क्या दण्डस्वरूप मनुष्य को यातनाएँ दी जानी चाहिए? मनोवैज्ञानिकों का इस सम्बन्ध में सुनिश्चित मत है कि गलतियों को सुधारने का यह कोई ऐसा तरीका नहीं, जिसे सफल और सशक्त कहा जा सके। सच्चाई तो यह है कि अपराध की स्थिति में व्यक्ति को अपराध-बोध कराने की आवश्यकता है। यंत्रणाएँ उन्हें इस स्थिति तक नहीं पहुँचने देतीं, जिसमें वह अपने स्वभाव की समीक्षा कर सकें। इतने पर भी यातनाएं भिन्न-भिन्न देशों और कालों में सजा के रूप में दी जाती रही हैं।
यातनाओं का आरम्भ कब और कहाँ से हुआ-यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता, पर इतना अवश्य है कि उसका इतिहास अत्यन्त पुराना है। यों तो प्राचीनतम बैबीलोनियन और मोजेक के कानूनों में इनका उल्लेख नहीं मिलता, पर इतिहास साक्षी है कि बैबीलोनियन और हिब्रू लोगों ने भी युद्ध-बंदी बनाये और उन्हें यातनाएँ दी। परसियन और ग्रीक लोगों के अनुरूप ही सीरियन और मिस्त्रियों में इसका कानूनी प्रावधान था।
यातनाओं की आवश्यकता किसलिए पड़ी और मनुष्य-समाज ने इसे क्यों अपनाया? इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए बहुचर्चित ग्रन्थ ‘टाँर्चर्स थ्रू एजेज’ में लिखते हैं कि समाज परिवार का एक बृहत्तर रूप है। जब छोटे-से परिवार में अपने-अपनों के बीच मतभेद और मनमुटाव उभरते रहते हैं, तो समाज जितने बड़े आकार वाली संस्था में विद्वेष-वैमनस्य न हो, यह कैसे सम्भव है? जहाँ मानव होंगे, वहाँ लड़ाइयाँ भी होती हैं, और कुचक्र भी रचे जाते हैं, यंत्रणाएँ भी दी जाती हैं तथा प्रेम भी प्रदर्शित किये जाते है। आदमी की क्रूरता किसी एक कारण से है, साबात नहीं। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं। वे लिखते हैं कि कई बार इसका निमित्त मात्र निर्बलता होती है। सामने वाला कमजोर हो और दूसरा पक्ष सबल, तो अपना रौब गालिब करने के लिए वह कुछ भी अमानवीय कदम उठा सकता है। कितनी ही बार प्रतिद्वन्द्विता की परिणति पाशविकता के रूप में सामने आती है। वर्गविभेद और आर्थिक असमानता भी इसके मनोविनोद भी हो सकता है, जिसमें मनुष्य अथवा जन्तु को तड़पते-छटपटाते देखकर कर्ता को अपार सुख मिलता है। यह विकृत मानसिकता का लक्षण है। प्राचीन समय में आपराधिक व्यक्तियों के लिए भी इस प्रकार के कठोर दण्ड के राजकीय विधान के प्रमाण मिलते हैं।
यद्यपि आजकल कानून इसकी अनुमति नहीं देता और इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है, फिर भी चारी-छिपे ऐसे रास रचे ही जाते रहते हैं। संतोष इतना ही है कि वे पुराने जमाने जितने नृशंस एवं लोमहर्षक नहीं होते है। यातनाओं के उल्लेख का सबसे प्रथम प्रमाण ग्रीक इतिहास में मिलता है, जिसमें बताया गया है कि तब अपराधियों से सच्चाई उगलवाने के लिए ही इनका इस्तेमाल किया जाता था, किन्तु यंत्रणाओं का जन्मकाल इसे नहीं माना जा सकता, कारण कि इससे भी प्राचीन बैबीलोनिन सम्यता कि दौरान भी ये प्रचलन में थी। ग्रीस में यद्यपि गुलामों और युद्धबन्दियों को ही ऐसे पैशाचिक दण्ड दिये जाने का नियम था, लेकिन यदा-कदा गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाया करते थे और सर्व-साधारण भी कई बार इस कुचक्र में पड़कर मौत में मुँह में समा जाते है। उस समय यूनान में तीन प्रकार के यातना-यंत्र प्रचलित थे-’व्हील’ ‘रैक’ ‘साँड’।
इतिहास कार फ्लेवियस ने एक स्थान पर लिखा है कि हृील यातना-यंत्र का उपयोग 200 वर्ष ईसा पूर्व में सीरियनों ने मैकावियाँ युद्ध में दौरान सर्वप्रथम किया था जिस किसी को दण्ड देना होता, उसे इस वृहदाकर चक्के से बाँध दिया जाता। हाथ और पैर आमने-सामने दो खम्भों से कसे होते, फिर पहिये को घुमाकर दोनों अंगों को काया से पृथक् कर दिया जाता, तदुपरान्त उसकी खाल खींच ली जाती। यंत्र के नीचे आग धधकती रहती। वह आग शरीर से बहने वाले रक्त से बुझ जाती।
फ्लेवियस ने एक यहूदी बालक को मिले इस दण्ड का रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन किया है। उसका दोष मात्र इतना था कि उसे जो निषिद्ध माँस का टुकड़ा यंत्र ही अधिक उपयोग में आते थे। रैक का यदा-कदा और यत्र-तत्र ही प्रयोग होता था। इसकी चर्चा अरिस्तोफेन, एनाक्रियन एवं लूसियन जैसे तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में की है। दण्ड देने के उपरोक्त तीन तरीकों के अतिरिक्त एक अन्य वीभत्स उपाय भी अपनाया जाता। इस सम्बन्ध में लूसियन ने लिखा है कि एक बार एक लड़की को पकड़ा गया। उसको एक मरे गधें के पेट में सिल दिया गया। सिलाई ऐसी की गई कि उसका सम्पूर्ण शरीर मृत जानवर के अन्दर रहे और केवल सिर ही बाहर निकला रहे। बाद में उसे एक रेगिस्तान में छोड़ दिया। मृत्यु देने वाले उसकी पीड़ा और छटपटाहट से आनन्दित हो रहे थे। गधे के भीतरी अवयव सड़ने गले, उसमें कीड़े लग गये थे, बाहर उससे भीषण बदबू आ रही थी। लड़की बेचारी असहायों और अपंगों की तरह चीख-चिल्ला रही थी। उसके हाथ-पैर सब कुछ थे पर किसी काम के नहीं, वह गधें के पिंजन में कैद थे। चिलचिलाती धूप उस पर अग्नि-वर्षा कर रही थी, पर वह एकदम विवश भी, अपीन सुरक्षा तक नहीं कर सकती थी। गिद्ध, लोमड़ी उसके माँस नोचते, किन्तु वह तो मानो अस्थिमज्जा से बनी प्रतिमा की तरह गधे की उदर-पीठिका में प्रतिष्ठित थी। लाचारी मौत को निमंत्रण दे रही थी और दुर्भाग्य अपनी किस्मत पर रो रहा था। वह देख सकती थी, सोच सकती थी, समझ सकती थी, लेकिन कर कुछ भी नहीं सकती थी, केवल मृत्यु को निकट आते अनुभव कर रही थी। यह कहर उस स्थिति की रोमाँचक अनुभूति कर सकें।
यूनानियों का दूसरा यातना-यंत्र था- पीतल का साँड़। यह धात्विक साँड़ भीतर से पोला था। इसके पोले पेट में एक दरवाजा खुलता था। वास्तविक जन्तु की तरह उसमें मुँह और नासारन्ध्र भी थे। इसके रचनाकार के बारे में कहा जाता है कि वह एथेन्स निवासी पेरिलस नामक एक व्यक्ति था और वहाँ के सम्राट फालारिष को प्रसन्न करने के लिए यह अद्भुत उपकरण बनाया था। कहते हैं कि इसकी परीक्षा के लिए स्वयं निर्माता को ही इसमें भून डाला गया, इसके पश्चात् ही राजा ने आम यातना के लिए इसकी स्वीकृति दी। उत्पीड़न के लिए व्यक्ति को साँड़ के पेट में बन्द करके नीचे से आग जला दी जाती थी। धातु के गर्म होते ही अन्दर कैद व्यक्ति बुरी तरह चीखता था और चिल्लाते-चिल्लाते मर जाता था। अनेकों को मौत के घाट उतारने वाले राजा के भी इसी साँड़ ने लिए।
रोमनों की युक्ति कुछ भिन्न थी। वे प्रताड़ित करने के लिए विशेष प्रकार के कोड़ों का प्रयोग करते। इन कोड़ों को बिच्छू कहा जाता। इनमें लोहे के काँटे और कील बँधे रहते। कभी-कभी इनकी जगह चिमटे भी ले लेते।
सजा देने के लिए रोमनों के पास एक अन्य साधन भी था। यह लकड़ी का एक घोड़ा था उसकी पीठ पर हाथी जैसा एक हौदा बना रहता। इस पर पीड़ित व्यक्ति बैठता। घोड़े के दोनों ओर दो खम्भों पर चरखी लगी थी। उसके ऊपर से एक रस्सी डाली जाती। इससे अभियुक्त के हाथ-पैर बाँधकर चरखी के सहारे ऊपर उठाया जाता। इस यंत्रणा को बर्दाश्त कर लेने वाले के शरीर को लौह कंघे से विदीर्ण कर दिया जाता।
प्राचीन चीन में सबको एक ही डण्डे से हाँकने का रिवाज नहीं था। वहाँ अपराध की गुरुता और लघुता के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्पीड़न का निर्धारण था। छोटी गलती के पानस्ते (तलेवे पर छड़ी का प्रहार) जैसे छोटी सजा, जबकि गम्भीर अपराध के लिए लिगचे जैसा हृदयविदारक प्रावधान। यह यातना हत्या के दोषियों को दी जाती थी। इसमें आरोपी को सर्वप्रथम भोजन के साथ अफीम खिला दी जाती, उसके बाद उसकी लिगचे प्रताड़ना आरम्भ होती। इसमें धीरे-धीरे हम्यारे के सभी अंग काट डाले जाते, जिससे अन्ततः उसका प्राणांत हो जाता। सबसे पहले उसकी भौंह काटी जाती। व्यक्ति तड़पकर रह जाता। फिर दोनों कंधे पृथक् किये जाते, तत्पश्चात् वक्ष, इसके बाद कोनी से नीचे हाथ, तब कोहनी और कंधे के बीच का भाग, ग्यारहवें-बारहवें वार में दोनों जाँघों का माँस उतारा जाता, अगले बार में पैराँ की तली काटी जाती। अन्तिम पन्द्रहवाँ प्रहार उसके मर्मस्थल पर होता, जिसे बार उसी प्राण-चेतना शरीर छोड़ देती। यह आघात हृदय स्थल पर होता। तलवार उसमें वेध दी जाती। शेष प्रहार मृत-काया पर सम्पूर्ण किये जाते। चीन में लिंगचे की सजा अन्तिम बार सन 1920 में दी गई थी, तब से लेकर अब तक फिर उसे नहीं दोहराया गया।
मौत की यंत्रणा देने का एक दूसरा रास्ता भी था। भयानक काण्ड करने वाले चीनियों के लिए इसे अपनाया जाता। गाँक अर्थात् आदमकद ताम्बे का घण्टा। जिस किसी को दण्ड देना होता था, उसको इस घण्टे में कैद कर दिया जाता। पीछे एक आदमी बाहर से उसकी दीवार पर हथौड़े की चोट करता रहता। ध्वनि-तरंग-बार-बार बन्द व्यक्ति के सिर, कान, आँख एवं अन्दर के मर्मस्थलों से टकराती और उनकी रक्तवाहिनियों को फाड़कर रख देती है। इस प्रकार बन्दी रक्तस्राव के कारण मर जाता।
भीषण वेदना देने वाली एक अन्य यंत्रणा भी प्राचीन समय चीनी परंपरा में सम्मिलित थी। यह चूहे द्वारा दी जाती थी। दोषी को लकड़ी के भारी-भरकम लट्ठे से इस कदर कसकर बाँध दिया जाता कि वह तनिक-भी हिल-डुल नहीं सकें। अब एक विशेष प्रकार से बने पिंजरे में एक जंगली खूँख्वार चूहे को बन्द कर दिया जाता। पिंजरे के ऊपर एक बड़ी-सी कटोरी संलग्न होती। उसमें दहकते अंगारे भर दिये जाते। इसके बाद पिंजरे की तली का बन्द द्वारा खोल दिया जाता। आग के प्रभाव से लोहा गर्म होने लगता। जैसे-जैसे वह गर्म होता, चूहा कैद से निकल भागने के लिए इधर-उधर रास्ता ढूँढ़ता। उसे सिर्फ एक ही सम्भावना नजर आती-पेट की खाल काटकर उदर में घूस जाना। आदमी पीड़ा से तड़पता रहता और चूहा पेट में घुसकर खून चूसता रहता। इस क्रम में वह कई बार फेफड़े, यकृत एव हृदय तक को कुतर डालता। व्यक्ति निरीह बना सब कुछ सहता हुआ अन्त में मृत्यु की गोद में समा जाता। बर्मा में होने वाले अत्याचारों की जानकारी अंग्रेज पर्यटक हेनरी वाऊजर की कृति ए माँमेण्ट अमोंग बारबेरियन्य से मिलती है। उन्होंने लिखा है कि उन दृश्यों को देखकर ऐसा लगता था, जैसे हम आज भी जंगलियों की तरह ही हिंस्र और असभ्य है। वहाँ के कैदियों को उत्पीड़ित करने के लिए तत्कालीन समय में एक विशेष व्यवस्था बनायी गयी थी। उन्हें लकड़ी के एक लम्बे-चौड़े पटरे पर लिटाकर पहरेदार उन पर लकड़ी की कीलदार जूते पहनकर उछलते-कूदते थे। यह क्रम तक तक जारी रखा जाता था, जब तक उनकी हड्डियाँ टूट-टूटकर चूर्ण-विचूर्ण न हो जाएँ। सम्पूर्ण वातावरण में भयावह पैशाचिकता छा जाती और स्थान लहू से रक्तरंजित हो उठता।
वाऊजर लिखते हैं कि शारीरिक उत्पीड़न के साथ-साथ वहाँ पर मानसिक त्रास भी दिये जाते थे। इसके लिए एक बड़े पिंजरे में दो खाने बनाये जाते। पिंजरे की दोनों कोठरियों को पृथक् करने वाली दीवार एक अत्यन्त कमजोर जाली की बनी होती। इसमें एक और कैदी को रखा जाता और दूसरी ओर भूखी शेरनी कैद कर दी जाती। बन्दी यह सोच-सोचकर ही पागल हो जाता कि यदि बीच की जाली उसके धक्के से टूट गई, तो वह उसे अपना आहार बनाकर ही छोड़ेगी।
परतंत्र भारत में अँग्रेज सहित अन्य विदेश शासकों ने भी कोई कम कहर नहीं ढाये। इस सम्बन्ध में मद्रास पे्रसीडेन्सी में सन् 1855 में हुई कथित यातनाओं के जाँच-ब्यौरे का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। इस आयोग की रिपोर्ट ने लंदन- पार्लियामेण्ट को ही हिलाकर रख दिया था ओर सफाई में अँग्रेज अफसरों को कहना पड़ा था कि ऐसी यातनाएँ अंग्रेज मस्तिष्क की उपज नहीं, स्वयं भारतीय अधिकारियों की देन है। कहते हैं कि तब अंग्रेज विद्रोहियों के साथ बड़ी बर्बरतापूर्ण ढंग से बरताव करते थे। यंत्रणा के रूप में चिमटे से उनकी खाल उधेड़ दी जाती थी। बिच्छू एवं दूसरे जहरीले कीड़ों से अणुकोष आँख जैसे सुकोमल अंगों को कटवाया जाता, मूँछों में सहारे अधर में लटकाना, दम घुटने तक पानी में डुबोये रखना, गर्म लोहे से दागना, हाथ-पैर काट लेना, कमर से बाँधकर उलटा लटका देना, रक्त-संचार को रस्सी बाँधकर रोक देना जैसे कितने ही छोटे-बड़े कायिक कष्ट दिये जाते थे।
मुगल शासक इससे भी दो कदम आगे निकल गये। उनने सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव और सातवें गुरु तेगबहादुर एवं उनके शिष्यों को अमानुषिक ढंग से मौतें हीं, वह दिल-दहलाने वाली थीं। गुरु अर्जुनदेव पर खौलता तेल तब तक डाला गया, जब तक उनके प्राण निकल नहीं गये। दिल्ली के वर्तमान चाँदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर के दो शिष्यों में से एक को पानी में उबाल दिया गया, जबकि दूसरे को आरे से चिरवाया गया। इतने पर भी इस्लाम धर्म नहीं स्वीकार करने के अपराध में गुरु तेगबहादुर का सिर औरंगजेब ने कलम करवा दिया।
कश्मीर में हरीसिंह के पूर्ववर्ती तुर्क शासकों ने स्थानीय लोगों पर जिस प्रकार के अत्याचार किये, वैसा दूसरा उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। इस्लाम धर्म नहीं स्वीकार करने वाले कश्मीरी पंडितों के बारे में जिन्दा बन्द करके नदी में प्रवाहित कर दिया जाता। वे तड़पते हुए प्राण त्याग देते। इनसानों तक ही उनके अत्याचार सीमित नहीं रहे, जानवरों के साथ भी उनने क्रूरता का व्यवहार किया। कहा जाता है कि बादशाह वहाँ की पहाड़ी चोटियों पर जाकर बैठ जाते और उन ऊँचाई से हाथियों को धकेल दिया जाता। बुरी तरह उनके अंग-भंग होते, तथा लुढ़कते-पुढ़कते हजारों फुट गहरी खाइयों में गिरकर मर जाते। इस दृश्य को देखकर उन्हें बहुत मजा आता।
तुर्कों की निर्दयता के बारे में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, लेकिन सबसे पुराना उदाहरण इतिहासकार ग्राफटन के क्रानिकल से मिलता है। सोलहवीं शताब्दी में जब तुर्कों ने आँस्ट्रिया पर हमला किया, तब उन्होंने उन पर भीषण अत्याचार किये। आँख निकाल लेना, जिन्दा रहते पेट फाड़ कर आँतें खिंचवाना, पिंजरे में बन्दकर समुद्र किनारे लहरों के प्रचण्ड थपेड़े खाने के लिए छोड़ देना आदि वहाँ की कुछ मुख्य यातनाएँ थी।
कहते हैं कि नाजियों द्वारा फ्राँसीसियों का जैसा उत्पीड़न हुआ था, उसमें जितने जिन्दा बच गये, वे भी उनके ही चरण-चिन्हों पर चले। गेस्टापों ने अपने शासन-सत्ता के दौरान कैसे-कैसे अमानवीय दण्ड दिये थे- यह कोई छिपी बात नहीं। उस क्रूर शासन के समापन के बहुत समय बाद भी पीड़ितों के बदले की भावना खत्म नहीं हो सकी थी। इसका एक ताजा उदाहरण 1957 में देखने को मिला, जिसमें एक फ्रेंच पैराटुपर ने अल्जीरिया में अपने क्रूर कर्मों के द्वारा उत्तेजना फैला रखी थी। तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति दगाल ने उक्त घटना को छिपाने का बहुत प्रयत्न किया, पर इसमें वे सफल नहीं हो सके। हेनरी एलेगएक फ्रेंच सम्पादक ने उस अमानवीय प्रसंग को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष प्रकट कर दिया। उसके इस दुस्साहस के कारण सरकार ने उसे 12 जून, 1957 को गिरफ्तार कर लिया और यंत्रणाओं की एक भीषण श्रृंखला शुरू हुई। उन्हें बिल्कुल वस्त्रहीन कर तवे की भाँति तप्त जमीन पर लिटाया गया, फिर गुप्ताँगों को नुकीले औजारों से खुरचा गया। सिर को पानी के अंदर तब तक डुबोये रखा, जब तक वह बेहोश न हो जाए। अनेक दिनों तक चिलचिलाती धूप में नग्न रखने के उपरान्त उस नमक का घोल पीने को दिया, लेकिन यातना का सबसे भयानक क्षण वह था, जब उसको सोडियम पेंटोथाँल की सुई लगाई गई, फिर बिजली के झटके दिये गये। कारागार से छूटने के बाद एलेग ने एक पुस्तक लिखी- दि क्वेष्चन जिसकी भूमिका में फ्राँस के तत्कालीन विचारक ज्याँ पाँल सार्त्र ने भारी मन से कहा था क भौतिक उन्नति की श्रेणी में आ गए हों, पर हमारा अन्तस् आदिम-असभ्यों की तरह ही अब भी बर्बर बना हूआळै। हम जंगल के अविकसित स्थिति में न रहें हो तो क्या हुआ? हमारी मानसिकता आज भी वैसी ही जंगली बनी हुई है।
स्पेन में भी पुराने समय में भीषणतम अत्याचार होते थे। इसी की एक आपबीती विलियम लिथगो ने अपनी कृति दि क्रूवेल्टी में वर्णित की है। घटना के अनुसार उन्हें जासूस समझकर पकड़ लिया गया, इसके बाद घोर त्रास दिये जाने लगे। रेक में लम्बा करके एक हाथ की खाल खिंचवा ली गई, कारण कि उसमें राजा जेम्स प्रथम का नाम एवं चित्र बना हुआ था। इसके बाद का उल्लेख करते हुए वे लिखते है-मेरी आँख बार-बार चौंक उठती। काल-कोठरी में किसी के प्रवेश करते ही उसके जल्दी आचरण याद कर बेहोशी छाने लगती और मुँह से झाग निकलने लगता, मूर्च्छा की स्थिति में भी होंठ फड़कते तथा कराह के दारुण स्वर से कोठरी गूँजने लगती। हाथ से खून रिस रहा था। मेरे एक-एक अंग को तोड़ा गया। उठती-बुझती साँसों को देखकर भी उन्हें संतोष न हुआ तो चीख बन्द करने के लिए चेहरे पर एक तीव्र प्रहार किया। बाद में लिथगो को दयनीय हालत में कारामुक्त कर दिया गया।
उपरोक्त घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है, मानों प्राचीन शासकों ने दण्ड और यातना के मध्य कोई फर्क नहीं समझा। व्यक्ति अपराध करता है, तो निश्चय ही कानून की दृष्टि से वह दोषी है। उसे सजा दी जानी चाहिए, ताकि वह यह अनुभव कर सके कि जो कुछ किया, गया, वह अनुचित था, अमानुषिक यातना देना-यह वास्तव में उस मनोवृत्ति द्योतक हैं, जहाँ से मानसिक पिछड़ेपन की पाशविकता से ऊँचा उठकर संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ। आज भी इस मानसिकता से हम पूरी तरह उबर नहीं सके हैं। वह अब भी जीवित है, जिसमें यातना का स्वरूप अवश्य बदल गया है, पर उसके पीछे झाँकती सामन्ती मानसिकता ज्यों की त्यों बनी हुई। यदा-कदा इसी को राजसत्ताधीश भी प्रच्छन्न रूप में ‘थर्ड डिग्री’ के परिवर्तित नाम से इस्तेमाल करते हैं।
इन सभी नृशंसताएं के बारे में अब तक काफी कुछ लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है। इन उल्लेखों में दो प्रकार के शब्दों की किसी-न-किसी रूप में अवश्य चर्चा होती है-एक ‘सैडिज्म’ दूसरा ‘मैषोचिज्म।’ ऐसे साहित्यों में से प्रत्येक में न्यूनाधिक ‘सैडोमैषोचिज्म’ अवश्य विद्यमान होता है। इन दोनों ‘इज्मों’ का जन्म कैसे हुआ? यह उल्लेखनीय है। वास्तव में ये दोनों शब्द यूरोप के दो व्यक्तियों के नाम से प्रचलित हुए, जिनके स्वयं के जीवन में भी क्रूरता, कठोरता और यंत्रणाओं के अभिन्न तरीके सम्मिलित थे।
काउण्ट डोनेसन अलफोंसे फै्रं्रकौस द सेड-यह एक फ्राँसीसी था, जो एक अभिजात्य घराने से सम्बन्ध रखता था और दूसरा सिवेलिगर लियोपोल्ड फाँन सैकोर मेषोचे-यह आँस्ट्रिया का रहने वाला था और एक सम्भ्रान्त परिवार का था।
समाजवादी देशों का एक विशिष्ट नारा है “अपराधियों को समाप्त कर दो, अपराध समाप्त हो जायेंगे।” साम्यवादी व्यवस्था में गहरी पैठ रखने वाले लोग जानते होंगे कि यह नारा कितना असफल रहा। यदि इसमें तनिक भी तथ्य होता, तो एकीकृत सोवियत संघ में करोड़ों रुबलों का घेटाला सामने नहीं आता। वस्तुतः यह सिद्धान्त ही गलत है। बल, यातना या दबाव के द्वारा समाज को सुधारा और बदला नहीं जा सकता। उसके लिए हमें भिन्न तरीका अपनाना पड़ेगा। स्नेह और प्यार का, शालीनता और सज्जनता का रास्ता ऐसा है, जिसके बल पर हिंस्र पशुओं को भी पालतू बना लिया जाता है, तो फिर मनुष्य इन तत्वों से सर्वथा अप्रभावित बना रहे, ऐसी बात नहीं। उसकी मूल सत्ता इतनी मलीन नहीं कि वह अपनी भलाई-बुराई समझाने पर नहीं समझ सके। हम स्नेह का सहारा लें, समाज हमें परिवर्तित दिखाई पड़ेगा।