सौर-रश्मियों के क्रांतिकारी उत्कर्ष से भरा मंगलपर्व मकर संक्रान्ति

January 1998

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‘रसो वै सः’- भारतीय तत्ववेत्ताओं ने जीवन को इसी रूप में परिभाषित किया है। रस यानि आनन्द-उल्लास, उमंग-उछाह। ये अवसर जीवन में बार-बार आएँ, अनवरत आएँ और सदा-सदा के लिए बने रहें, इसीलिए देवसंस्कृति में पर्वों का सृजन किया गया। निर्मल आनन्द के पर्याय ये सभी पर्व लोक-जीवन को देव-जीवन की ओर उन्मुख करते हैं। परन्तु इनमें भी मकर-संक्रान्ति के साथ ये अनुभूतियाँ कुछ अधिक ही गहराई के साथ जड़ी हैं। यह जन-आस्था तथा लोकरुचि का पर्व है। इसे समूची सृष्टि में जीवन अनुप्राणित करने वाले भगवान सूर्य की उपासना का पर्व भी कहते हैं। इस अवसर पर उमड़ने वाले सात्विक भव देश की सांस्कृतिक चेतना को पुष्ट करते हैं।

तभी तो लोकसंस्कृति पर्व-मकर संक्रान्ति सम्पूर्ण भारत में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भले ही इसके नामों में क्षेत्र-विशेष या भाषा-विशेष की विविधता झलकती हो, किन्तु हृदय के भावों में हर कहीं एक-सी समरसता और मधुरता है। यह पर्व पंजाब में लोहड़ी या माघी, उत्तरप्रदेश के पर्वतीय भागों यथा अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ में क्रमशः घुघुतिया, पुसूड़िया, उत्तरप्रदेश के मैदानी भागों एवं मध्यप्रदेश में लि या खिचड़ी संक्रान्ति, बंगला में बिसु, बिहार में दहीचूड़ा, महाराष्ट्र में मकर संक्रान्ति, दक्षिण में तिल-गुड़, तमिलनाडु में पोंगल तथा असम में मोगाली बिहु के नाम से अपने क्षेत्रीय जीवन में उत्साह एवं पवित्रता का संचार करता है। विभिन्न क्षेत्रों से उल्लास एवं सात्त्विक भावनाओं की ये एक-सी तरंगें राष्ट्र की साँस्कृतिक एवं सामाजिक संघबद्धता को सुदृढ़ करती हैं।

पौषमास की कड़ाके की सर्दी के साथ संसार के प्राणदाता भगवान सूर्यदेव दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश कर वातावरण में गर्मी की आहट की सूचना देते हैं। इसी के साथ जीवन में नवचेतना तथा नवस्फूर्ति संचरित होती है। सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में गमन को ही संक्रान्ति कहते हैं। मकर संक्रान्ति प्रायः प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ती है। सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते जाने की अवधि को दक्षिणायन तथा दक्षिण से उत्तर की ओर के यात्राकाल को उत्तरायण कहते हैं। वृत के 360 अंशों के समान ही पृथ्वी की परिक्रमापथ 360 अंशों में विभाजित है। इसके अण्डाकार परिक्रमापथ को 30-30 अंशों के समूहों में 12 राशियों में विभक्त किया गया है। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय सूर्य जिस राशि में दिखाई देता है, वही सूर्य की राशि कही जाती है। संक्रान्ति बारह राशियों में सूर्य का संक्रमण है-रवेः संक्रमण राषौ संक्रान्तिरिति कथ्यते। मकर संक्रान्ति नवम् धनु राशि से दशम मकर राशि में संक्रमण है।

चन्द्रमास साढ़े उन्तीस दिन का एवं चन्द्रवर्ष 354 दिन का होता है, परन्तु सौर-दिन 30 दिन का एवं सौर वर्ष 365 दिन 6 घण्टे का होता है, चन्द्रवर्ष निश्चित नहीं होता है, उसमें परिवर्तन आता रहता है। इसी परिवर्तन के कारण चार वर्षों में फरवरी उन्तीस दिन की होती है। सूर्य का संक्रमण एक निश्चित अवधि एवं समय में सम्पन्न होता है। इसी कारण मकर-संक्रान्ति प्रायः हर वर्ष 14 जनवरी को ही आती है।

संक्रमण पर्व मकर संक्रान्ति का मकर शब्द का भी विशेष महत्व माना जाता है। इस महत्व को अलग-अलग भाषियों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित किया है। हरीति ऋषि के अनुसार, मकर मत्य वर्ग के जल-जन्तुओं में सर्वश्रेष्ठ है- मत्स्यानाँ मकरः श्रेश्ठो। इसीलिए यह गंगा का वाहन है। प्रायः सभी शास्त्रकारों ने गंगा को मकरवाहिनी माना है। वायुपुराण में मकर को नौ निधियाँ पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द नील एवं खर्व हैं।

इसे इस प्रकार कहा गया है

पद्मों स्त्रियाँ, महापद्म शंखाँ मकर कच्छपाँ। मुकुन्द कुन्द नीलष्च वर्चाऽपि निधियो॥

कामदेव की पताका का प्रतीक मकर है। अतएव कामदेव को मकरध्वज भी कहा जाता है। बिहारी सतसई में महाकवि बिहारी ने भगवान श्रीकृष्ण के कुण्डलों का आकार मकरकृत बताया है।

मकराकृत गोपाल के कुण्डल सोहत कान। ध्स्यो मनो हिय धर समर ड्येढी लसत निसान॥

ज्योतिष गणना की बारह राशियों में से दसवीं राशि का नाम मकर है। पृथ्वी की एक अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार, सुमेरु पर्वत में उत्तर में दो पर्वत में से एक का नाम मकर पर्वत है। तमिल वर्ष में ‘तई’ नामक महिला का उल्लेख है, जो सूर्य के मकर रेखा में आने के कारण उसका नामकरण हुआ।

पुराणों में मकर संक्रान्ति का काफी विस्तार से वर्णन मिलता है। पुराणकारों ने सूर्य के दक्षिण से ऊर्ध्वमुखी होकर उत्तरस्थ होने की वेला को संक्रान्ति पर्व एवं संस्कृति पर्व के रूप में स्वीकार किया है। पौराणिक विवरण के अनुसार, उत्तरायण देवताओं का एक दिन एवं दक्षिणायन एक रात्रि मानी जाती है। इस काल में महात्मा भीष्म की इच्छामृत्यु वाली घटना भी इसके महत्व एवं महिमा को प्रतिपादित करती है। महाभारत में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है कि शर–शैय्या पर पड़े गंगापुत्र महासंकल्पवान वीरवर भीष्म, दर्शन करने आए हेसरूप ऋषियों से सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने शरीर-त्याग करने का संकल्प दुहराते हैं।

गमिश्यामिस्वकंस्थानमासीद्यन्मे पुरातनम्। उदगायनआदित्येहंसः सत्यं ब्रवीमिवः धरयिष्याम्य प्राणानुत्तरायणकाँक्ष्या॥

यह वैज्ञानिक सत्य है कि उत्तरायण में सूर्य का ताप शीत के प्रकोप को कम करता है। शास्त्रकारों ने भी मकर संक्रान्ति को सूर्य उपासना का विशिष्ट पर्व माना है। इस अवसर पर भगवान सूर्य की गायत्री महामंत्र के साथ पूजा-उपासना, यज्ञ-हवन का अलौकिक महत्व है। मकर संक्रान्ति पर्व के देवता सूर्य को देवों में विश्व की आत्मा कहकर अलंकृत किया गया है। आयुर्वेद के मर्मज्ञों का मानना है, शीतकालीन ठण्डी हवा शरीर में अनेक व्याधियों को उत्पन्न करती है। इसीलिए तिल-गुड़ आदि वस्तुओं का इस अवसर पर प्रयोग करने का विशेष विधान है। चरक संहिता स्पष्ट करती है-’शीते शीतानिलर्स्पषसंरुद्धो बलिनाँ बली। रसं हिन्स्त्यतो वायुः शीतः शीते प्रयुप्यति।’ इस प्रकोप के निवारण के लिए आयुर्विज्ञान विशेष घी-तेल, तिल-गुड़, गन्ना, धूप और गर्म पानी सेवन की सलाह देते हैं। उनके अनुसार,

तस्मात्तुषारसमये स्निग्ध-म्ललवणान् रसान् गोरसनिक्षुविकृतीर्वसाँ तैलं नवौदनम। अभ्यड्डोत्सादनं मूर्धि्रं तैलं जै्रनताकमातपम्। हेमन्तेऽभ्यस्यत्स्तोय-मुष्णाश्रायुर्नहीयते॥

शिवरहस्य ग्रन्थ में मकर संक्रान्ति के बारे में कहा गया है ‘वस्याँ कृष्ण तिलैः स्नानं कार्य चोर्द्वतनं शुभैः। तिला देयाष्च विप्रभ्यो सर्व देवोत्तरायणे। तिल तैलेन दीपाष्च देयाः षिव गृहे शभाः। होमं तिलैः प्रकुर्वेति सर्व देवोत्तरायणम्।’ इसके अनुसार उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति के अवसर पर हवन-पूजा, व्यवहार व खान-पान में तिल एवं तिल से बनी वस्तुओं पर अधिक जोर दिया गया है। लोक व्यवहार में भी तिल-खिचड़ी आदि गर्म पदार्थों के सेवन पर विशेष जोर दिया जाता है। सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में रहता है तब रवी की फसल चना, गेहूं आदि फसल पकने की स्थिति में होती है। इस समय सूर्य के ताप से उन फसलों को बढ़ने और पकने में सहायता मिलती है। यही कारण है कि मकर संक्रान्ति के लोकपर्व पर लोग अन्य को सूर्य भगवान को अर्पित करते है।

हमारे ऋषि-मनीषियों ने सुखी जीवन के लिए अनेकानेक विधाओं का उल्लेख किया है। इस क्रम में उन्होंने नी स्नान को भी महत्व दिया है। नदियों के उद्गम स्रोत पर्वत हैं, जहाँ से ये नदियाँ निकलती हैं। उन पर्वतों पर दिव्य औषधियाँ फलती-फूलती हैं तथा वर्षा के जल में मिलकर नदियों में गिरती हैं। अतः बहते हुए पानी में स्नान का महत्व बढ़ जाता है। इसी वजह से पुराणों में अन्य व्रतों के साथ स्नान व्रत का भी वर्णन है। माघ स्नान व्रत एक माह का होता है। यह पौष शुक्ल एकादशी अथवा पूर्णमासी से माघ शुक्ल एकादशी अथवा पूर्णमासी तक किया जाता है।

तीर्थ राज प्रयाग में और गंगा सागर में स्नान करना सौभाग्य की बात मानी जाती है। माघ की अमावस्या के दिन जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, तो गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर स्नान-ध्यान एवं सत्संग को पुण्य-फलोत्पादक कहा गया है। फिर जब 12 वर्षों में एक बार बृहस्पति और मेष या वृष राशि का संक्रमण होता है, तो इस पर्व को अतिविशिष्ट पुण्यकाल कहते हैं। इसका महत्व ज्योतिषवेत्ताओं के अनुसार अनेकों गुना अधिक है।

मकर संक्रान्ति में तिल आदि के दान के अलावा ज्ञानदान की भारी महिमा है। स्नान-दान करना भारतीय जनमानस की चिर-पुरातन लोकमान्यता है, परन्तु स्नान नदी में शरीर धोने एवं दान सिर्फ वस्तुओं के दान तक सीमित नहीं है। स्नान से जहाँ शरीर, वाणी एवं मन की पवित्रता अपेक्षित है वहीं दान का सर्वश्रेष्ठ प्रकार सत्कार्य के लिए अपनी उपार्जित सम्पदा का एक अंश, समय अथवा स्वयं का ही उत्सर्ग है। विचार-क्रान्ति की ज्ञान-दान परम्परा में इसी का श्रेष्ठतम रूप झलकता है। आचार्य हेमाद्रि के अनुसार इस, संक्रमण के आगे-पीछे की 15-15 घड़ियाँ शुभ बतायी गयी हैं। आचार्य बृहस्पति ने संक्रान्ति के क्षणों की 20-20 आगे-पीछे की घड़ियों को शुभ फलदायक मानते हैं।

पद्मपुराण में मकर संक्रान्ति के दिन दान को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

सर्व एव शुभ कालः सर्वो देषस्तथा शुभः सर्वो जनो दान पात्रं मकराष्चे दिवाकरः॥

अर्थात्-जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी देश व स्थान शुभ हैं और हर व्यक्ति दान के श्रेष्ठतम प्रकार ज्ञान-दान का सुपात्र है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, मकरराशि के स्वामी सूर्य पुत्र शनिदेव है। शनि के स्वामी सूर्य पुत्र शनिदेव हैं। शनि के प्रकोप से मुक्ति पाने के लिए इस दिन गायत्री महामंत्र से की गई सूर्योपासना महाशुभ है। मत्स्यपुराण में भी इस दिन व्रत रखने एवं सूर्योपासना करने को श्रेष्ठ माना गया है। स्कन्दपुराण में भी मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य उपासना के साथ यज्ञ हवन एवं दान को पुण्य-फलदायक बताया है।

महाभारत में तिल दान एवं तिल खाने की बात को इस तरह स्वीकारा गया-

तिलान दधात, तिलान मष्यान तिलान प्राण रूप स्पृषेत। तिलं तिल मिति बूयात तिला पापन हरा हिते॥

अर्थात्- तिल का दान, तिल का भक्षण तथा प्रातः तिल का उबटन लगाकर स्नान करे तथा मुख से तिल की महिमा औरों को बतायें, क्योंकि यह तिल समस्त पाप रूप रोगों का शमन करता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति पर तिलदान एवं तिल-सेवन की प्रथा समूचे भारतवर्ष में प्रचलित है। महाराष्ट्र की महिलाएँ तिल के साथ हल्दी और कुमकुम भी दान करती हैं। कई क्षेत्रों में जल-कुम्भादि के साथ सत्तू दान भी किया जाता है। हरियाणा एवं उत्तरप्रदेश की सब वधुएं अपनी-अपनी रीति के अनुसार इस दिन अपने पूज्यजनों को तिल-ताम्बूल एवं कम्बल आदि गरम वस्त्र देकर उनका सत्कार करती हैं। तिल स्नेह का प्रतीक है तो गुड़ मिठास का। इन दोनों का समन्वय कर तिलोहड़ी के रूप में कई जगी मकर संक्रान्ति का आयोजन होता है।

लोकसंस्कृति के विविध पक्षों को अपने में सँजोये यह पर्व भारतीय, सामाजिक, साँस्कृतिक चेतना को आध्यात्मिक भावना एवं साधना से जोड़ता है। पर्व ही तो सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का मूल आधार है। जिस प्रकार पर्व को आधार बनाकर पर्वत समुन्नत होता है, पर्वताकार होता है और जिस प्रकार गन्ने की पोर की तरह मानव शरीर भी पोर-पोर से जुड़ता हुआ जीवन में उत्कर्ष पाता है, उसी प्रकार विभिन्न जीवन-पद्धतियों की समस्त जीवन्त परम्पराओं को मकर-संक्रान्ति का लोकपर्व भारतीय समाज को समुन्नत बनाता रहा है। यह साँस्कृतिक संक्रान्ति पर्व ऋतु चक्र, महाभारत काल की आस्था, पौराणिक जन-विश्वास प्राकृतिक निधि, जलदेवता, वरुणा तथा गंगा वाहन ‘मकर’ से जुड़ा है और सूर्य-रश्मियों के क्रान्तिकारी उत्कर्ष से भरा है। इसी के साथ इसमें एक संदेश भी निहित है, संक्रान्ति के अवसर पर गायत्री महामंत्र से सूर्योपासना का महिमान्वित संदेश। वर्तमान क्षणों में यह संदेश युग-आह्वान भी है, इसे सुनकर जो अपनी उपासना में आगे बढ़ेंगे वे ही युग-संक्रान्ति की उपलब्धियों को बटोर सकेंगे।


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