता है। वह शाश्वत परोपकारी रहता है। प्रत्येक व्यक्ति इसके अनुरूप जीवन-यापन कर अपने को वैभव प्रदान करता है और इसके विपरीत जीवनयापन कर अपना विनाश भी स्वयं कर लेता है। अब जाओ और अपने देशवासियों के सामने, समूची मानवजाति के सामने आदर्श महामानवों के प्रेरक चरित्रों को हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करो, ताकि वह आत्मविनाश से आत्मसृजन की ओर कदम बढ़ा सके। “ दिव्यगुरु के संदेश को शिष्य ने श्रद्धा से शिरोधार्य किया और उसके कदम हिमशिखरों से जनसंकुल की ओर लौट पड़े।


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